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योगी सरकार के मंत्रियों और अफसरों की भी लोकायुक्त में शिकायत, जांच पेंडिंग
सरकार में बैठे उच्च पदस्थ अधिकारी भविष्य में इस तरह की अनावश्यक कार्यों से परहेज करेंगे| लोकायुक्त प्रशासन भी आशा करता है कि माननीय उच्च न्यायालय ने निर्णय पारित करते हुए जो तीन सवाल उठाया है उस पर राज्य सरकार के उच्च पदस्थ प्राधिकारी विचार करेंगे और उनको समझा कर उस का सटीक उत्तर जनसामान्य और प्रशासन के समक्ष रखेंगे|
लखनऊ: योगी सरकार के मंत्रियों और अधिकारियों की भी जांच लोकायुक्त में पेंडिंग है। राज्य संपत्ति महकमे से जुड़ा प्रकरण भी विचाराधीन है। यह स्वीकारते हुए सचिव लोकायुक्त पंकज कुमार उपाध्याय ने कहा कि लोकायुक्त के उच्च श्रेणी का मकान निरस्त कर निम्न श्रेणी का मकान आवंटित करने के राज्य सरकार के फैसले की वजह से लोकायुक्त प्रशासन का कार्य प्रभावित हुआ है।
उन्होंने प्रदेश सरकार की कार्यशैली पर सवाल उठाते हुए कहा की लोकायुक्त का उच्च श्रेणी का आवास निरस्त करके निम्न श्रेणी का आवास आवंटित कर दिया गया था जिसके विरोध में लोकायुक्त प्रशासन हाई कोर्ट गया हाई कोर्ट ने सरकार के उस आदेश को निरस्त करते हुए कठोर टिप्पणी की है| सचिव लोकायुक्त पंकज कुमार उपाध्याय ने एक सवाल के जवाब में कहा की हाई कोर्ट ने खुद तीन सवाल उठाए हैं यह अबूझ पहेली है कि आखिरकार लोकायुक्त का उच्च श्रेणी का आवंटित आवास क्यों निरस्त किया गया और उन्हें निम्न श्रेणी का आवास आवंटित किया गया उच्च न्यायालय ने ऐसा प्रश्न किया है।
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उन्होंने सरकार की लोकायुक्त प्रशासन पर दबाव बनाने की कोशिश से भी इंकार नहीं किया। कहा कि ऐसा हो सकता है यह दबाव बनाने की कोशिश हो।जब उनसे पूछा गया कि लोकायुक्त के आवास आवंटन के निरस्तीकरण के फैसले को प्रमुख सचिव न्याय ने अप्रूव किया था तो पंकज कुमार उपाध्याय ने कहा कि हाईकोर्ट के निर्णय में यह नहीं कहा गया है कि प्रमुख सचिव न्याय ने उस फैसले को अप्रूव किया यह कहने के लिए हमारे पास कोई कारण नहीं है
जब उनसे पूछा गया कि क्या राज्य संपत्ति विभाग से जुड़ा कोई मामला लोकायुक्त प्रशासन में विवेचनाधीन है तो उन्होंने इसे स्वीकार किया| उच्च पदस्थ अधिकारियों पर नाराजगी जताते हुए सचिव लोकायुक्त ने कहा कि हम चीफ सेक्रेट्री को इस बारे में लिखेंगे कि ऐसे अधिकारियों पर कार्रवाई की जाए|
हमारे यहां स्टाफ की कमी है: सचिव
सचिव पंकज कुमार उपाध्याय ने लोक प्रशासन की काम में आने वाली अड़चनों को गिनाते हुए कहा कि हमारे यहां स्टाफ की कमी है। परिवादो के निस्तारण में अन्वेषण के लिए केवल तीन अनवेषण अधिकारी नियुक्त हैं जिनकी संख्या 3 से बढ़ाकर कम से कम 6 किए जाने की मांग काफी समय से की जा रही है लेकिन उसका समाधान अभी तक नहीं हुआ है इसके अलावा शासन से एक पुलिस महानिरीक्षक, 2डीआईजी, 3 पुलिस अधीक्षक, 10 पुलिस उपाधीक्षक और 25 आरक्षी के पदों की मांग भी काफी लंबे समय से लंबित है। पर्याप्त संख्या में आशुलिपिक अपर निजी सचिव और निजी सचिव और अन्य सहयोगी कार्मिकों की आवश्यकता है|
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वर्तमान में जो तीन अनवेषण अधिकारी तैनात हैं उनके लिए कोई आशुलिपिक उपलब्ध नहीं है यही नहीं वरिष्ठ पुलिस उपाधीक्षक के पद पर आसीन इस पुलिस कर्मचारियों के लिए जांच हेतु कोई वाहन या कोई आधारभूत सुविधा नहीं दी गई है जिसकी वजह से जांच में देरी होती है| जांचों की संवेदनशीलता को देखते हुए मुख्य अनवेषण अधिकारी और सचिव जो उच्चतर न्यायिक सेवा से हैं उनके लिए पर्सनल सिक्योरिटी गार्ड नियुक्त किए जाने की मांग भी काफी समय से लंबित है| इसके अलावा लोक प्रशासन को प्रभावी बनाने के लिए लोकायुक्त और उप लोकायुक्त अधिनियम 1975 में संशोधन करके शक्तियां देना जरूरी है|
सरकार में बैठे उच्च पदस्थ अधिकारी भविष्य में इस तरह की अनावश्यक कार्यों से परहेज करेंगे| लोकायुक्त प्रशासन भी आशा करता है कि माननीय उच्च न्यायालय ने निर्णय पारित करते हुए जो तीन सवाल उठाया है उस पर राज्य सरकार के उच्च पदस्थ प्राधिकारी विचार करेंगे और उनको समझा कर उस का सटीक उत्तर जनसामान्य और प्रशासन के समक्ष रखेंगे|
क्या है पूरा मामला
दरअसल राज्य संपत्ति विभाग ने 8 जून 2016 को लोकायुक्त को 21 गौतम पल्ली लखनऊ स्थित टाइप 6 का आवास आवंटित किया था जिसे 3 दिसंबर 2017 के आदेश द्वारा निरस्त कर दिया गया और राज्य संपत्ति विभाग ने लोकायुक्त के पद से निम्न स्तर का टाइप 5 का मकान बटलर पैलेस कॉलोनी में आवंटित किया और 21 गौतम पल्ली लखनऊ के मकान को खाली करने और बटलर पैलेस कॉलोनी मकान का कब्जा लेकर उसका प्रतिमाह किराया अदा करने का आदेश दिया गया।जिसके खिलाफ लोकायुक्त प्रशासन ने हाईकोर्ट में याचिका दायर की थी। 21 दिसंबर 2018 को हाईकोर्ट ने अंतिम रूप से उस याचिका को निस्तारित करते हुए राज्य संपत्ति विभाग द्वारा जारी लोकायुक्त को आवंटित आवास को निरस्त करने संबंधी 3 दिसंबर 2017 के आदेश को निरस्त करते हुए उस याचिका को वाद व्यय सहित स्वीकार किया है।
लोकायुक्त का कार्यालय न तो आयोग है और न ही राज्य सरकार के नियंत्रण अधीन!
सचिव लोकायुक्त ने कहा कि न्यायालय ने राज्य सरकार के स्तर से दिए गए इस तर्क को विधि योचिय नहीं पाया कि लोकायुक्त का पद राज्य सरकार के नियंत्रण के अधीन आने वाले आयोगों के अध्यक्षों के बराबर है न्यायालय ने मत व्यक्त किया है कि लोकायुक्त का कार्यालय न तो आयोग है और न ही राज्य सरकार के नियंत्रण अधीन है|
न्यायालय ने यह निर्णय दिया है कि आदेश पारित करते समय राज्य संपत्ति विभाग के प्रमुख सचिव एवं राज्य संपत्ति अधिकारी दोनों ही वरिष्ठ अधिकारी को इस बात की भलीभांति जानकारी थी कि उत्तर प्रदेश लोकायुक्त तथा उप लोकायुक्त अधिनियम 1975 की धारा- 5 (5) सपठित नियम- 10 उत्तर प्रदेश लोकायुक्त एवं उप लोकायुक्त (सेवा की शर्तें) नियमावली 1981 के प्रावधानों के तहत लोकायुक्त उत्तर प्रदेश की सेवा संबंधी वह सारी सुविधाएं जिनमें आवास भी शामिल है जो मुख्य न्यायमूर्ति उच्च न्यायालय इलाहाबाद को अनुमन्य है|
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जो राज्य संपत्ति विभाग के नियंत्रणाधीन भवनों का आवंटन अधिनियम 2016 के नियम-4 में दी गई सारणी के अनुसार टाइप-6 और 7 प्रकार के आवासों के आवंटन के हकदार हैं इसकी पूरी तरह से जानकारी होने के बावजूद जिससे प्रमुख सचिव राजस्व विभाग ने लोकायुक्त को आवंटित टाइप-6 के आदेश को निरस्त किया है और जिस तरह राज्य संपत्ति अधिकारी ने, जिन्हें उच्च न्यायालय के अनुसार लोकायुक्त कार्यालय की विधिक स्थिति के बारे में कोई भान तक नहीं है आवंटन के आदेश पर हस्ताक्षर किया है। यह प्रशंसनीय नहीं है हाईकोर्ट ने राज संपत्ति विभाग के इस आदेश को विधिक शब्दावली में दुर्भावना की संज्ञा दी है
न्यायालय ने इस बात पर अप्रसन्नता जाहिर करते हुए कहा है कि राज्य की सर्वोच्च विधि अधिकारी एडवोकेट जनरल उत्तर प्रदेश द्वारा दी गई सलाह को भी केवल इस आधार पर दरकिनार कर दिया गया है कि राज्य सरकार उक्त सलाह से बाध्य नही है।न्यायालय के अनुसार भले ही एडवोकेट जनरल की सलाह बाध्यकारी ना हो लेकिन उनकी सलाह को केवल सनक या पक्षपात के आधार पर बिना किसी उचित कारण के नजरअंदाज किया जाना सद्भावना पूर्ण नहीं माना जा सकता।
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निर्णय पारित करते हुए न्यायालय ने तथ्यों को देखते हुए तीन अहम सवाल उठाए हैं-
1- क्या प्रश्नगत आदेश लोकायुक्त द्वारा निष्पादित किए जाने वाले कर्तव्यों के संवेदनशील प्रकृति के कारण पारित किया गया?
2- क्या यह कृत्य लोकायुक्त जैसी गरिमामयी पद को नीचा दिखाने एवं अपमानित करने का प्रयास तो नहीं है?
3- क्या राज्य सरकार द्वारा लोकायुक्त के प्रति इस प्रकार का लापरवाही एवं गैर जिम्मेदाराना व्यवहार किया जाना उचित था?
न्यायालय ने इन सभी प्रश्नों को राज्य सरकार के उच्च अधिकारियों के द्वारा स्वयं विचार किए जाने हेतु खुला छोड़ा है|