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उत्तराखंड : सत्रह बरस में सबको अपने-अपने हिस्से का हक चाहिए
आलोक अवस्थी, वर्षा सिंह
देहरादून। आखिरकार पर्वतीय राज्य उत्तराखंड की आजादी के सत्रह बरस में यहां के तंत्र ने गण को अपने जैसा ढाल ही लिया। सबको अपने-अपने हिस्से का हक चाहिए। गांव को बिजली चाहिए वह भी बिना मीटर के, नेता को सोने का महल चाहिए अंगूठा लगा के.. तो अफसर को भी सब चाहिए फाइल दबा के। मानो देश देश न होकर बेईमानी का खेत हो गया जिसमें बीज से लेकर फसल तक अपने अपने हिस्से का सोना उगाने के लिए जोती बोई जा रही हो।
बतौर टेस्टोमोनियल नए नए जवान हुए (सत्रह साल पूरे) उत्तराखंड का ही उदाहरण लेते हैं जहां सत्ता गोरे अंग्रेजों से नहीं अपने पढ़े लिखे लाड़लों को चलने के लिए मिली, हमने कौन से कीर्तिमान स्थापित कर दिये? सत्रह बरस में दोनो ही महान दलों ने अपने तमाम वैचारिक-वयवहारिक ढोल नगाड़े की ओट में कौन सा नया देश राग गढ़ लिया? नाला कल भी वहीं गिर रहा था, आज भी गर्व के साथ वहीं विसर्जित हो रहा है। गोमुख से या नदी के किसी मुहाने से नीच उतरना शुरू करो तो अवैध निर्माणों की ऐसी फसल लहलहाती मिलती है जिसको काट पाना या हटा पाना नामुमकिन लगता है।
गणतंत्र में यथा राजा तथा प्रजा का निर्माण करने की स्वायत्तता है। गण से निकले राजाओं को पहले तंत्र ने अपने जैसा बनाया और फिर दोनो ने मिलकर गण को भी अपनी बेईमानी की प्रयोगशाला का औजार बना डाला। रोचक यह है कि किसी को भी इस सच को स्वीकार करने में कोई गुरेज नहीं है कि अब यदि आप उनके जैसे नहीं हैं तो आपकी किस्मत फूटी है। अपना भारत ने कई प्रमुख लोगों से इन हालातों पर चर्चा की।
पूरा सिस्टम जिम्मेदार है खासकर नेता और अधिकारी इनकी भूख ही नहीं मिटती। इनके खाने से कुछ बचे तो राज्य के बारे में सोचें। बेईमानी की हद खत्म हो चुकी है। केवाल अपना अपना पेट और कुछ नहीं।
अमरीश कुमार, पूर्व विधायक कांग्रेस
‘हमें जब भी अवसर मिला बहुत मेहनत की गई। उत्तराखंड के विकास के लिए जो कुछ भी हुआ है वो हमारी सरकार की मेहनत का ही परिणाम है। हमारी पार्टी की मेहनत पर कांग्रेस की सरकार पानी फेर देती है। भ्रष्टाचार के सारे रिकार्ड उठाकर देख लीजिए किस-किस का हाथ है। पता चल जाएगा। हम जांच कर कर के परेशान हैं। हर जांच हर बार एक बड़ी बेईमानी का खुलासा करती है।
अजय भट्ट, अध्यक्ष- उत्तराखंड भाजपा
उत्तराखंड में ऐसी कई जल विद्युत परियोजनाएं शुरू की गई हैं, जिन्हें पर्यावरण के लिहाज से अनुमति नहीं दी जानी चाहिए थी। मैं बता नहीं सकता हूँ कि कहाँ-कहाँ से दबाव आते हैं। इसका (दबाव का) कोई राजनीतिक रंग नहीं है। सब शामिल हैं। किसी भी परियोजना में कभी नदी की अविरल धारा को नहीं भूलना चाहिए. सिर्फ उत्तराखंड में ही 70 जल विद्युत परियोजनाएं हैं, जिनके बारे में हमें यह नहीं मालूम कि इनका पर्यावरण पर क्या असर होगा। हम नदियों में पानी देखना चाहते हैं, सुरंगें नहीं। एक समय आएगा जब उत्तराखंड में नदियाँ नहीं सिर्फ टनल ही दिखाई देंगी।
जयराम रमेश, कांग्रेस के नेता
युवाओं के बेहतर भविष्य के लिए आरक्षण, नशा मुक्त उत्तराखंड और जल-जंगल-जमीन के संरक्षण-संवर्धन को लेकर आंदोलन शुरू हुआ था। लेकिन ये मुद्दे आज कहीं नहीं है। राजनीति इसके लिए सीधे तौर पर जिम्मेदार है। राजनीति और अफसरशाही ने मिलकर उत्तराखंड के असल मुद्दे खो दिये और सब अपनी अपनी जेब भरते रहे। हाशिये की जनता आज भी हाशिये पर ही है। भ्रष्टाचार ने ऊपर से नीचे तक, राजनीति से जनता के बीच तक जरूर पैठ बना ली। गांव में मनरेगा के नाम पर बीस दिन के पैसे दिए जाते हैं, काम लिया नहीं जाता और दस दिन के पैसे वापस ठेकेदार अपनी झोली में ले लेता है। बेरोजगारी इतनी है कि दस दिन के उन पैसों के लिए कोई मना नहीं करता। इसी तरह नशा मुक्त उत्तराखंड कैसे बनता, जब शराब रेवेन्यू का सबसे बड़ा माध्यम है। शराब माफिया चुनाव के लिए राजनीतिक दलों को पैसे देते हैं। तंत्र ने गण को भी भ्रष्ट कर दिया है।
गीता गैरोला, सामाजिक कार्यकर्ता
हर बात के लिए नेताओं को जिम्मेदार ठहराने को गलत परिपाटी करार देते हैं। पतन का एक कॉकटेल बन गया है भ्रष्टाचार। इसमें नेता, अधिकारी, जनता सब शामिल है। पूरा समाज ही भ्रष्टाचार का शिकार हो गया है। नेता भी इसी समाज से निकलकर आ रहे हैं। चाहे तो हम पर्यटन को लेकर ही आगे बढ़ें लेकिन विकास के किसी एक मॉडल को जरूर चुनें, उसी के पीछे लीडरशिप तैयार करें।
अनूप नौटियाल, हम पार्टी के संयोजक
उत्तराखंड की इस दशा के लिए जनता काफी हद तक जिम्मेदार है। पहाड़ी राज्य की मांग करने वाले पहाड़ के लोग देहरादून में तो बीस वर्ष तक नौकरी कर सकते हैं लेकिन पहाड़ में दो साल नौकरी न करनी पड़े इसके लिए तमाम बहाने तलाशते हैं। मेरी नजर में इसके लिए सरकार भी दोषी है क्योंकि पर्वतीय जिलों में वो जरूरी सुविधाएं नहीं दी जा सकीं जिससे लोग बेहिचक अपने पहाड़ों के बीच रह सकें। आप पहाड़ में नौकरी करने वाले डॉक्टर को मैदानी जिलों में नौकरी करने वाले डॉक्टर से ज्यादा वेतन दो, तो वे जरूर पहाड़ चढ़ेंगे। विंटर गेम्स और एडवेंचर ट्यूरिज्म को लेकर उत्तराखंड में बेहतरीन संभावनाएं हैं। लेकिन राज्य की सभी सरकारें इन संभावनाओं को एक्सप्लोर नहीं कर पाई, एक फैसला लेने में पांच-पांच साल लग जाते हैं, यही वजह है कि आज उत्तराखंड विकास के पायदान पर बहुत पीछे है।
कर्नल अजय कोठियाल, प्रधानाचार्य, नेहरू पर्वतारोहण संस्थान, उत्तराखंड
सरकार को लोगों की आर्थिक स्थिति मजबूत बनाने के लिए काम करना चाहिए। इससे पलायन नहीं होगा और राज्य विकास कर सकेगा। आज की पीढ़ी भोग में अधिक लिप्त है। उसे सिर्फ विकास दिखाई दे रहा, विनाश दिखाई नहीं दे रहा है। जब वह भुक्तभोगी होगी, तो खुद आंदोलित हो उठेगी। हम नई पीढ़ी को जागरूक कर रहे हैं। दूसरी बात यह कि सरकारें पांच साल के लिए आती हैं, और वे अगला चुनाव जीतने के लिहाज से काम करती हैं। उनमें राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव होता है। कानून बन जाते हैं, लागू नहीं हो पाते। लेकिन जब जनता जागरूक होगी, तो सरकारों को भी काम करना होगा। लोग वन संरक्षण के काम को सरकारी मान बैठे हैं। पहले हर गांव के अलग-अलग जंगल होते थे, गांव के लोग उसका संरक्षण और संवर्धन करते थे। किसी गांव के जंगल में आग लगती थी तो उस गांव के लोग मिलकर बुझाते थे। लोग जंगलों से कट गए हैं, या फिर उन्हें काट दिया गया है।
चंडी प्रसाद भट्ट, पर्यावरणविद
उत्तराखंड के विकास की रेस में पिछडऩे के लिए सभी जिम्मेदार हैं। राजनीति में कई प्रेशर ग्रुप्स काम करते हैं। कुछ सही काम के लिए, कुछ गलत काम के लिए। नेताओं पर दबाव होता है जिसका नतीजा उनकी नीतियों में भी झलकता है। विकास के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति नहीं रही, उसी से बाकी चीजें प्रभावित हुईं। अफसरशाही माहौल के हिसाब से काम करती है। राज्य में हाइड्रो पॉवर के क्षेत्र में प्रबल संभावनाएं हैं लेकिन इसके खिलाफ जबरदस्त माहौल है। हाइड्रो पॉवर से ही राज्य अपने पांव पर खड़ा हो सकता है। ये राज्य घोषणाओं का राज्य बन गया है। एक योजना पूरी नहीं होती और दूसरी योजना की घोषणा पहले हो जाती है।
इंदु कुमार पांडे पूर्व आईएएस
डेवलपमेंट शुरू हो चुका है। कांग्रेस इतनी आर्थिक बोझ लाद कर गई है कि उससे ही निपटना भारी है लेकिन जल्द आपको बदले हुए हालात दिखेंगे। विश्वास रखना होगा उत्तराखंड की तकदीर जल्दी बदलेगी।
मि. मैन, विधायक
कांग्रेस ने बंटाधार कर दिया। राज्य के निर्माण के साथ हमें एक बड़ा आर्थिक पैकेज मिला था. दुर्भाग्य से हमारी सरकार नहीं आई शुरुआती दौर में ही इंडस्ट्रियल पैकेज के साथ छेडख़ानी हुई। अगर उस अवसर का ठीक से लाभ उठाया होता तो आज उत्तराखंड के हालात इतने न बिगड़े होते।
विश्वास डाबर, भाजपा के पूर्व प्रवक्ता