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उत्तराखंड सरकार के अफसरों द्वारा बनाई गई खनन नीति में हाईकोर्ट की फांस
देहरादून: खनन के पट्टों को देने के लिए उत्तराखंड सरकार के अफसरों द्वारा बनाई गई खनन नीति में खनन माफिया को फायदा पहुंचाने के लिए की गई गलती को सुधारने की सरकार की कोशिश हाईकोर्ट में जाकर अटक गई है। अब टेंडर निरस्त करने का सरकार को जवाब देना है। 19 फरवरी तक त्रिवेंद्र सरकार को हाई कोर्ट को बताना है कि पांच हेक्टेयर से कम क्षेत्रफल में खनन की निविदा को निरस्त करने के पीछे क्या कारण थे। मामले की सुनवाई न्यायाधीश यूसी ध्यानी की एकलपीठ ने की। याचिका पिथौरागढ़ के मनोज भट्ट ने दायर की थी। य़ाचिका में कहा गया था कि सरकार ने 18 दिसम्बर 2017 को पिथौरागढ़ हरिद्वार पौड़ी गढ़वाल रुद्र प्रयाग उत्तरकाशी के 105 नदी तलों में खनन के लिए निविदा निकाली थी। इसको तीन भागों में विभाजित किया गया था।
क्या थी शर्तें
पहली शर्त के अनुसार पांच हेक्टेयर क्षेत्रफल के पट्टों पर जिले के स्थानीय ठेकेदार ही निविदा कर सकते थे।
दूसरी शर्त में पांच हेक्टेयर से 50 हेक्टेयर क्षेत्रफल के पट्टों में खनन के लिए राज्य के ठेकेदार निविदा डाल सकते थे।
तीसरी शर्त के अनुसार इससे अधिक क्षेत्रफल के पट्टों में कोई भी ठेकेदार निविदा डाल सकता था।
यह निविदा 11 जनवरी 2018 को खोली गई जिसमें याचिकाकर्ता ने पांच हेक्टेयर क्षेत्रफल के लिए निविदा डाली थी।
उपखनिज लॉटों के आवंटन के लिए जब तकनीकी निविदाएं खोली गई तो 99 में से 59 लॉट के लिए पर्याप्त निविदाएं प्राप्त न होने पर वह स्वत: ही निरस्त होने की श्रेणी में आ गईं, जबकि 40 क्षेत्रों के लिए पर्याप्त निविदाएं मिलीं।
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इसके बाद 20 जनवरी को फाइनेंशियल बिड खोली जानी थी। इससे पहले कि प्रक्रिया आगे बढ़ती निदेशक खनन विनय शंकर पांडे ने आवेदकों के दस्तावेजों की जांच की तो पता चला कि पांच हेक्टेयर से कम क्षेत्रफल के लिए भी कंपनियां मैदान में हैं। जबकि पांच हेक्टेयर से कम क्षेत्रफल के लॉट के लिए जिला कैडर के आधार पर स्थायी निवासियों और स्थानीय सोसाइटी को योग्य माना गया था। जांच पता चला कि टेंडर में ही ऐसी शर्त जोड़ी गई थी, जिसके आधार पर छोटे लॉटों के लिए भी कंपनियों की राह खुल गई। लिहाजा, 36 लॉटों की निविदाएं तत्काल प्रभाव से निरस्त कर दी गईं। निदेशक ने इस मामले को गंभीर बताते हुए जांच कराकर कार्रवाई करने की बात कही। उनहोंने कहा कि यदि यह न किया जाता तो स्थानीय निवासियों के अधिकारों पर कुठाराघात हो जाता।
कैसे हुआ खेल
दरअसल उप खनिज परिहार संशोधन नियमावली में प्रावधान है कि पांच हेक्टेयर से कम क्षेत्रफल के खनन पट्टों की ई-निविदा में सम्बंधित जिले का व्यक्ति या उसकी समिति, जो कि को-ऑपरेटिव सोसायटी के तहत पंजीकृत हो, ही निविदा डाल सकेंगे। लेकिन जब ई-निविदा आमंत्रित की गईं तो उसमें व्यक्ति की समिति के साथ में कम्पनी या फर्म शब्द भी जोड़ दिया। जिसका लाभ उठाते हुए बाहरी कम्पनियों व फर्म ने भी पट्टों के लिए टेंडर डाल दिये।
पर्वतीय राज्य उत्तराखंड में अवैध खनन ज़ोरों पर है।
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जानकार इस कारोबार को पांच हजार करोड़ तक का बताते हैं। हालांकि सरकार को राजस्व से तीन सौ चार सौ करोड़ के बीच आमदनी होती है। खनन का कार्य प्रमुख रूप से सॉन्ग नदी, गुलरघाटी (देहारादून), श्रीनगर गढ़वाल, रुद्रप्रयाग, ऋषिकेश और अन्य स्थलों पर होता है। अवैध खनन से वन सम्पदा और नदियों के कटाव से हो रहे नुकसान पर सरकार चाह कर भी अंकुश नहीं लगा पा रही है। यदि राज्य में खनन माफिय़ाओं का कारोबार यों ही चलता रहा तो यह समृद्ध पर्वतीय राज्य भी अपनी प्रकृतिक पहचान खो देगा। जड़ी-बूटी हो या शुद्ध पर्यावरण सबकुछ इस राज्य से गायब होता जा रहा है।
कहा तो यह भी जा रहा है कि अवैध खनन से होने वाली कमाई का एक बड़ा हिस्सा राज्य में होने वाले चुनाव में खर्च होता है। इसीलिए अधिकारी और खनन माफिया दोनो ही फलफूल रहे हैं। ’मातृसदन के कार्यकर्ता स्वामी दयानंद ब्रह्मचारी के मुताबिक नैनीताल हाई कोर्ट ने बागेश्वर के नवीन चन्द्र पंत की याचिका पर 8 मार्च 2017 को उत्तराखंड की समस्त नदियों में खनन बंद करने और नदियों में खनन के अध्ययन के लिए एक उच्चाधिकार प्राप्त समिति का गठन करने का निर्देश दिया था।
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राज्य सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में इस फैसले के खिलाफ याचिका दायर की थी। जिस पर सुप्रीम कोर्ट ने 10 अप्रैल 2017 को नैनीताल हाई कोर्ट के फैसले पर रोक लगा दी थी और उत्तराखंड की नदियों में फिर से खनन चालू हो गया। इसके अलावा देहरादून मोहम्मद सलीम की याचिका पर ही 20 मार्च 2017 को नैनीताल हाई कोर्ट ने गंगा नदी को एक जीवित नदी घोषित कर दिया था। राज्य सरकार ने इस आदेश के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर रखी है। फिलहाल ये मामला सुप्रीम कोर्ट के विचाराधीन है। अब निविदा का मामला फिर हाई कोर्ट में जाकर उलझ गया है और सरकार को हाईकोर्ट को जवाब देना है।