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Uttarakhand: संविधान में है समान नागरिक संहिता की बात, लेकिन लागू कैसे करेंगे धामी

Uttarakhand: समान नागरिक संहिता का मसला हमेशा से भाजपा के एजेंडे में रहा है। 1989 के लोकसभा चुनाव में पहली बार भाजपा ने अपने घोषणापत्र में समान नागरिक संहिता का मुद्दा शामिल किया था।

Neel Mani Lal
Report Neel Mani LalPublished By Vidushi Mishra
Published on: 25 March 2022 12:03 PM IST
Pushkar Singh Dhami
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पुष्कर सिंह धामी (फोटो-सोशल मीडिया)

Uttarakhand: उत्तराखंड में भाजपा के पुष्कर सिंह धामी ने घोषणा की है कि उनकी सरकार जल्द ही राज्य में समान नागरिक संहिता लागू करेगी। धामी ने कहा है कि राज्य मंत्रिमंडल ने सर्वसम्मति से मंजूरी दी है कि एक विशेषग्य समिति जल्द से जल्द गठित की जाएगी और समान नागरिक संहिता को राज्य में लागू किया जाएगा। ऐसा करने वाला यह पहला राज्य होगा।

समान नागरिक संहिता का मसला हमेशा से भाजपा के एजेंडे में रहा है। 1989 के लोकसभा चुनाव में पहली बार भाजपा ने अपने घोषणापत्र में समान नागरिक संहिता का मुद्दा शामिल किया था। तीस साल बाद 2019 के लोकसभा चुनाव के घोषणापत्र में भी भाजपा ने समान नागरिक संहिता को शामिल किया था।

वैसे ये दूसरी बात है कि 2014 में भाजपा जबरदस्त बहुमत से सत्तासीन हुई थी। समान नागरिक संहिता को लेकर सुप्रीम कोर्ट से लेकर दिल्ली हाईकोर्ट तक सरकार से सवाल कर चुकी है। 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने नाराजगी जताते हुए कहा था कि समान नागरिक संहिता को लागू करने के लिए कोई कोशिश नहीं की गई। वहीं, पिछले साल जुलाई में दिल्ली हाईकोर्ट ने केंद्र से कहा था कि समान नागरिक संहिता जरूरी है।

आजादी के बाद से ही समान नागरिक संहिता पर बहस चल रही है। हालांकि, अब तक इसे लागू नहीं किया जा सका है। भारत का संविधान, भाजपा और अदालतें – सब सामान नागरिक संहिता की बात करते हैं लेकिन इसे लागू नहीं किया जा रहा है।

भारत में विभिन्न समुदाय अलग-अलग व्यक्तिगत कानूनों जैसे हिंदू विवाह अधिनियम, हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, हिंदुओं के लिए हिंदू दत्तक ग्रहण और रखरखाव अधिनियम द्वारा शासित होते हैं। जबकि मुस्लिम, पारसी और ईसाई अपने निजी कानूनों से शासित होते हैं। संविधान के अनुच्छेद 44 में यह प्रावधान है कि, - राज्य भारत के पूरे क्षेत्र में नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता को सुरक्षित करने का प्रयास करेगा।

क्या राज्य सरकार ऐसा कर सकती है?

उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने राज्य में समान नागरिक संहिता लागू करने की बात कही है। लेकिन क्या कोई राज्य सर्कार ऐसा कर सकती है? कुछ एक्सपर्ट्स का कहना है कि कोई भी राज्य सरकार समान नागरिक संहिता को विधि सम्मत तरीके से लागू नहीं कर सकती। समान नागरिक संहिता को केवल संसद के जरिए ही लागू किया जा सकता है।

संविधान में कानून बनाने की शक्ति केंद्र और राज्य दोनों के पास है, लेकिन पर्सनल लॉ के मामले में राज्य सरकारों के हाथ बंधे हैं। इसलिए उत्तराखंड या अन्य राज्य सरकारें अपनी ओर से पर्सनल लॉ में कोई संशोधन या समान नागरिक संहिता लागू करने का यदि प्रयास करें तो कानून की वैधता को अदालत में चुनौती मिल सकती है। भारत में सिर्फ गोवा में समान नागरिक संहिता लागू है। वहां पुर्तगाल सिविल कोड 1867 लागू है जिसे 1961 में गोवा के भारत में विलय के बाद भी बरकरार रखा गया है।

संविधान की व्यवस्था

समान नागरिक संहिता (फोटो-सोशल मीडिया)

समान नागरिक संहिता संविधान के अनुच्छेद 44 के अंतर्गत आती है, जो यह बताती है कि 'राज्य' भारत के पूरे क्षेत्र में नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता को सुरक्षित करने का प्रयास करेगा। यहाँ राज्य से तात्पर्य देश से है।

भारतीय संविधान में निदेशक सिद्धांतों के अनुच्छेद 44 का उद्देश्य कमजोर समूहों के खिलाफ भेदभाव को दूर करना और देश भर में विविध सांस्कृतिक समूहों में सामंजस्य स्थापित करना था। डॉ. बी.आर. अम्बेडकर ने संविधान बनाते समय कहा था कि एक समान नागरिक संहिता वांछनीय है लेकिन फिलहाल इसे स्वैच्छिक रहना चाहिए, और इस प्रकार संविधान के मसौदे के अनुच्छेद 35 को भाग 4 में राज्य नीति के निदेशक सिद्धांतों के एक भाग के रूप में जोड़ा गया था।

भारत के संविधान के अनुच्छेद 44 के रूप में इसे संविधान के एक पहलू के रूप में शामिल किया गया था जो तब पूरा होगा जब राष्ट्र इसे स्वीकार करने के लिए तैयार होगा और इस संहिता को सामाजिक स्वीकृति दी जा सकती है।

डॉ अम्बेडकर ने संविधान सभा में अपने भाषण में कहा था - किसी को भी इस बात से आशंकित होने की आवश्यकता नहीं है कि यदि राज्य के पास शक्ति है, तो राज्य तुरंत अमल करने के लिए आगे बढ़ेगा ... ईसाई या किसी अन्य समुदाय द्वारा। मुझे लगता है कि अगर यह ऐसा करता है तो यह एक पागल सरकार होगी।

समान नागरिक संहिता की उत्पत्ति

इस संहिता की उत्पत्ति औपनिवेशिक भारत में हुई जब ब्रिटिश सरकार ने 1835 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की, जिसमें अपराधों, सबूतों और अनुबंधों से संबंधित भारतीय कानून के संहिताकरण में एकरूपता की आवश्यकता पर बल दिया गया। विशेष रूप से सिफारिश की गई कि हिंदुओं और मुसलमानों के व्यक्तिगत कानूनों को इस तरह के संहिताकरण के बाहर रखा जाए।

ब्रिटिश शासन के अंत में व्यक्तिगत मुद्दों से निपटने वाले कानूनों में वृद्धि ने सरकार को 1941 में हिंदू कानून को संहिताबद्ध करने के लिए बीएन राव समिति बनाने के लिए मजबूर किया। हिंदू कानून समिति का कार्य सामान्य हिंदू कानूनों की आवश्यकता के प्रश्न की जांच करना था। समिति ने, शास्त्रों के अनुसार, एक संहिताबद्ध हिंदू कानून की सिफारिश की, जो महिलाओं को समान अधिकार देगा। 1937 के अधिनियम की समीक्षा की गई और समिति ने हिंदुओं के लिए विवाह और उत्तराधिकार की नागरिक संहिता की सिफारिश की।

सर्वोच्च न्यायलय का फैसला

सर्वोच्च न्यायालय ने अपने विभिन्न निर्णयों में समान नागरिक संहिता की आवश्यकता की ओर इशारा किया है। अहमद खान बनाम शाह बानो बेगम केस में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि - एक सामान्य नागरिक संहिता कानून के प्रति असमान वफादारी को दूर करके राष्ट्रीय एकीकरण के कारण में मदद करेगी, जिसमें परस्पर विरोधी विचारधाराएं हैं। शाह बानो मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने विधायिका को संविधान के अनुच्छेद 44 द्वारा अनिवार्य समान नागरिक संहिता के लिए जाने का निर्देश दिया था। लेकिन इसके बाद तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने मामला ही पलट दिया।

समान नागरिक संहिता के पक्ष में तर्क

समान संहिता न्याय, समानता और राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा देगी। ये लैंगिक समानता और महिलाओं के कल्याण को बढ़ावा देगा। यह तर्क दिया जा सकता है कि पर्सनल लॉ सिस्टम संविधान की समानता के सिद्धांत का उल्लंघन करता है क्योंकि अलग-अलग धर्मों के लिए अलग-अलग पर्सनल लॉ होने से हम धर्मनिरपेक्षता और समानता के खिलाफ जा रहे हैं। लेकिन समान संहिता सभी नागरिकों के लिए समान कानूनों को शामिल करके समानता और न्याय को बढ़ावा दे सकता है।

एक अन्य लाभ यह है कि यह व्यक्तिगत कानूनों द्वारा शासित जटिल कानूनी मामलों को सरल करेगा और व्यक्तिगत कानूनों के अंतर्निहित लैंगिक अन्याय को दूर करके लैंगिक न्याय को बढ़ावा देगा। मुस्लिम महिलाओं के मामले में भरण-पोषणसमान संहिता की शुरूआत इस तरह के हस्तक्षेप को रोकेगी और सभी महिलाओं के कल्याण के लिए समान प्रावधानों को बढ़ावा देगी।

भारत में विशेष विवाह अधिनियम 1954 जैसे धर्मनिरपेक्ष कानून पहले से मौजूद हैं। यह कानून सभी धर्मों के सदस्यों को नियंत्रित करता है चाहे हिंदू, मुस्लिम, पारसी, ईसाई आदि। यह भारत के सभी नागरिकों के बीच स्वीकार्य है। इससे पता चलता है कि ऐसा कोई कारण नहीं है कि एक समान धर्मनिरपेक्ष कानून को पूरे भारत में विस्तारित और लागू नहीं किया जा सकता है।

यह ठीक ही बताया गया है कि समान नागरिक संहिता अनुच्छेद 25 और 26 का उल्लंघन नहीं करेगा और यह धर्मनिरपेक्षता और अनुच्छेद 44 का उद्देश्य प्राप्त करने में मदद करेगा। इसके अलावा, यह तर्क दिया जा सकता है कि विवाह, उत्तराधिकार आदि धर्मनिरपेक्ष मामले हैं और कानून उन्हें विनियमित कर सकता है।

संविधान का अनुच्छेद 25 राज्य को धर्म के मामलों में हस्तक्षेप करने की शक्ति देता है। इसलिए, राज्य धार्मिक संस्थाओं के कल्याण के लिए प्रावधान बना सकता है और हम तर्क दे सकते हैं कि समान नागरिक संहिता एक कल्याणकारी कानून है क्योंकि यह पर्सनल लॉ सिस्टम के निहित अन्याय और खामियों को दूर करेगा।

समान नागरिक संहिता की शुरूआत से मुस्लिम सहित भारत के सभी नागरिकों के बीच एकरसता को बढ़ावा मिलेगा और इससे महिलाओं की स्थिति में सुधार होगा। यह तलाक और भरण-पोषण पर व्यक्तिगत कानूनों के संबंध में महिलाओं के प्रति पूर्वाग्रहों को भी दूर करेगा। भारत में हिंदू महिलाओं को नियंत्रित करने वाले कानून मुस्लिम महिलाओं को नियंत्रित करने वाले कानूनों की तुलना में प्रगतिशील और कम भेदभावपूर्ण हैं। ऐसा कोई कारण नहीं है कि महिलाओं के एक हिस्से को ऐसे अधिकारों के लाभों से बाहर रखा जाए। समान संहिता की शुरूआत पूरे भारत में महिलाओं के लिए समान अधिकार सुनिश्चित करेगी।

समान नागरिक संहिता के खिलाफ तर्क

यह तर्क दिया जाता है कि भारत में बहुत सारे धर्मों को मानने वाले लोगों के साथ एक अधिक विविध संस्कृति है और इसलिए भारत को पश्चिम प्रत्यक्षवाद केंद्रित कानून की आँख बंद करके नकल नहीं करनी चाहिए।

इसे बड़े पैमाने पर मुसलमानों द्वारा अपनी पहचान के लिए एक खतरे के रूप में देखा जाता है क्योंकि यह संहिता अपने आप में हिंदुओं की बहुसंख्यक आबादी के पक्ष में प्रतीत होती है। यह एक समान संहिता के बजाय एक समान हिंदू संहिता की तरह दिखता है।

केंद्र सरकार क्या कर रही है

समान नागरिक संहिता का मसला लॉ कमीशन के पास है। कानून मंत्री किरन रिजिजू ने इसी साल 31 जनवरी को भाजपा सांसद निशिकांत दुबे को एक पत्र लिखकर बताया था कि समान नागरिक संहिता का मामला 21वें विधि आयोग को सौंपा गया था, लेकिन इसका कार्यकाल 31 अगस्त 2018 को खत्म हो गया था. अब इस मामले को 22वें विधि आयोग के पास भेजा सकता है।

Vidushi Mishra

Vidushi Mishra

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