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अमा जाने दो: ‘पिक्यूटी’ से बदतर सियासत का रंग!

raghvendra
Published on: 20 April 2019 12:39 PM IST
अमा जाने दो: ‘पिक्यूटी’ से बदतर सियासत का रंग!
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नवल कान्त सिन्हा

पोलिटिक्स है क्या चीज हमको बताओ, ये किसने शुरू की हमें भी सुनाओ... अमां भाई आज के चुनावी हालात देखकर अपन बड़े कन्फ्यूज हैं... समझ ही नहीं आ रहा कि पोलिटिक्स के कोर्स में किस-किस टॉपिक पर स्पेश्लाइजेशन की जरूरत होती है। अभी हाल ही में शशि थरूर तुलाभरम अनुष्ठान में खुद को तुलवाने के लिए तुले हुए थे और तुला से लुढक़ कर अपना खोपड़ा फुड़वा बैठे। अब चुनाव में घायल हो गए तो नंबर कटते हैं न... लेकिन थरूर साहब के तो नंबर बढ़ गए। थरूर ने ट्वीट कर इजहार किया कि निर्मला सीतारमण का आना दिल को छू गया। राजनाथ सिंह ने भी शशि थरूर को फोन कर हाल-चाल लिया। अब इसे सामान्य शिष्टाचार समझूं या सियासत का एक रंग... मतलब दुश्मन के भी हाल-चाल लेना।

वरना तो आजकल सियासत में लोग अपने दोस्त को पशु-कुल से बदतर मित्रहंता, लालायित, थूकचट्टा जैसे शानदार विशेषणों से नवाजने को मजबूर हैं। अब आप सोचेंगे कि जिस दौर में हिमाचल प्रदेश के भाजपा अध्यक्ष सतपाल सिंह सत्ती बाकायदा मंच पर चढ़ कर मां की गालियों से देश के एक बड़े नेता को नवाजने से नहीं चूकते। जब आजम खां जैसे बड़े नेता महिला नेत्रियों के अन्त:वस्त्रों के कलर पर मंच से चर्चा करते हैं। और अगर आयोग एक्शन ले ले तो इसको अपने धर्म से जोड़ देते हैं। ऐसे दौर में मित्रहंता और थूकचट्टा जैसे शब्द कहां समझ में आएंगे।

अब इस रायते को भी समझ लीजिए। विश्वास कीजिए कि ये शब्द कुमार विश्वास ने इस्तेमाल किए हैं, एक कुत्ते की फोटो ट्वीट और लिखा, ‘ये 45 दिन के पिक्यूटी महाशय हैं, इन तक में इतना स्वाभिमान है कि जब से एक बार कमरे में प्रवेश न करने को कहा है, तबसे बिना प्यार से पुकारे अंदर नहीं आते ! 50 बार ‘लगभग मना’ करने की जरूरत ही नहीं, क्यूंकि ये भोले ‘पशु-कुल’ से हैं, ‘मित्रहंता लालायित थूकचट्टा’ वंश से नहीं।’ अब इतना तो तय हो गया कि कुमार साहब विश्वास के साथ किसी व्यक्ति को कुत्ते से बदतर बता रहे हैं। अब ऐसा कौन सा व्यक्ति है, जो रिजेक्ट हो जाने के बाद किसी से बार-बार अनुरोध कर रहा है। क्योंकि ये तो तय ही है कि वही व्यक्ति कुत्ते से बदतर है। वैसे मित्र से धोखाधड़ी तो पत्रकार आशुतोष, आशीष खेतान, योगेंद्र यादव, प्रशांत भूषण, कुमार विश्वास, मयंक गांधी, कपिल मिश्रा जैसे लोग भी कर चुके हैं। न विश्वास हो तो केजरीवाल से पूछ लो। रही बात ‘लालायित’ की तो कौन नेता नहीं होता। फिर राजनीति में थूक के चाटना तो मूल चरित्र है तो थूकचट्टा होना कौन सी बुरी बात है।

वैसे भी इन ज्ञान भरी बातों से कौन अनभिज्ञ है। इसकी जानकारी के लिए कौन सी डिग्री की जरूरत है। फिर सियासत में किसी की डिग्री की कौन से गारंटी इस पिछले चुनाव में कोई ग्रेजुएट था तो इस चुनाव इंटर पास भी हो सकता है। और फिर कौन सा डिग्री से ही ज्ञान आता है। कौन सा कबीर जी पीएचडी थे और कौन सा तुलसीदास जी कान्वेंट एजुकेटेड थे। फिर अमेठी की चुनावी लड़ाई में डिग्री पर चर्चा करने का क्या मतलब।



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राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

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