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Mahakumbh Mela History Video: कुम्भ आस्था की गंगा, आध्यात्म का संगम और जीवन का अमृत
Mahakumbh Mela History Video: हम यह भूल जाते हैं कि कुंभ एक पारंपरिक, धार्मिक व सांस्कृतिक प्रक्रिया है, जो निश्चित कालावधि में संपन्न होती है। यह गंगा जमुन की निर्मल जलधार, भावों में अदृश्य सरस्वती एकाकार और उसी के साथ अथाह जनाधार का संगम हैं।
Mahakumbh Mela History Video
Mahakumbh Mela History Video: पर हम इस पर अमल करने को तैयार नहीं हैं। हम उन बातों पर बिल्कुल अमल नहीं करते हैं, जिन बातों से हमारा कोई फ़ायदा हो सकता है। अमल नहीं करने की वजह है कि हम जिस राग को छेड़ते हैं, बस उसी राग को इतना अलापते रहते हैं ताकि वह शोर बन जाये। इन दिनों कुछ यही हालत हमने कुंभ को लेकर कर रखी है। हम कुंभ को लेकर इनके मुखर हैं, कि जिधर देखिये, सब को कुंभ ही कुंभ दिख रहा है। लग ही नहीं रहा है कि उत्तर प्रदेश में, देश में कुंभ के अलावा कुछ और हो भी रहा है, इसी अति का नतीजा है कि प्रयागराज में होटलों के कमरों के किराये आम और ख़ास लोगों के जेब से बाहर हो गये हैं। जहाज़ के टिकट तो जेब से निकल कर तिजोरियों तक जा पहुँचे हैं। यानी अगर आप देश के किसी कोने से प्रयागराज तक का हवाई टिकट लेना चाहें तो आप को अपनी तिजोरी में हाथ लगाना पड़ेगा।इस नजरिये से देखें तो हमने कुंभ को धर्म, आस्था व अध्यात्म की त्रिवेणी की जगह बाज़ार बना दिया है। एक ऐसा बजार जिसमें अति की अति हो रही है। पूरा का पूरा दिन हम मीडिया के लोग स्टीव जॉब्स की पत्नी के इर्द गिर्द ही काट देते हैं। आईटी बाबा के संन्यास लेने के इर्द गिर्द खबरें घूमती रहती हैं।
कबीर दास जी बहुत पहले कह गये हैं-
अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप।
अति का भला न बोलना, अति का भला न चूप।
हम यह भूल जाते हैं कि कुंभ एक पारंपरिक, धार्मिक व सांस्कृतिक प्रक्रिया है, जो निश्चित कालावधि में संपन्न होती है। यह गंगा जमुन की निर्मल जलधार, भावों में अदृश्य सरस्वती एकाकार और उसी के साथ अथाह जनाधार का संगम हैं। कुंभ मानव कल्याण के लिए धर्म का उद्दात प्रयोग है। कुंभ का वर्णन ऋग्वेद में भी मिलता है। तुलसीदास ने तो कह ही रखा है-
को कहि सकइ प्रयाग प्रभाऊ ।
यानी प्रयाग के प्रभाव मतलब महत्व को कौन कह सकता है। यानी ये वर्णनातीत है। फिर भी हम उसके वर्णन पर चार चाँद लगाने की नाहक कोशिश कर रहे हैं।
खैर, यह कुम्भ का समय है। दुनिया का सबसे बड़ा समागम। भारत के अलावा कहीं भी इस तरह का आयोजन नहीं होता है, न लोगों की स्वतः भागीदारी होती है। जरा सोचिए एक दिन में करोड़ों लोगों का एक ही जगह एकत्र होना। वह भी बिना बुलावे के। अद्भुत बात है न।यह सिलसिला आज के संचार और ट्रांसपोर्ट युग का नहीं बल्कि तबसे चला आ रहा है बल्कि जब न कोई सुविधा थी और न कोई साधन। यही कुम्भ है। भारत की विस्मयकारी रीतियों, परंपराओं और मान्यताओं को प्राकट्य अनुभव का।
कितने ही संकट आये, कुंभ हमेशा नियत समय और स्थान पर हुआ। सूखा, भुखमरी, बीमारियां, आपदा, कोरोना क्या क्या नहीं हुआ परंतु कुंभ वैसे ही हुआ जैसे अनंत काल से होता आया है।
करोड़ों लोगों के लिए कुंभ मेले में भाग लेना महज़ तीर्थयात्रा नहीं है, बल्कि सनातन और आध्यात्मिकता की जड़ों की ओर लौटना है, जो एकता, शुद्धि और मोक्ष की ओर यात्रा का प्रतीक है - परम मुक्ति दिलाती है। कुंभ मेले का समृद्ध इतिहास प्रतिभागियों के लिए इसके महत्व को बढ़ाता है।
कुम्भ एक आध्यात्मिक अनुभव है, मेला तो इससे जुड़ी एक भौतिक चीज है। जनमानस समुद्र मंथन से निकली अमृत की बूंदों की तलाश में और अपना जीवन तारण करने के लिए त्रिवेणी संगम में डुबकी लगाते हैं। उस क्षण के सामने विशाल मेला क्षेत्र का कोई भी आकर्षण कोई मायने नहीं रखता। पर अब धीरे धीरे आध्यात्मिकता में आकर्षण ठूँसा जा रहा है। आकर्षण को आध्यात्मिकता पर तरजीह दी जा रही है।
कुंभ मेले में अब बदलाव हैं। ठहरने के लिए लक्ज़री टेंट हैं। एक दिन का लाख रुपए तक का किराया है। फाइव स्टार होटलों जैसी सुविधाएं हैं। पैदल न चलना पड़े इसके लिए गोल्फ कार्ट हैं। बेहतरीन व्यंजन के मेन्यू हैं। कोने कोने से फ्लाइट्स हैं। स्पेशल इंतज़ाम हैं। संगम में स्नान कराने की खास व्यवस्था है। मेले और अमृत कुम्भ के रसास्वादन में तनिक भी दिक्कत और तकलीफ न होने पाए, इसकी गारंटी है। आध्यात्मिक शांति के माहौल में रुकने, खाने और आराम करने के भरपूर इंतजाम हैं। बस पैसा चाहिए। या फिर वीआईपी का टैग, जिनके लिए सरकार बिल भरती है। बड़े सीईओ, बिजनेस क्लाइंट या जो भी काम के है, उनके इंतजाम तो कॉरपोरेट करते हैं। यह अलग मोहल्ला है। अमृत की अलग बूंदें हैं।
इस मोहल्ले से अलग एक दुनिया और भी है, जहां कुम्भ के कल्पवासी के लिए उनकी कुटियाएँ लाख रुपये प्रतिदिन किराए वाली लक्ज़री कॉटेज की तुलना में अलौकिक अनुभव देती हैं। उसे सर्द रातें, बर्फीली हवाएं, कुछ और असर नहीं करतीं। संगम तट पर मौजूद व्यापक जन समूह के लिए किसी भी टेंट सिटी के गीजर से कहीं ज्यादा गर्म पानी और सुकून संगम की डुबकी में उसे होता है। रेतीले तट पर नंगे पैर कई कई किलोमीटर चलने का आनंद सिर्फ वही अनुभव कर सकते हैं। भंडारों की रोटी, पूड़ी या अखाड़ों की पंगत का दाल-भात जमीन से जुड़ने का एहसास देता है। कुम्भ में जुटने वाले ऐसे करोड़ों लोगों के लिए किसी आमंत्रण की जरूरत नहीं होती। गांव गांव कोई हाकिम इनविटेशन कार्ड लेकर नहीं जाते। कभी ऐसा नहीं हुआ। लोग खुद आते हैं, बुलाने की जरूरत नहीं होती। कुम्भ किसी एक का नहीं होता, यह सबका है। सबका होता है। यहां बुलावा नहीं दिया जाता है। जनसमूह अपना पैसा लगा कर, धक्के खा कर आता है और उसी तरह चला भी जाता है।क्योंकि कुम्भ कोई टूरिज्म नहीं है। यह एक अलौकिक अनुभव है। यह एक आध्यात्मिक यात्रा है।
आम और खास - दोनों की कुम्भ दुनिया भले अलग हों लेकिन कमाने वालों के लिए कुम्भ एक बहुत बड़ा बिजनेस अवसर है। इवेंट बन बैठा हैं। खुद ही सोचिए, करोड़ों लोगों का आना। कितनी ही चीजें इससे जुड़ी होती हैं, ट्रांसपोर्ट, रहना, खाना वगैरह बहुत कुछ। तभी तो भारतीय उद्योग परिसंघ (सीआईआई) के आंकड़े तस्दीक करते हैं कि 2019 के कुंभ मेले से कुल 1.2 लाख करोड़ रुपये की कमाई हुई थी,जबकि 2013 के कुम्भ से 12 हजार करोड़ की कमाई हुई थी। अब 2025 का कुंभ तो 2019 से भी बड़ा है। जहां पिछली बार 25 करोड़ तीर्थयात्री शामिल हुए थे,वहीं इस बार 40 करोड़ लोगों के शामिल होने की उम्मीद जताई जा रही है। यह बिजनेस का भी कुम्भ है जिसके अमृत से कोई वंचित नहीं रहना चाहता। यही वजह है कि राजनेता हो, राजनैतिक दल हों, सरकारें हों या विपक्ष। कुंभ के मार्फ़त अपनी अपनी ब्रांडिंग करने में जुटे हैं। इसी नज़र व नज़रिये का तक़ाज़ा है कि अर्ध कुंभ, कुंभ और कुंभ को महाकुंभ बना दिया जाता हैं। जबकि महाकुंभ के सनातन परंपरा से कोई लेना देना नहीं हैं। सनातन परंपरा कुंभ या अर्ध कुंभ पर आ कर ठहर जाती है। क्योंकि समुद्र मंथन में कुंभ निकला था। महा कुंभ नहीं।
कुम्भ जीवन को अनुभव करने का समय और अवसर देता है। यह पूरे भारत और सम्पूर्ण सनातन के साक्षात दर्शन देता है। कुम्भ को किसी शब्द, चित्र, वीडियो, इंटरनेट से व्यक्त नहीं किया जा सकता है। कुम्भ से बिजनेस भले हो जाये लेकिन कुम्भ बिजनेस नहीं हो सकता।इसलिए जो लोगों भी कुंभ में जा रहे हैं, उन्हें सहमाना लेना चाहिए और उनके बारे में भी यह मान लेना चाहिए कि वे बिज़नेस के लिए, पर्यटन के लिये कुंभ नहीं जा रहे हैं। उन्हें अपने देश के सारे लोगों को एक साथ जुटे हुए देखना है। उन्हें यह देखना है कि विविधता में एकता कैसे होती है। उन्हें यह देखना है कि त्रिवेणी के संगम पर अखाड़ों का वैभव कैसा होता है। उन्हें यह देखना है कि संस्कृति, धर्म और आध्यात्म की त्रिवेणी में उनका क्या योगदान है। वह इस ऐतिहासिक कुंभ का साक्षी बनना चाहते हैं। पुण्य की डुबकी लगाना चाहते हैं।और गंगा, यमुना और सरस्वती के संगम में, जहां सरस्वती अदृश्य है, वहाँ ऋग्वेद की काल की ऋचाओं में वर्णित महात्म्य को प्राप्त करना चाहते हैं। उन्हें जीना चाहते हैं।