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Motivation Video: कल्पना का रियल संसार

Motivation Story Video: कल्पना का रियल संसार जरा कल्पना कीजिये, अगर कल्पना का संसार न होता तो कैसी होती ये दुनिया।कैसा होता आप के इर्द गिर्द का माहौल। हालाँकि ऐसा नामुमकिन है कि कल्पना होती नहीं।क्योंकि सिर्फ मशीन ही है जो कल्पना नहीं कर सकती है।हर इंसान , हर समाज कोई न कोई कल्पना करता ही है।

Yogesh Mishra
Written By Yogesh Mishra
Published on: 5 Feb 2025 1:49 PM IST (Updated on: 5 Feb 2025 3:01 PM IST)
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Motivation Story Video: हमारे आप के इर्द गिर्द की सारी की सारी दुनिया सिर्फ़ गणित, इतिहास, भूगोल,अर्थव्यवस्था अथवा अर्थशास्त्र पर आधारित नहीं है।इसके पीछे एक बहुत बड़ी ताक़त है। वह है हमारी आप की कल्पनाशक्ति । बिना कल्पना के शायद आप का एक दिन कभी भी नहीं बीतता होगा।ऐसे में हमारे सामने यह सवाल उठ खड़ा होता है कि हमें कल्पना को लेकर भी। कल्पना के संसार को लेकर भी बात करनी चाहिए ।आज हम आप से कल्पना के इसी संसार और कल्पना के इसी सवाल के साथ रुबरु हो रहे हैं।

कल्पना का रियल संसार जरा कल्पना कीजिये, अगर कल्पना का संसार न होता तो कैसी होती ये दुनिया।कैसा होता आप के इर्द गिर्द का माहौल। हालाँकि ऐसा नामुमकिन है कि कल्पना होती नहीं।क्योंकि सिर्फ मशीन ही है जो कल्पना नहीं कर सकती है।हर इंसान , हर समाज कोई न कोई कल्पना करता ही है। पर अब मशीनें भी कल्पना करने लगी है। क्योंकि कल्पना हमारे आप के जीवन का ऐसा हिस्सा है कि उसके बिना हम एक सुंदर दुनिया को गढ़ ही नहीं सकते हैं।

कल्पना ही हम इंसानों की जिंदगी, प्रगति, भविष्य को तय करती है। उसे स्वरुप देती है। सोचिये कल्पना नहीं होगी तो क्या यह सुंदर भविष्य हो सकेगा। यह कल्पनाशीलता ही है जिससे हमें बीमारियों के नए इलाज, नई टेक्नोलॉजी, नए गैजेट्स, नई दुनिया वगैरह तमाम नई चीजों से जोड़ा है। मिलाया है।आप सोचिये जब इंसान ने आसमान में उड़ने की कल्पना की होगी तभी वह जहाज बना सका होगा। यही नहीं, जब किसी ने ऐसी मशीन के बारे में सोचा होगा जिससे सात समंदर पार भी आमने सामने एक दूसरे को देखा जा सके। उसकी भाव भंगिमा को पढ़ा जा सके।तभी मोबाइल फ़ोन और वीडियो कॉल का जन्म हुआ होगा।अगर तमाम अविष्कारक सिर्फ गणित और साइंस तक खुद को सीमित होते, अगर उनके पास कल्पनाशीलता नहीं होती तो वे कुछ नया नहीं बना सके सकते थे। इस हकीकत से आप भी वाक़िफ़ होंगे। और यह हक़ीक़त आप के इर्द गिर्द गुज़रती ही होगी। हम चांद और मंगल पर इसीलिए पहुंच सके क्योंकि अंतरिक्ष अन्वेषण से पचासों साल पहले ही साइंस फिक्शन उपन्यासों में ऐसी यात्राओं की कल्पना की गई थी। ण्हें सोचा गया था। यह कल्पना ही थी कि उसने एक नई दुनिया या अंतरिक्ष के बारे में सवाल खड़े करने शुरु किये।और उन सवालों के जवाब को तलाशते तलाशते हमारे वैज्ञानिक अंतरिक्ष तक जा पहुँचे।

लेकिन क्या हम अब भी कल्पनाशीलता धारण किये हुए हैं? क्या हम कल्पनाशीलता को बढ़ावा दे रहे हैं? क्या हम जिज्ञासा को पोषण देने में विश्वास रखते हैं? जवाब एक है - नहीं। बात कड़वी जरूर है। लेकिन सच है। कल्पनाओं को गैरजरूरी, समय की बर्बादी और अनुत्पादक मान लिया गया है। उन कल्पनाओं को जिनके बारे में यह कहा जाता है कि अगर कल्पनाएं नहीं होतीं। तो एक सुंदर दुनिया की संकल्पना ही नहीं बनती।सुंदर दुनिया को बने की बात तो दूर है।

कल्पना से न पेट भरता है न जेब, यह तर्क भी दिया जाता है।तभी तो इंजीनियरिंग - डक्टरी की पढ़ाई करने, सरकारी नौकरी पाने, पैसा कमाने की होड़ लगी हुई है। आज होड़ का समय है। कल्पना का नहीं।जीडीपी की होड़, टॉप इकॉनमी बनने की होड़, विश्व गुरु बनने की होड़। इसी होड़ में कोई हफ्ते में 70 घण्टे काम कराने की बात कर रहा है तो कोई 90 घण्टे। आंकड़ों की होड़ है। कामगारों को समझाया जा रहा है कि कंपनी के लिए हाड़ गला दो। बीबी- बच्चों को भूल जाओं। खुद को मशीन बना लो। जीवन टार्गेट है। टार्गेट पूरा करने की जद्दोजहद है।रोबोट व एआई से मनुष्य को रिप्लेस करने की तैयारी है। ये तैयारियां किसी भय के साथ नहीं उपलब्धि के रुप में हमारे सामने लाई जा रही हैं। परोसी जा रही हैं। और कुछ इस तरह इन्हें हमारे सामने लाया जा रहा है, मानों हम इनसे पराजय के भाव में जी रहे हैं। यानी कल्पना का इनसे कोई रिश्ता होना नहीं चाहिए । जबकि हकीकत यह है कि इनके निर्माण में भी कल्पना का कोई न कोई योगदान तो रहा ही होगा।

फिर भी बताया जाता है कि राष्ट्र को अग्रणी बनाना है। तो कल्पना से बाहर आना होगा। यह सब करना कंपनी के लिए नहीं देश के लिए जरूरी है। ऐसे में भारतीय उद्योग जगत के एक बड़े उद्योगपति, जिनका नाम आनंद महिंद्रा है,वह यह कहते हैं कि इंजीनियरों और एमबीए की डिग्री जैसों को कला और संस्कृति का अध्ययन करने की जरूरत है ताकि वे बेहतर निर्णय लेने में सक्षम हो सकें। जरूरत एक ऐसे दिमाग की है जो समग्र सोच से जुड़ा हो, जो दुनिया भर के इनपुट के लिए खुला हो। तब वे उसी कल्पनाशील दिमाग की बात कह रहे होते हैं। जिस कल्पनाशील के आधार पर हम यहां तक पहुँचे हैं। जिस कल्पनाशीलता के मार्फ़त हमने अपनी ज़िंदगी और अपने समाज को सुंदर बनाया है। आनंद महिंद्रा कल्पनाशीलता की बात करते हैं, तो खून पीने वाली कंपनियाँ चलाने वालों को यह बात अखरती है।

पर यह याद रखना चाहिए कि आइंस्टाइन और न्यूटन जैसे वैज्ञानिक या दा विंची जैसे विचारकों या एलोन मस्क या बिल गेट्स जैसे उद्यमियों ने सिर्फ दो दूनी चार का गणित नहीं फॉलो किया। बल्कि संगीत, फिलॉसफी, कला, लिटरेचर के क्षेत्र में भी दिल लगाया, समय खपाया और अध्ययन किया। इसे अपना शौक बनाया।इसी के बूते कल्पनाओं की उड़ान भरी।यह कल्पनाशीलता ही है जिसके बूते दुनिया अलग आयाम बनाती है। हमने क्या कुछ नहीं बना लिया। आगे क्या क्या नहीं बना लेंगे, सिर्फ कल्पनाशीलता की ताकत पर ही तो। आप खुद सोचिये की क्या आप के जिंदगी का कोई ऐसा दिन गुज़रता है, जब आप अपने लिए, अपने समाज के लिए , अपने देश के लिए किसी कल्पना को गढ़ते न हों। कल्पना ने ही एक सुंदर संसार दिया है। हमने क्या नहीं पा लिया है। आगे क्या नहीं पा लेंगे। सिर्फ़ कल्पनाशीलता की ताक़त ही तो।

इन कामों में पैसा लगाने वाले भी कल्पनाशील रहे हैं, जिन्होंने उस नायाब और असंभव विचार की अहमियत समझी। उसे साकार करने में भरोसा जताया। कल्पना से ही क्रियेटिविटी उपजती है, जो इनोवेशन और आविष्कार को बढ़ावा देने वाली चिंगारी को भड़काती है। इसके जीवंत परिदृश्यों में, कलाकार उत्कृष्ट कृतियाँ उकेरते हैं, लेखक कहानियाँ और कविताएं गढ़ते हैं। संगीतकार ऐसी धुनें रचते हैं, जो हमारी आत्माओं को छूती हैं, उनमें गूंजती हैं। कल्पना हमें साधारण से आज़ाद करने, अपने दिमाग को नए दृष्टिकोणों के लिए खोलने और असाधारण को अपनाने की तरफ ले जाती है। चर्चा, बहस और चिंता 90 या 100 घण्टों, परीक्षा में सफलता, नौकरी, हारे हुए मन और हारे शरीर से काम करने, रिज़र्वेशन से आगे बढ़ कर काल्पनिकता को बढ़ावा देने, इनोवेशन को पोषित करने और बचपन से ही इसे प्रेरित करने की तरफ जानी चाहिए। लेकिन ऐसा नहीं है। ऐसा नहीं होने दिया जा रहा है। क्योंकि ऐसा होने के बाद एक सुंदर दुनिया होगी आप के इर्द गिर्द भी। जो लोग खून चूसने वाली कंपनियों के मालिक हैं, या उनके बड़े पदों पर बैठे हैं। वह नहीं चाहते हैं कि एक सुंदर दुनिया आप के इर्द गिर्द हो। और एक सुखमय वातावरण हो। तभी तो वह कह उठते हैं। छोड़िये बच्चों को। बीबी को कितनी देर देखेंगे । पछताते हैं कि काश! रविवार को भी वह काम करवा पाते। उन्हें नहीं पता कि रविवार की छुट्टी कितने जद्दोजहद और कितनी क़ुर्बानी के बाद हमें आप को हासिल हुई है।

सवाल है कि 53 देशों में से भारत ग्लोबल इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी इंडेक्स में 40वें स्थान पर क्यों है। भारत अपने जीडीपी का सिर्फ 0.7 फीसदी रिसर्च और डेवलपमेंट पर खर्च कर रहा है, जबकि अमेरिका 2.8 फीसदी, इज़राइल 4.3 फीसदी और कोरिया 4.2 फीसदी खर्च करता है। ये संख्याएँ बताती हैं कि दूसरों की तुलना में भारत में इनोवेशन की कमी क्यों है। क्यों कई घंटों खटने की बातें कही जा रही हैं। क्यों आगे बढ़ने के लिए सब कुछ के पीछे छूट जाने का पाठ पढ़ाया जा रहा है। वर्क प्लेस को अपनी दुनिया बनाने को बताया जा रहा है।हमारा आपका शरीर पंचमहाभूत से बना है। पर इसके लिए कुछ करने की ज़रूरत नहीं। यह बताया जा रहा है। हमने बाद में अर्थ जोड़ा। बस वहीं तक खुद को समेट लिजिए । अर्थ की संख्या भी आप नहीं इन कंपनी के मालिकान तय करेंगे। अर्थ तो जीवन का एक हिस्सा है। हमारे धर्म, संस्कृति व समाज में तीन और हिस्से बताये गये हैं- काम, धर्म व मोक्ष। लेकिन सभी चारों के मूल में धर्म को रखा गया है। पर काम के घंटों की नसीहत देने वाले धर्म का पालन नहीं कर रहे हैं। तभी तो यह सोचते हैं कि काम के घंटे केवल पेट की जरूरतें पूरी करें। आत्मा की जरूरतें, समाज व देश की जरूरतें, निरंतर एक सुंदर दुनिया गढ़ते जाने की जरूरतें कैसे पूरी होंगी। ये नहीं चाहते कि इन्हें आप हम मिलकर पूरा करें। कौन पूरी करेगा।सवाल यह उठता है कि आखिर कौन पूरी करेगा इन ज़रूरतों को। कैसे पूरी होंगी , हमारी आप की ये ज़रूरतें। इसके लिए काम के घंटों से इतर कुछ चाहिए । कल्पनाशीलता को किसी मैट्रिक्स में नापा नहीं जा सकता। यह कोई फैक्ट्री में प्रोडक्शन की चीज नहीं। कल्पना हम सभी के भीतर का एक असाधारण उपहार है, जो असीम संभावनाओं के द्वार खोलता है। पर बढ़ते काम के घंटे इसे मारते हैं। खैर, अच्छा है कि बढ़ते काम के घण्टों के बहाने कम से कम कुछ चर्चा तो शुरू हुई। लेकिन यह चर्चा सिर्फ उद्योगों के लीडरों या सोशल मीडिया तक सीमित नहीं रहनी चाहिए बल्कि घर घर में, स्कूल के क्लासरूमों में, टीचरों के बीच, पेरेंट्स के बीच होनी चाहिए। कुदरत ने इंसानी दिमाग की सबसे बड़ी खासियत उसकी कल्पनाशीलता की ताकत की दी है, इसे कुंद करने की कोशिश हो रही है। हमारी आपकी ज़िम्मेदारी बनती है कि इसे कुंद करने की जगह इसे धार दीजिए ।और यह धार सिर्फ़ हमारे आप के बीच न रहे। हमारी आप की ज़िम्मेदारी बनती है कि यह बच्चों के बीच भी जाये। और समाज के दूसरों तबकों के बीच भी। इस धार को कुंद करने के ख़िलाफ़ खड़े होने की शक्ति आये और कल्पना को विस्तार देने में हम सब जुटें।



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