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Y Factor | Faridabad के Badshah Khan Hospital का नाम Manohar Lal Khattar को बदलना चाहिये! | Ep- 144

Yogesh Mishra
Written By Yogesh Mishra
Published on: 21 Feb 2021 5:05 PM IST (Updated on: 9 Aug 2021 7:31 PM IST)
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हरियाणा के चन्द भाजपाई राजनेतागण, राज्य के मुख्यमंत्री मनोहरलाल खट्टर के कार्यालय के मूढ नौकरशाह, प्रदेश स्वास्थ्य महानिदेशालय के लापरवाह अधिकारीगण ये सब एक जघन्य भारतद्रोह के दोषी है। उनकी राष्ट्रघातक हरकत को राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र फरीदाबाद के जागरुक नागरिकों ने विफल कर दिया। इनकी साजिश थी कि सात दशकों पूर्व निर्मित भारतरत्न बादशाह खां अस्पताल को बदलकर अटल बिहारी वाजपेयी के नाम कर दिया जाये।

विभाजन के बाद मुस्लिम लीग द्वारा पाकिस्तानी पेशावर से खदेड़े गये हिन्दुओं ने फरीदाबाद के नवऔद्योगिक नगर (न्यू इंडस्ट्रियल टाउन) में बसकर अपने चन्दे से इस अस्पताल का निर्माण किया था। नाम भी इन हिन्दू शरणार्थियों ने अपने रक्षक और नायक सीमांत गांधी खान अब्दुल गफ्फार खा पर रखा था। इस अस्पताल का उद्घाटन अटलजी के परम श्रद्धेय और आदर्श रहे जवाहरलाल नेहरु ने 5 जून 1951 को किया था। हालांकि बादशाह खान को ''जिन्ना के भेड़ियों'' के मुंह में धकेलने वालों में नेहरु ही थे। अस्पताल के नामांतरण के प्रतिरोध वाले इस लोकाभियान के प्रमुख हैं भाटिया समाज के मोहन सिंह, केवल राम, बसन्त खट्टर आदि। इन सब की आयु 80 के करीब है। ये सब हिन्दू शरणार्थियों के पुरोधा हैं।

फरीदाबाद के नागरिकों तथा कुछ मीडियाजनों के अभियान के फलस्वरुप यह नामान्तरण का प्रस्ताव टल गया है। पर प्रधानमंत्री कार्यालय को जागना और उससे कदम उठाने की देश को अपेक्षा है।

भला हो चण्डीगढ़—स्थित ''दि हिन्दुस्तान टाइम्स'' के संवाददाता सौरभ दुग्गल का जिन्होंने इस नाम बदलने की खबर 17 दिसम्बर 2020 को प्रकाशित की। दुखद आश्चर्य हुआ कि सिंध के वासी और स्वयं पत्रकार रहे लालचन्द किशनचन्द आडवाणी के इस समस्त प्रकरण पर मौन से। वह अपने साथी नरेन्द्र मोदी का ध्यान तक आकृष्ट नहीं किया? ऐसी हरकत ?

भारत की नयी पीढ़ी जंगे—आजादी तथा जिन्नावादी मुस्लिम भारतद्रोहियों का इतिहास कम जानती है । अत: उनसे इस देवपुरुष बादशाह खां का फिर परिचय कराना हिन्दुहित में आवश्यक है।

आजादी के तुरंत बाद कुर्सी की रेस में नेहरु-पटेल ने इस अकीदतमंद देशभक्त हिन्दुस्तानी खान अब्दुल गफ्फार खान से उनकी मातृभूमि (सरहद प्रान्त) जानबूझकर छिनने दिया। पूरे भूभाग को, अंग्रेजी साम्राज्यवाद के दलाल मोहम्मद अली जिन्ना की फौज तले कुचलने दिया। इस भारतरत्न और उनके भारतभक्त पठानों को नेहरु—कांग्रेसियों ने "भेड़ियों" (मुस्लिम लीगियों) के जबड़े में ढकेला था।बापू तब मूक रहे थे।

दशकों तक पाकिस्तानी जेलों में नजरबंद रहे, यह फ़खरे-अफगन, उतमँजाई कबीले के बाच्चा खान अहिंसा की शत-प्रतिशत प्रतिमूर्ति थे। बापू तो अमनपसन्द गुजराती । थे जिनपर जैनियों और वैष्णवों की शांति-प्रियता का पारम्परिक घना प्रभाव था| मगर पठान, जिनकी कौम पलक झपकते ही छूरी चलाती हो, दुनाली जिनका खिलौना हो, लाशें बिछाना जिनकी फितरत हो, लाल रंग, लहूवाला पसंदीदा हो। ऐसा पठान अहिंसा का दृढ़ प्रतिपादक हो ! सरहदी गांधी नाम था उसका। अमन तथा अहिंसा का फरिश्ता था वह।

एकदा अपनी अफगानिस्तान यात्रा पर राममनोहर लोहिया ने काबुल में स्वास्थ्य—लाभ कर रहे बादशाह खान से भारत आने का आग्रह किया। आगमन पर दिल्ली हवाई अड्डे पर उतरते ही (1969) उनसे प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने उनकी काँख में दबी पोटली थामने की कोशिश की। मगर यह सादगी—पसंद फ़कीर अपना असबाब खुद ढोता रहा।

उसमें फकत एक जोड़ी खादी का कुर्ता-पैजामा और मंजन था। बादशाह खान ने पूछा था "लोहिया कहाँ है?" जवाब मिला उनका इंतकाल हो गया। सत्तावन साल में ही? फिर पूछा, उनका कोई वारिस? बताया गया: अविवाहित थे और गांधीवादी हीरालाल लोहिया की अकेली संतान थे।

उन्हीं दिनों (सितंबर 1969) गुजरात में आजादी के बाद का भीषणतम दंगा हुआ था। शुरुआत में एक लाख मुसलमान प्रदर्शनकारी अहमदाबाद की सड़कों पर जुलूस निकालकर नारे लगा रहे थे: "इस्लाम से जो टकराएगा, मिट्टी में मिल जायेगा।"

मुजाहिरे का कारण था कि चार हजार किलोमीटर दूर अलअक्सा मस्जिद की मीनार पर किसी सिरफिरे यहूदी ने तोड़फोड़ की थी। इतनी दूर साबरमती तट पर विरोध व्यक्त हुआ। प्रतिक्रिया में भड़के हिन्दुओं ने रौद्र रूप दिखाया। मारकाट मची।

तभी बादशाह खान शांतिदूत बनकर अहमदाबाद आये थे। गुजरात में बादशाह खान की तक़रीर हुई मस्जिदों में, जुमे की नमाज के बाद। वे बोले, "मैं कहता था तुम्हारे सरबराह नवाब, जमीनदार और सरमायेदार हैं। पाकिस्तान भाग जायेंगे। मुस्लिम लीग का साथ छोड़ो। तब तुम्हारे लोग मुझे ''हिंदू बच्चा'' कहते थे। आज कहाँ हैं वे सब?"

दूसरे दिन वे हिन्दुओं की जनसभा में गये| वहां कहा, "कितना मारोगे मुसलमानों को? चीखते हो कि उन्हें पाकिस्तान भेजो या कब्रिस्तान! भारत में इतनी रेलें, जहाज और बसें नहीं हैं कि बीस करोड़ को सरहद पार भेज सको। साथ रहना सीखो। गांधीजी ने यही सिखाया था।"

अगले दिन प्रेस कांफ्रेंस में एक युवा रिपोर्टर ने उनसे पूछा कि "जब पूर्वी पाकिस्तान में हिन्दू बंगाली युवतियों के साथ पंजाबी मुसलमान बलात्कार कर रहे थे। कलमा पढ़वा रहे थे, तो आप क्या कर रहे थे?" सरहदी गांधी का जवाब सरल, छोटा सा था : "पाकिस्तानी हुकूमत ने मुझे पेशावर की जेल में पन्द्रह सालों से नजरबन्द रखा था।"

उन्हीं दिनों भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस दो फाड़ की कगार पर थी। कांग्रेस अध्यक्ष एस. निजलिंगप्पा, मोरारजी देसाई, एस. के. पाटिल, अतुल्य घोष आदि ने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को पार्टी से बरतरफ कर दिया था।

बादशाह खान से मेरा प्रश्न था, "आप तो राष्ट्रीय कांग्रेस में 1921 से पच्चीस साल तक जुड़े रहे, क्या आप दोनों धड़ों को मिलाने की कोशिश करेंगे?" उनका गला रुंधा था। नमी आ गयी थी। आर्त स्वर में बोले : "तब (1947) मेरी नहीं सुनी गई थी। सब जिन्ना की जिद के आगे झुक गये थे। मुल्क का तकसीम मान लिया। आज मेरी कौन सुनेगा?"

उनकी नजर में यह कांग्रेस "वैसी नहीं रही जो बापू के वक्त थी। आज तो सियासतदां खुदगर्जी से भर गये हैं।" बादशाह खान को यह बात सालती रही कि दुनिया को अपना कुटुंब कहने वाला हिन्दू भी फिरकापरस्त हो गया है। कट्टर मुस्लिमपरस्ती के तो वे स्वयं चालीस साल तक शिकार रहे। आत्मसुरक्षा की भावना प्रकृति का प्रथम नियम है। किन्तु उत्सर्ग भाव तो शालीनता का उत्कृष्टतम सिद्धांत होता है। बादशाह खान का त्यागमय जीवन इसी उसूल का पर्याय है।



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