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Paan Singh Tomar Video: पान सिंह तोमर -एक बाग़ी की असल कहानी, वीडियो में देखें ये खास रिपोर्ट

Paan Singh Tomar Real Story: फौज में नौकरी करने के साथ ही पान सिंह तोमर ने भारत को ऐशियाई खेलों में भी रिप्रेजेंट किया। तो आखिरी ऐसा क्या हुआ कि पान सिंह तोमर बागी बन गया।

Akshita Pidiha
Published on: 11 May 2023 3:18 PM IST (Updated on: 11 May 2023 3:19 PM IST)

Paan Singh Tomar Real Story: पान सिंह तोमर का नाम भारत के लिए बहुत पहचाना नाम है। दिवंगत अभिनेता इरफ़ान खान (Irrfan Khan) द्वारा इस पर बनी फ़िल्म (Film Paan Singh Tomar) पर अभिनय किया गया है जो कि राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त कर चुकी है। पान सिंह तोमर (Paan Singh Tomar) साल 1932 से लेकर 1 अक्टूबर, 1982 तक भारतीय सेना का हिस्सा रहे। इस दौरान उन्होंने अपनी दौड़ने की प्रतिभा पर काम किया। वह 1950 और 1960 के दशक में सात बार के राष्ट्रीय चेंपियन बने। 1952 के एशियाई खेलों में उन्होंने भारत का प्रतिनिधित्व भी किया था। ऐसे में बड़ा सवाल है कि आखिर एक अच्छा सैनिक, मशहूर एथलीट बागी कैसे बन गया?

शुरुआती जीवन (Paan Singh Tomar Biography)

1 जनवरी, 1932 को मध्य प्रदेश के मुरैना जिले के भिदौसा गांव में पान सिंह तोमर का जन्म हुआ। पान सिंह तोमर ने चलने सीखने वाली उम्र में दौड़ना शुरू कर दिया। पान सिंह तोमर का 17 साल में ही फौज की राजपूताना राइफल्स (Rajputana Rifles) में सेलेक्शन हो गया। साल 1949 से लेकर 1979 तक फौज में नौकरी की। फौज की नौकरी करते हुए 7 बार राष्ट्रीय बाधा दौड़ का चैंपियन बने। एशियन गेम्स टोक्यो, जापान में भारत को रिप्रेजेंट भी किया। मिल्खा सिंह समेत देश के बड़े-बड़े लोग उसकी दौड़ की तारीफें किया करते थे। लेकिन तभी कुछ ऐसी घटना घटी कि उसे फौज की नौकरी छोड़ बीहड़ का रुख करना पड़ा।

नौकरी करते हुए पान सिंह का जीवन सही बीत रहा था। घर में बीवी, 2 बच्चे और मां थी। इसी बीच गांव में उसकी जमीन को लेकर विवाद होना शुरू हो गया। उसने वक्त से पहले नौकरी छोड़ गांव में रहकर खेती करने का फैसला लिया। दरअसल, पान सिंह और उसके चाचा की कुल मिलाकर ढाई बीघा जमीन थी। सवा बीघा पान सिंह की और सवा बीघा उसके चाचा की। चाचा को पैसों की जरूरत थी, इसलिए उसने पूरी ढाई बीघा जमीन गांव के दबंगों बाबू सिंह और जंडेल सिंह तोमर के पास गिरवी रख दी। कुछ दिनों बाद बाबू सिंह तोमर ने पूरी जमीन पर कब्जा कर चाचा को खेती करने से मना कर दिया। नौकरी छोड़ पान सिंह तोमर गांव पहुंचा तो उसने पंचायत बुलाई। पंचायत ने फैसला सुनाया कि पान सिंह और उसका चाचा बाबू सिंह को उसके पैसे चुकाएं और जमीन वापस ले लें। पान सिंह तैयार हो गया। लेकिन बाबू तोमर जमीन वापस करने के मूड में नहीं था।

पुलिस का नहीं मिला कोई साथ

पंचायत के फैसले के बाद भी बाबू तोमर जमीन वापस करने को तैयार नहीं था। पान सिंह के बेटे ने इसका विरोध किया। तो उन्होंने बेटे की ही जमकर पिटाई कर दी। पान सिंह पुलिस के पास गया तो पुलिस ने उल्टा उसी का मजाक बनाया। पान सिंह ने दरोगा को अपने देश के लिए जीते हुए मेडल तक दिखाए। लेकिन उसने उसकी कोई कद्र नहीं की। बाबू तोमर जमीन वापस करने के इरादे में नहीं था। उस जमीन पर चाचा ने जो खेती की थी बाबू ने सारी फसल में आग लगवा दी। पान सिंह ने हिम्मत नहीं हारी वो लगातार बड़े-बड़े अफसरों के पास जाता रहा।

पान सिंह की मां को भी नहीं छोड़ा

पान सिंह का बड़े-बड़े अफसरों तक जाना बाबू तोमर और जंडेल तोमर को पसंद नहीं आया। एक दिन उन्होंने पान सिंह को घर जाकर मारने का प्लान बनाया। वो घर की तरफ बढ़े, घर पर बीवी, बच्चे और मां थी। मां ने उन लोगों को बंदूक के साथ गुस्से में घर की तरफ आते देखा तो बहु और पोतों को घर से भाग जाने के लिए कहा। बाबू तोमर और उसके 8-10 साथी दरवाजा तोड़ते हुए घर के अंदर घुसे। वहां देखा तो केवल पान सिंह की बूढ़ी मां थी। वो इतने गुस्से में थे कि पान सिंह के ना मिलने पर उन्होंने बंदूक के बट से उसकी मां को ही पीट दिया। जब पान सिंह घर वापस आया और उसने अपनी मां की हालत देखी तो उसके सीने में आग लग गई और सुबह मां की मौत हो जाती है।

पान सिंह ने सूरज निकलने से पहले बाबू तोमर को मार डाला

मां के कसम देते ही पान सिंह ने बंदूक उठाई और भाई-भतीजे के साथ निकल पड़ा। पान सिंह ने अगले दिन का सूरज निकलने से पहले, सुबह 4 बजे के करीब बाबू तोमर को उसके घर में घुस कर गोली मार दी। इसके बाद पान सिंह बाबू के भाई जंडेल सिंह को मारता है। कुछ दी दिनों में बाबू तोमर के रिश्तेदार लायक सिंह और हवलदार सिंह को भी गोली मार देता है। इन 4 हत्याओं के बाद पुलिस पान सिंह के पीछे पड़ जाती है। पुलिस से बचने के लिए पान सिंह अपने भाई, भतीजों और परिवार के कुछ लोगों के साथ चंबल के बीहड़ की तरफ भाग जाता है।

खुद की गैंग बनाकर वार करते थे

बीहड़ में पहुंचने के कुछ दिनों बाद पान सिंह ने गैंग बना ली। गैंग में आधे लोग परिवार के थे और आधे ऐसे थे जो पान सिंह को अपना रोल मॉडल मानने लगे थे। समाज और पुलिस के सताए हुए थे। साल भर में उसकी गैंग में 30 से ज्यादा लोग शामिल हो चुके थे। इसके बाद उसने अपनी गैंग को फौज वाली ट्रेनिंग देनी शुरू कर दी। कुछ ही महीनों में उसकी गैंग इतनी ताकतवर हो गई थी कि पुलिस भी पान सिंह की गैंग का सामना करने से डरने लगी थी। उसकी गैंग के अन्य डाकू उसे सूबेदार चाचा कहकर बुलाते थे।

6 लाशों को ढेर कर लिया भाई की मौत का बदला

बीहड़ में खाने-पीने का ठिकाना नहीं रहता था, इसलिए पान सिंह की गैंग बीहड़ के आस-पास के गांवों में डेरा डाला करती थी। उसकी गैंग गांव के किसी भी रसूखदार के घर पहुंचती और उन्हें खाना खिलाने को कहती। एक दिन पान सिंह अपनी गैंग के साथ भिंड के एक गांव में गुर्जर के घर पहुंचा उससे खाना बनाने के लिए कहा। घर के मुखिया ने इस बात की जानकारी पुलिस को दे दी। पुलिस ने बिना देरी किए पान सिंह के गैंग पर हमला बोल दिया। हमले में पान सिंह का भाई मातादीन मारा जाता है। पान सिंह और बाकी गैंग वहां से बच निकलती है। कुछ दिनों बाद पान सिंह को पता लगता है कि गुर्जर ने उसकी मुखबिरी की थी। पान सिंह दोबारा उस गांव पहुंचता है और गुर्जर परिवार के 6 लोगों को एक साथ गोली मार देता है। मारने के बाद अपने लाउडस्पीकर से गांव में ऐलान करता है, “सरकार और पुलिस को बता देना पान सिंह को पकड़ पाना उनकी औकात से बाहर है।” इस हत्या की घटना से MP सरकार हिल जाती है।

MP के मुख्यमंत्री ने दिवाली के दिए नहीं जलाए

साल 1981, जब पान सिंह ने 6 लोगों को एक साथ मारा था तब MP के मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह (CM Arjun Singh) थे। इस घटना से अर्जुन सिंह को बहुत दुःख हुआ था। उस वक्त उन्होंने कहा था, वे इस साल दिवाली नहीं मनाएंगे। अर्जुन सिंह पान सिंह को जिंदा या मुर्दा पकड़ने का हुक्म देते हैं। पुलिस पर दबाव बनता है और फिर BSF की 10 टुकड़ियां और STF की 15 टुकड़ियां पान सिंह के पीछे लगा दी जाती हैं। उस वक्त पान सिंह को तलाशने के लिए अर्जुन सिंह सरकार ने 3 करोड़ से ज्यादा रुपए खर्च कर दिए थे। पुलिस को नई तकनीक के हथियार भी दिलाए गए थे।

लोगों को नौकरी का लालच दिया तब पुलिस कर पाई एनकाउंटर

इन्हीं टुकड़ियों में से एक टुकड़ी का नेतृत्व DSP एमपी सिंह कर रहे थे। इन सभी टीमों का नेतृत्व SSP रमन कर रहे थे। SSP रमन ने गांव-गांव जाकर लोगों से कहा, “पान सिंह की खबर देने वाले को नौकरी दी जाएगी। लोग लालच में आए और पुलिस को पान सिंह की खबर देने के लिए तैयार हो गए।अक्टूबर, 1981 में पुलिस जानकारी मिली कि पान सिंह 18 लोगों के साथ फलां गांव में है। बिना देरी किए पुलिस अपने 118 जवानों के साथ उस गांव पहुंच जाती है। पान सिंह की गैंग को चारों तरफ से घेर लिया। करीब 9 घंटे की मुठभेड़ के बाद पान सिंह तोमर मारा गया।

पान सिंह तोमर का बेटा भी आर्मी में

पान सिंह तोमर का पूरा परिवार उसके साथ गैंग में शामिल था। लेकिन उसने अपने बेटों को कभी डाकू या कहें बागी नहीं बनने दिया। पान सिंह के दो बेटे हैं। बड़ा बेटा पुलिस की नौकरी करना चाहता था। पान सिंह पुलिस से नफरत करता था, इसलिए उसने बेटे को फौज में जाने को कहा। अपनी पहचान की दम पर उसने अपने बेटे को आर्मी में भेजा भी। बेटा सूबेदार के पद तक पहुंच कर रिटायर हुआ। झांसी के पास एक गांव में आज भी पान सिंह का परिवार रहता है। अभी भी उनके परिवार में सिर्फ फौज में नौकरी करने की परम्परा बनी हुई है।

फिल्म बनी, सुपरहिट रही

पान सिंह की मौत के 29 साल बाद साल 2010 में उनके जीवन पर एक फिल्म बनी। पान सिंह तोमर (Paan Singh Tomar Movies) नाम की ये फिल्म नामी डायरेक्टर तिग्मांशू धूलिया ने डायरेक्ट की थी। अभिनेता इरफान खान ने पान सिंह की भूमिका निभाई थी। इस फिल्म में उसके जीवन से जुड़ी एक-एक घटना को बारीकी से दिखाया गया है।पान सिंह - बॉलीवुड रूपांतरण में इरफ़ान खान द्वारा चित्रित - 1 अक्टूबर, 1981 को गिरोह के 10 अन्य सदस्यों के साथ गोली मार दी गई थी। जब वह मारा गया था तब उसकी उम्र लगभग 48 वर्ष थी।

एक रिपोर्ट के मुताबिक, पान सिंह का पूरी चंबल घाटी में खौफ था।लोगों के लिए वो घाटी का शेर था। यहां तक कि खुद पुलिस वाले भी उनके नाम से कांपते थे। वो जब कंधे पर बंदूक रखकर किसी पर निशाना लगाता था, तब उनका निशाना चूकता नहीं था। पान सिंह के बेटे शिवराम ने भी हमेशा कहा कि उनके पिता डकैत नहीं थे। उन्हें इस शब्द के इस्तेमाल से आपत्ति है। शिवराम के अनुसार उनके पिता पेशेवर अपराधी नहीं थे। वो बागी थे। हालात ने उन्हें मज़बूर किया नहीं तो वो बागी नहीं होते।



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Akshita Pidiha

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