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Ram Mandir Video: मंदिर तो कांग्रेस का चुनावी नारा था! सोशलिस्ट विरोधी थे, हार गए!!

Ram Mandir Trending Video: आजाद भारत का चुनावी इतिहास इस बात का गवाह है कि राम के नाम का कांग्रेस ने सबसे पहले राजनैतिक उपयोग किया था।

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Newstrack Network
Published on: 13 Feb 2024 8:22 PM IST
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Ram Mandir Politics: कांग्रेस पार्टी की स्थिति आज की तारीख़ में कुछ ऐसी ही हो गई है, जैसी एक कहावत है - कि सौ चूहे खाकर के बिल्ली हज की ओर चली। आज जब अयोध्या में राम मंदिर का भव्य निर्माण हो गया है। जनता दर्शन को उमड़ पड़ी है। पूरे देश में राम राम हो रहा है। तब कांग्रेस पार्टी इस इश्यू से किनारा कस रही है। कांग्रेस के बड़े नेता पता नहीं क्यों राम मंदिर में दर्शन करने आने से कतराने लगे हैं। लेकिन आप को यह जान कर आश्चर्य होगा कि राम के सवाल को सियासत में सबसे पहले भारतीय जनता पार्टी ने नहीं, जनसंघ ने नही, कांग्रेस पार्टी ने ही घसीटा था। तभी से राम वोट हथियाने का आधार बने। उसके बाद से चीजें बदलती बिगड़ती चली गईं । अंत में अयोध्या में एक भव्य राम मंदिर का निर्माण सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद संभव हो पाया।

आजाद भारत का चुनावी इतिहास इस बात का गवाह है कि राम के नाम का कांग्रेस ने सबसे पहले राजनैतिक उपयोग किया था। तब संयुक्त प्रांत के प्रधानमंत्री पंडित गोविंद बल्लभ पंत थे। बाद में पंतजी मुख्यमंत्री कहलाए । जब यूपी का नाम उत्तर प्रदेश पड़ा। ये पंत साहब मशहूर कांग्रेस पार्टी के नेता रहे ।जिन्होंने कांग्रेस के ऐतिहासिक प्रस्ताव पेश किए। पंत साहब ने ही नेताजी सुभाष बोस को पार्टी से निष्कासन किया था। पंत साहब ने प्रांतों को काटने, छाँटने और बनाने के काम को अंजाम दिया था।

राम जन्मभूमि का मसला सर्वप्रथम यूपी विधान सभा के उपचुनाव में जुलाई, 1948 में आया। तब सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी ने इस इश्यू को उठाया। उपचुनावों की नौबत इसलिए आन पड़ी थी क्योंकि उस समय समाजवादी के शलाका पुरुष आचार्य नरेंद्र देव ने इस्तीफ़ा दे दिया था आचार्य नरेंद्र देव कांग्रेस-सोशलिस्ट पार्टी के चुनाव चिन्ह पर विजई हुए थे। उनके साथ बारह अन्य विधायक भी थे। उन सब ने भी इस्तीफ़ा दिया था। आचार्य नरेंद्र देव का सैद्धांतिक कदम था कि सोशलिस्ट पार्टी अब कांग्रेस से अलग हो गई है, अतः पार्टी विधायकों को फिर से चुनाव लड़कर जनादेश पाना चाहिए। उस दौर में आज की तरह के दल बदलू न तो नेता हुआ करते थे, न ही दलबदलू लोगों को जनता प्रश्रय देती थी।

राजनैतिक दल भी सिद्धांत और नैतिकता का पालन करने से दूर नहीं हटते थे। अतः आचार्य नरेंद्र देव और उनके बारह सोशलिस्टों ने नामांकन किया। पंडित गोविंद बल्लभ पंत जो उस समय सोशलिस्टों के परम शत्रु थे, वे जवाहर लाल नेहरू के परम मित्रों में भी शुमार थे। जब पंडित पंत ने नरेंद्र देव के विरुद्ध धार्मिक प्रत्याशी को चुना। तब जवाहर लाल नेहरू शांत रहे। सब जानते थे कि सोशलिस्ट लोग सेक्युलर भारत में मजहब और सियासत में घालमेल के खिलाफ थे। नया संविधान बन रहा था। पाकिस्तान वाला जहर व्याप्त था। इस्लामिक कट्टरता मरी नहीं थी। जिन्ना का भूत चारों ओर मंडरा रहा था।

फिर भी नेहरू-कांग्रेस ने एक मराठी, पुणे के ब्राह्मण, भूदानी संत बाबा राघवदास को टिकट दिया। पार्टी का चुनावी नारा था कि बाबा राघव दास यानी कांग्रेस पार्टी के उम्मीदवार ही बाबरी मस्जिद को मुक्त करा पायेंगे। कांग्रेस का चुनाव प्रचार भी बड़ा विलक्षण था। कांग्रेस के लोग घर घर जाते थे। हाथ में गंगा जल डालते थे, तुलसी का पत्ता डालते थे, उसी के साथ वे लोगों से यह संकल्प लेते थे कि वे कांग्रेस पार्टी को वोट देंगे, वह भी महज़ इसलिए क्योंकि कांग्रेस पार्टी का उम्मीदवार ही राम जन्म भूमिका निर्माण करा पायेगा।

कांग्रेस का चुनाव निशान था-दो बैलों की जोड़ी। कांग्रेस लोगों में यह फैला रही थी कि अयोध्या जैसे शहर में जहां भगवान राम का जन्म हुआ हो, वहाँ नास्तिक नरेंद्र देव को क्यों जीतना चाहिए ।

उन्हीं दिनों एक प्रेस वार्ता में सोशलिस्ट नरेंद्र देव से एक प्रायोजित प्रश्न पूछवाया गया : “प्रश्न था- आप क्या राम को मानते हैं ?” सरल सा जवाब आचार्य जी ने दिया : “उन्होंने कहा सोशलिस्ट होने के नाते में भौतिकवादी हूं।” बस बात का बतंगड बना डाला गया। कहा गया नरेंद्र देव को वोट देना, बाबरी मस्जिद की पैरोकारी होगी। कांग्रेसी बाबा राघव दास जीत गए। हालांकि बाबा राघव दास बहुत बड़े गांधीवादी थे।

तभी आचार्य नरेंद्र देव ने कहा : “जनतंत्र की सफलता के लिए विरोधी दल का होना जरूरी है। ऐसा विरोधी दल, जो जनतंत्र के सिद्धांतों में विश्वास रखता हो। जो राज्य को किसी धर्मविशेष से सम्बद्ध न करना चाहता हो, जो सरकार की आलोचना केवल आलोचना की दृष्टि से न करे। बल्कि आलोचना रचना और निर्माण के हित में हो,विध्वंस के हित में नहीं होनी चाहिए ।” आचार्य जी को डर था कि देश में सांप्रदायिकता का जैसा बोलबाला है, जिस तरह से देशवासी जनतंत्र के अभ्यस्त नहीं हैं। ऐसे में रचनात्मक विरोध ना हो तो सत्ताधारी दल में तानाशाही पनप सकती है। नरेंद्र देव चाहते थे कि सत्ता धारी दल में तानाशाही न पनपे।

तभी तो उन्होंने नतीजे आने के बाद कहा कि हम भी चाहते तो एक तरफ़ से उठ कर के दूसरी तरफ़ बैठ सकते थे। लेकिन ये हमारा लक्ष्य नहीं है। हम ऐसी सियासत पसंद नहीं करते हैं। हमने ऐसा करना उचित नहीं समझा। हो सकता है इस बड़े भव्य भवन में एक छोटी सी कुटी निर्माण करने का अवसर हमें भी कभी मिले। लेकिन चाहे यह संकल्प पूरा हो या नहीं, हम अपने सिद्धांत से विचलित नहीं होंगे।

इस पूरे प्रकरण को सम्यक और तार्किक बनाने के लिए समाजवादी चिंतक डॉ. राममनोहर लोहिया के विचार राम पर उल्लिखित हो जाने चाहिए- राम चुनावी अथवा उपचुनावी मुद्दा नहीं थे। उनके मर्यादा पुरुषोत्तम बड़े इष्ट रहे। भारत को एक सूत्र में पिरोने का श्रेय डॉ. राममनोहर लोहिया ने राम को दिया। उन्होंने रामेश्वरम से अयोध्या को जोड़ा। नरेंद्र मोदी ने भी उसी को दोहराया। पहले रामेश्वरम गए । फिर अयोध्या आये। राम पहले अयोध्या थे। अयोध्या से रामेश्वरम गये थे।

आखिरकार इतिहास ने न्याय कर ही दिया। बाबर के बर्बर सेनापति मीर बाकी ने मंदिर तोड़कर के मस्जिद तामीर कराया था। कार सेवकों ने न्याय हासिल कर ही लिया। आज बाबा राघव दास होते तो बहुत हर्षित होते।



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Admin 2

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