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Afganistan Video: घरों में सिमटती महिलाओं की दुनिया, देखें Y-Factor Yogesh Mishra के साथ...

अफगानिस्तान बहुत लंबे समय तक प्रतिस्पर्धी विदेशी ताकतों का केंद्र रहा है। 1839 से 1919 के बीच ब्रिटेन ने यहां तीन युद्ध लड़े...

Yogesh Mishra
Written By Yogesh MishraPublished By Praveen Singh
Published on: 31 Aug 2021 7:19 PM IST
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Afganistan Video: 20 साल तक लड़ने के बाद अमेरिका की सेनाएं (American Soldiers) इस्लामिक रिपब्लिकन ऑफ अफगानिस्तान से रुखसत हो गई। अफगानिस्तान रूपी दलदल में बरसों तक असफल युद्ध लड़ने वाला अमेरिका ही अकेला देश नहीं है। इससे पहले सिकंदर, सोवियत संघ और ब्रिटिश एम्पायर भी यहां असफल युद्ध लड़कर रुखसत हो चुके हैं। मध्य और दक्षिण एशिया में अफगानिस्तान की ऐसी सामरिक पोजीशन है , जो हमलावरों को हमेशा से ललचाती रही है । लेकिन यह देश ऐसे लोगों का है जो अपनी एक —एक इंच जमीन को बचाने के लिए कुछ भी करने को तैयार रहते हैं।

अफगानिस्तान बहुत लंबे समय तक प्रतिस्पर्धी विदेशी ताकतों का केंद्र रहा है। 1839 से 1919 के बीच ब्रिटेन ने यहां तीन युद्ध लड़े ।पहली दो लड़ाइयों में ब्रिटेन का मकसद इस क्षेत्र में रूस के प्रभाव को रोकना था। तीसरा युद्ध तुर्की के ओटोमन एम्पायर के खिलाफ लड़ा गया।

रूस ने अमेरिका से प्रतिस्पर्धा के चलते यहां 1979 से 1988 के बीच कब्जा जमाये रखा। उस वक्त सीआईए ने रूस को बेदखल करने के उद्देश्य से अफगान मुजाहिदीन को हर तरह की मदद की। मतलब यह कि जब तक रूस यहां रहा उसे मुजाहिदीनों से जूझते रहना पड़ा।जब अमेरिका को अफगानिस्तान में तालिबान से लड़ाई लड़नी पड़ी तो उसने और उसके नाटो सहयोगियों ने ईरान पर तालिबान की मदद का आरोप लगाया।

अफगानिस्तान में हर कबीला और उसका इलाका अपने आप में राष्ट्र है। इन कबीलों के बीच सदियों से रंजिशें चली आ रही हैं । लेकिन बाहरी लोगों से लड़ने में ये एकजुट हो जाते हैं। ब्रिटेन, अमेरिका, सोवियत संघ सबको ढेरों दुश्वारियों और अचम्भों का सामना करना पड़ा है। इसकी वजह अफगानिस्तान की भौगोलिक संरचना और यहां के कबीलों का नेटवर्क है। यहाँ ऊंचे पहाड़, पठार और जबरदस्त ऊंचाइयों पर स्थित रेगिस्तान हैं। किसी भी देश की सेना के लिए यहाँ को समझना बेहद मुश्किल रहा है। यहाँ पहाड़ों,गुफाओं, वादियों का ऐसा जाल है जहां किसी को ढूंढना या टारगेट करना टेढ़ी खीर है। भौगोलिक स्थिति ऐसी है कि सैन्य उपकरण और सैनिक दोनों का ही मूवमेंट बहुत मुश्किल होता है।

अफगानिस्तान में 14 मान्यता प्राप्त कबीले या जातीय ग्रुप हैं। अफगान जनजातियां, जिनमें पख्तून सबसे प्रमुख हैं, यह इतने आजाद पसंद हैं कि उनको अफगानिस्तान एक राष्ट्र के रूप में भी स्वीकार्य नहीं है। उनको बस अपने कबीलों से मतलब है। उनकी निगाह में अफगान प्रेसिडेंट काबुल के मेयर से ज्यादा कुछ नहीं होता है। कबीलों का जो सिस्टम सैकड़ों साल से चला आ रहा है उसे बदलने में सिकंदर भी फेल हो गया था। सिकन्दर और उसके बाद यहां रह गए उसके जनरलों ने यहां एक दशक तक खूनी लड़ाइयां लड़ीं। पर असफल रहे।

अफगानिस्तान में अमेरिका की अगुवाई में नाटो के हस्तक्षेप के बाद 80 हजार से ज्यादा तालिबान मुजाहिदीन मारे जा चुके हैं । लेकिन वे न तो खत्म हुए और न कमजोर पड़े। दरअसल पख्तूनों को सरेंडर या समझौते का कॉन्सेप्ट ही समझ नहीं आता है। उनको सिर्फ लड़ना, मरना या मारना ही आता है। उनके कबीलों के आठ - दस साल के बच्चे आंख पर पट्टी बांध कर एके—47 को पूरा खोल कर दोबारा असेंबल कर सकते हैं।

अफ़ग़ानिस्तान का सबसे बुरा वक्त 44 साल पहले शुरू हुआ था । जब सोवियत संघ के समर्थन से अफगानी कम्युनिस्टों ने तख्ता पलट कर सत्ता पर कब्जा कर लिया था। तभी से अफगानिस्तान में गृह युद्ध चला आ रहा है। जिसके कारणों में जमीन, इज्जत, अफीम, भ्रष्टाचार आदि शामिल हैं। तालिबान इन्हीं कारणों को खत्म करने के चलते अजेय और अभेद्य बना हुआ है।

तालिबान या तालेबान एक सुन्नी इस्लामिक आधारवादी आन्दोलन है । जिसकी शुरूआत 1994 में दक्षिणी अफगानिस्तान में हुई थी। तालिबान पश्तो भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ होता है ज्ञानार्थी (छात्र)।इस्लामिक कट्टरपंथ के अनुयायी तालिबों (छात्रों) का राजनीतिक आंदोलन ही तालिबान है। 1996 से लेकर 2001 तक अफगानिस्तान में तालिबानी शासन के दौरान मुल्ला उमर देश का सर्वोच्च धार्मिक नेता था। उसने खुद को हेड ऑफ सुप्रीम काउंसिल घोषित कर रखा था।

तालिबान को सिर्फ एक उग्रवादी या चरमपंथी ग्रुप बतलाना सही नहीं है। ये इस्लाम की व्याख्या बिल्कुल अपने तरीके से करने के लिए प्रतिबद्ध है। वहाबियों की तरह इस्लाम की वे बहुत सख्त तरीके से व्याख्या करते हैं। वे इसमें तेजी से बदलते सामाजिक सिस्टम या फिर उसकी सच्चाई को स्वीकार नहीं करना चाहते।

तालिबानी सख्त सजा को सपोर्ट करते हैं। जैसे दोषी हत्यारों या महिलाओं के साथ जुर्म करने वालों की सार्वजनिक फांसी। चोरी करते पाए जाने पर शरीर छलनी कर देना। पुरुषों को दाढ़ी बढ़ाकर ही रखनी है। महिलाओं को बुर्के से पूरा ढका होना चाहिए। अफगानिस्तान में प्रचलित 'बच्चा बाज़ी' पर प्रतिबंध लगाना इसमें शामिल हैं। इसके अलावा अफीम की खेती पर भी तालिबान ने रोक लगा दी थी।

अफ़गानिस्तान के कंधार प्रान्त के ख़ाकरेज़ जिले में मौलवी ग़ुलाम नबी अख़ूंद का बेटा ओमर था। 70 के दशक में गांव के मदरसे से निकलकर वह आगे की तालीम के लिए कंधार पहुंचा। यहां उसकी दीनी तालीम के ही दौरान 1979 में एक बड़ी घटना हुई। इस बरस सोवियत संघ ने अफ़गानिस्तान पर हमला कर दिया। सोवियत सेना से लड़ने के लिए अफ़गानिस्तान में मुजाहिदीनों की एक फ़ौज खड़ी हो गई जिसमें अलग-अलग समूह थे। ओमर ने भी सोवियत के खिलाफ़ चल रही जंग में शिरक़त की। वह युद्ध में तीन बार जख़्मी हुआ। उसकी एक आंख चली गई।

तजाकिस्तान की सीमा से लगे शीर खान बांदर इलाक़े पर तालिबानी क़ब्ज़े के बाद जारी फ़रमान में कहा गया है कि पुरुष दाढ़ी ज़रूर रखें। स्मोकिंग पूरी तरह प्रतिबंधित है। कोई औरत घर से अकेले बाहर नहीं निकलेगी। तालिबान का एक कथित आदेश सोशल मीडिया पर काफी वायरल हुआ है। इसमें ग्रामीणों को हुक्म दिया गया है कि वे अपनी लड़कियों और विधवा महिलाओं की शादी तालिबान लड़ाकों से कर दें। हालाँकि तालिबान के प्रवक्ता ज़बीहउल्लाह मुजाहिद ने कहा है कि फर्जी कागजों के जरिये अफवाहें फैलाई जा रही हैं।

तालिबान कमांडरों ने यह भी कहा कि किसी व्यक्ति, खासकर युवाओं को लाल या हरे रंग का रंग का कपड़ा पहनने की इजाजत नहीं है। बता दें कि ये रंग अफगानी झंडे में हैं। तालिबानी अफगानिस्तान से फिर पश्चिमी सीमावर्ती भारत के सामने खतरा नजर आ रहा है। भारत ने इस इस्लामी क्षेत्र में ग्यारह हजार करोड़ डालर का निवेश कर रखा है। उसे अब ये तालिबानी हथिया लेंगे। इनमें हजार करोड़ डालर की लागत से निर्मित भव्य संसद भवन भी है। इसका लोकार्पण नरेन्द्र मोदी ने अटल बिहारी वाजपेयी की जयंती पर 25 दिसंबर, 2015 को किया था। इसके अध्यक्ष जनाब मीर रहमान रहमानी का निर्वाचन क्षेत्र बाग्रामी अभी मुक्त है। यहीं वायुसेना स्थल पर अभी भी अमेरिकी सैनिक टिके हैं। यहीं से भारतीय नागरिक भी अफगानिस्तान से बाहर निकल रहे है। मगर यह सब एक पखवाड़े तक ही होगा। अमेरिकी सेना क्रमश: अफगानिस्तान से निकल रही है। तब यह स्थल फिर तालिबानी हाथों में चला जाएगा। ऐसे में भारत के सामने वैसे ही खतरे पैदा हो गए हैं, जैसे कि पहले के तालिबान नियंत्रित अफगानिस्तान के दौरान थे।

अमेरिकी सेना की वापसी के बाद चीन अफगानिस्तान पर करीब से नजर रखे हुए हैं। अमेरिका का स्थान राष्ट्रपति शी जिनपिंग लेना चाहेंगे क्योंकि अफगानिस्तान में खनिज पदार्थ, खासकर तेल तथा हीरे आदि का विशाल भंडार है। यह रणनीतिक के साथ-साथ आर्थिक रूप से भी चीन के एजेंडा में मुख्य रूप से शामिल है।

चीन अमेरिका के पलायन से हर्षित है और रिक्त स्थान को हथियाना चाहेगा। मगर वह भी इन कट्टर इस्लामिस्टों से आक्रान्त है। उसने अपने तुर्की मुसलमानों के इलाके उइगर (शिनजियांग प्रांत) में डेढ़ लाख सुन्नियों को कैद में रखा है। पुनर्शिक्षा के नाम पर उन्हें कम्युनिस्ट बना रहा है। चीन को डर है कि तालिबान के लौटने पर उइगर इलाके के मुस्लिम कहीं उसके खिलाफ बगावत का झंडा न थाम ले। हालांकि पाकिस्तान के आग्रह पर इन अफगान तालिबानों ने कम्युनिस्ट चीन के शासकों को आश्वस्त किया है कि वे इन उइगर मुसलमानों की मदद कतई नहीं करेंगे। फिर भी चीन थोड़ा सतर्क है।

इससे पाकिस्तान भी प्रभावित हुए बगैर नहीं रहेगा। पाकिस्तान के पेशावर नगर और निकटस्थ सिंध को तात्कालिक तौर पर खतरा है। कराची एशिया का सबसे बड़ा आतंकवादी केन्द्र पहले ही बन चुका है। अब तालिबान के अफगानिस्तान पर कब्जे के बाद कराची पर आतंकवादियों का साया पहले से भी और बढ़ जाएगा।

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