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Bhim Rao Ambedkar History: मजबूरी नहीं जरूरी हैं आंबेडकर, देखें Y-Factor...
Bhim Rao Ambedkar History: संविधान समिति में मेरा कार्य बहुत महान है, यह मैं नहीं कहूंगा। क्योंकि संविधान बनाते समय, बहुत से देशों के अलग-अलग प्रकार के संविधानों का अध्ययन करके, उनमें से अपने देश के अनुकूल धाराएं एवं कलमें चुन कर एकत्रित करना, बस यही हमारा काम था और यही हमने किया। सबसे महत्वपूर्ण काम जो हम कर सके,वह यह कि भारत की राजभाषा निश्चित कर दी गयी। इसी के साथ यदि एक लिपि मान्य करवाने में हम सफल हो सकते तो और अधिक महत्त्व की बात होती। परन्तु गड़बड़ी में यह बात रह गयी, पूरी नहीं हो सकी। अपने देश में सैकड़ों भाषाएं बोली जाती हैं। ऐसे विस्तृत देश की एक राष्ट्र भाषा हम कायम कर पाए, यह वास्तव में महत्वपूर्ण है। अलग-अलग प्रांतांे में उस प्रान्त की भाषा आरूढ़ रहेगी, यह अभी कहा जा रहा है।
परन्तु राष्ट्र भाषा एक निश्चित हो जाने पर हिन्द के प्रत्येक नागरिक को उस भाषा में बोलना सीखना आवश्यक होगा और इसके जरिये हमारा अपने आप संगठन होता जायेगा। राष्ट्र को शक्तिशाली बनाने के लिए ऐसे संगठन की कितनी आवश्यकता है, यह मुझे अलग से बताने की जरूरत नहीं है...
( बाबा साहेब आंबेडकर का भाषण)
जो लोग डॉ. भीमराव आंबेडकर को संविधान निर्माता बताते हैं। उनके लिए आंबेडकर का यह भाषण निःसंदेह आंख खोलने वाला होना चाहिए। डाॅ. आंबेडकर संविधान लिखने वाले ढेर सारे लोगों में थे। संविधान सभा में भेजे गये शुरुआती 296 सदस्यों में आंबेडकर नहीं थे। सदस्य बनाने के लिए बॉम्बे के अनुसूचित जाति संघ का भी आंबेडकर समर्थन नहीं ले पाये। बाद में बंगाल के दलित नेता योगेंद्र नाथ मंडल ने मुस्लिम लीग की मदद से उन्हें संविधान सभा में पहुंचाया। यही मंडल बाद में पाकिस्तान के कानून मंत्री बने। पर 1950 में वे पाकिस्तान छोड़ कर भारत आ गये। जिन जिलों के वोटो से डॉ. आंबेडकर संविधान सभा में पहुंचे थे। वे हिन्दू बहुल थे, हालांकि बाद में वे पकिस्तान में चले गये।
नतीजतन, आंबेडकर पाकिस्तान संविधान सभा के सदस्य बन गये। भारतीय संविधान सभा की उनकी सदस्यता रद्द कर दी गयी। जब कहीं से उनके लिए संविधान सभा में जगह नहीं बची तो डॉ. आंबेडकर ने धमकी दी कि वह संविधान स्वीकार नहीं करेंगे। इसे राजनीतिक मुद्दा बनाएंगे।
इसके बाद कांग्रेस ने उन्हें संविधान सभा में जगह देने का फैसला किया। बॉम्बे के एक सदस्य एमआर जयकर ने संविधान सभा में अपने पद से इस्तीफा दे दिया। महात्मा गांधी के निर्देश पर कांग्रेस ने यह फैसला किया कि एमआर जयकर की खाली जगह आंबेडकर भरेंगे। वे ड्राफ्ट कमेटी के अध्यक्ष भी बने। लेकिन यह कहना भारत के निर्माण में उनके योगदान को नकारने की कोशिश न समझी जाय। डॉ. आंबेडकर ने इससे आगे और इससे महत्वपूर्ण देश के लिए कई काम किये हैं। आज का रिजर्व बैंक, थोड़ा और आगे बढ़ कर कह सकते हैं कि बैंकिंग डॉ. आंबेडकर की देन है।
योजना आयोग और बिजली के ट्रांसमिशन का ग्रिड उनकी मौलिक संरचना हैं। संविधान लिखे जाने के दौरान डॉ. आंबेडकर का काम बहसों और आपत्तियों का जवाब देना भी था। राष्ट्र की परिभाषा आंबेडकर ने फ्रांस के दार्शनिक अन्स्र्ट रेनन से ली थी। क्योंकि रेनन यह मानते थे कि राष्ट्र होने के लिए एक नस्ल, जाति, भाषा, धर्म, भूगोल या साझा स्वार्थ किसी जन समुदाय को राष्ट्र बना सकते हैं। डाॅ. आंबेडकर भारत को राष्ट्र की जगह 'नेशन इन मेकिंग', यानि एक बनता हुआ राष्ट्र कहते थे। आंबेडकर के लिए आरक्षण वंचित जाति समूहों के हर सदस्य को नौकरी देने के लिए नहीं है।
इसका मकसद वंचित जातियों को यह महसूस कराना कि देश के मौजूदा अवसरों में उनका भी हिस्सा है। देश चलाने में उनका भी योगदान है। तभी तो उन्होंने आरक्षण के साथ यह शर्त लगायी कि दलित यदि दूसरा धर्म अपनाते हैं तो आरक्षण का विशेषाधिकार उनसे ले लिया जायेगा। 1932 में पूना पैक्ट के तहत आंबेडकर दलितों के लिए सुरक्षित सीट चाहते थे, जिसमें सिर्फ दलित ही वोट करें। महात्मा गांधी उनकी इस मांग के खिलाफ अनशन पर बैठ गये। डॉ. आंबेडकर ने गांधी जी के अनशन को कोई तवज्जों नहीं दी। फिर महामना मदन मोहन मालवीय को हस्तक्षेप करना पड़ा।
इसके बाद सुरक्षित सीटों पर अगड़ों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों को भी मतदान के अवसर सुलभ हुए। आंबेडकर साइमन कमीशन के पहले सदस्य थे। इसके चलते गांधी उनसे नाराज रहा करतेे थे। इस्लाम आधारित अलग राष्ट्र और हिंदूराष्ट्र दोनों की मांग जुड़वा भाई की तरह पैदा हुई थी। दोनों ने एक दूसरे को सम्बल प्रदान किया था। हिन्दू बहुमत के शासन के डर की जमीन पर पाकिस्तान की मांग फली फूली। डाॅ. आंबेडकर ने 1940 में धर्म आधारित राष्ट्र पाकिस्तान की मांग पर आगाह करते हुए कहा था- ''अगर हिन्दू राष्ट्र बन जाता है तो बेशक इस देश के लिए भारी खतरा उत्पन्न हो जाएगा।
हिन्दू कुछ भी कहें, पर हिंदुत्व स्वतंत्रता, बराबरी और भाईचारे के लिए एक खतरा है। इस आधार पर लोकतंत्र के लिए अनुपयुक्त है, हिन्दू राष्ट्र को हर कीमत पर रोका जाना चाहिए।'' आंबेडकर द्वारा हिंदू राष्ट्र के विरोध का कारण केवल हिन्दुओं का मुसलमानों के प्रति नफरत तक सीमित नहीं था। वे हिन्दू राष्ट्र को हिन्दुओं और महिलाओं के खिलाफ मानते थे। उन्होंने हिन्दू कोड बिल पेश किया था। वे जातिवादी असमानता को हिंदुत्व का प्राणतत्व मानते थे। यही बात उन्हें इस नतीजे पर पहुंचाती थी कि हिंदुत्व और लोकतंत्र दो विरोधी छोर पर खड़े हैं। बीबीसी ने अपनी साइट पर लिखा है कि- ''आंबेडकर कभी सिख बनाना चाहते थे पर सिख नेताओं से मिलने के बाद इरादा बदल दिया।'' अभिमन्यु कुमार सहा ने बीबीसी वल्र्ड सर्विस के लिए 6 दिसंबर, 2017 को लिखा- ''दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रो. शमसुल इस्लाम इस बात से इत्तेफाक रखते हैं कि आंबेडकर ने धर्म परिवर्तन के लिए इस्लाम पर भी विचार किया था।
पर इसे अपनाया नहीं क्योंकि वे मानते थे की इसमें भी उतना ही जातिवाद है, जितना हिन्दू धर्म में है। आंबेडकर मानते थे कि मुसलमानों में भी जो हैसियत वाला वर्ग है, वह हिन्दू धर्म के ब्राह्मणों की तरह ही सोचता है। आंबेडकर इस्लाम में महिलाओं की स्थिति को लेकर चिंतित थे। वह बहु विवाह प्रथा के खिलाफ थे। आंबेडकर को लगता था कि इस्लाम में कुरीतियों को दूर करने की आत्मशक्ति नहीं दिख रही है।'' इस्लाम न अपनाने का एक कारण यह भी था कि आजादी के बाद पकिस्तान में बड़े पैमाने पर दलितों से धर्म परिवर्तन कराया गया। जबकि आंबेडकर उन्हें इस्लाम न अपनाने की सलाह दे रहे थे। क्योंकि उनका मानना था कि वहां भी उन्हें बराबरी का हक नहीं मिल पायेगा।
आंबेडकर ने राम और कृष्ण को अवतार मानाने से इंकार कर दिया था। उन्होंने हिन्दू ग्रंथों का हवाला देते हुए कहा था कि प्राचीन काल में ब्राह्मण गोमांस खाते थे। उनके मुताबिक हिन्दू शास्त्रों में दलितों को शोषण का औजार बताया गया है। गांधी चाहते थे कि वर्ण व्यवस्था बनी रहे। लेकिन अस्पृश्यता खत्म हो जाय। जबकि आंबेडकर का मानना था कि वर्ण व्यवस्था का खात्मा होना चाहिए। क्योंकि वर्णव्यवस्था के मूल में शोषण और दमन है। पहले लोकसभा के लिए आंबेडकर मुंबई उत्तर से चुनाव लड़े और हार गये।
उन्हें हराने के लिए कांग्रेस ने उनके सहयोगी एनएस काजोलकर को टिकट दिया जो पंद्रह हजार वोटांे से जीते। 1954 में कांग्रेस ने आंबेडकर को बड़ोदरा लोकसभा उपचुनाव में फिर हराया। संयुक्त राष्ट्र संघ ने आंबेडकर की जयंती मनाकर उन्हें गौरव प्रदान किया। मनुस्मृति जलाने के उनके अभियान की कमान जिसके हाथ थी वह चितपावन ब्राह्मण थे। उनकी दूसरी पत्नी भी ब्राह्मण परिवार से थी। आंबेडकर सिर्फ राष्ट्रवादी नहीं थे, वे पहले चीजों को अपने तर्क की कसौटी पर कसते थे फिर स्वीकार करते थे। उन्हें शुद्ध न्यायवादी भी कह सकते हैं। जब हम आंबेडकर को केवल संविधान निर्माण से जोड़ कर व्याख्यायित करते हैं तब हम आंबेडकर को मजबूरी बता कर अंगीकार करने की स्थिति पैदा करते हैं। जबकि वर्तमान भारत में उनका योगदान जरूरी स्वीकृति है। आंबेडकरवादियों को भी मजबूरी और जरूरी के इस भेद को पटाने में लग जाना चाहिए। क्योंकि एक दौर था कि डॉ. आंबेडकर हमारे महापुरूषों की श्रंृखला में एकदम पीछे छूट गए।
किसी आंबेडकरवादी के लिए यह सुनना असहनीय हो सकता है कि कांग्रेस के नेता जगजीवन राम दलित चेतना के प्रतीक बनते जा रहे थे। विश्वनाथ प्रताप सिंह ने हमारे राष्ट्र निर्माताओं की श्रंृखला में पीछे छूट गये आंबेडकर को अगली पंक्ति में लाकर खड़ा किया। कांशीराम ने जब अपना राजनीतिक दल बहुजन समाज पार्टी बनाया और उन्हें जब दलित 'आइकन' की जरूरत पड़ी तो उनके सामने ज्योतिबा फुले, सावित्री बाई फुले, नारायण गुरु, छत्रपति साहूजी महाराज, ईवी पेरियार और रामासामी नायकर थे। इनमें किसी का भी रिश्ता उत्तर भारत से नहीं था।
कांशीराम अपनी पार्टी को उत्तर भारत में जमा रहे थे। स्वतंत्रता आंदोलन के दौर में ही डॉ. आंबेडकर उत्तर और दक्षिण की सीमायें तोड़ चुके थे। इसलिए कांशीराम ने डॉ. आंबेडकर को एक बार फिर दलित 'आइकन' के रूप में स्थापित करने में अपनी संजीवनी लगा दी। हिंदी पट्टी में दलित चेतना के बड़े प्रतीक पुरुष कांशीराम भी हैं। उन्होंने दलितों को शक्ति प्रदान किया। उनके उत्तराधिकारी के तौर पर मायावती को कांशीराम के दलित समाज को आर्थिक शक्ति देनी थी, जिसे वह नहीं दे पायीं। हालांकि कांशीराम सांगठनिक और सामाजिक शक्ति दे गये थे।
वैश्वीकरण के बाद आर्थिक शक्ति मूल्यांकन का सबसे मजबूत आधार है। यहां आर्थिक शक्ति वर्ग बनाती है, जबकि जातियां जन्म से होती हैं। जाति और वर्ग समानांतर चलते हैं। मायावती के ही समकालीन और कांशीराम से शक्ति अर्जित कर राजनीति करने वाले मुलायम सिंह यादव ने अपनी जाति को आर्थिक शक्ति प्रदान की।
मायावती ने उनसे कोई सबक नहीं लिया। कांशीराम से भी उन्होंने कोई सबक नहीं लिया। ऐसा इसलिए कहा जा सकता है क्योंकि उनके दैनिक कार्यक्रमों में दलित समूहों से मिलने का कोई कार्यक्रम नहीं होता। भले ही भाजपा और कांग्रेस के नेता प्रदर्शन के और पर ही सही, दलितों के घर भोजन करते हो पर मायावती ऐसा भी नहीं करती हैं। आंबेडकर मजबूरी नहीं जरूरी हैं। इसलिए क्योंकि वह यह सब करते थे। वह बुद्धि और जमीन दोनों जगह अपनी जमात की लड़ाई लड़ते थे। जो ऐसा नहीं करेगा वह सिर्फ मजबूरी होकर रह जायेगा।