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Coronavirus Y- Factor: नियति के हैं खेल निराले, देखिए क्या से क्या कर डाले...

Y - Factor : नियति के हैं खेल निराले, देखिए क्या से क्या कर डाले...

Yogesh Mishra
Written By Yogesh Mishra
Published on: 27 April 2021 9:47 AM GMT (Updated on: 6 Aug 2021 1:03 PM GMT)
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Coronavirus Y- Factor: अलग अलग भाषायी काव्यरचनाओं के दो मिलते—जुलते प्रतिपाद्य का आज यहां हम जिक्र करते है। इनमें संभावनाओं, संयोग और संजीदगी का पुट ढेर में है। अत: मन को नीक लगता है। कल्पना को झकझोरता है। हृतंत्री को निनांदित भी करता है। संदर्भ है कवि टामस ग्रे की ''एलेजी'' (शोक—गीत) । जिसकी 1752 में रचित एलेजी की बरसी 16 फरवरी को पड़ती है। इत्तिफाक से बंसत पंचमी पर ही। सृजन तथा नवसंचार का माहौल भी है। जयशंकर प्रसाद की कालजयी कृति कामायनी से इसका सादृश्य होना अनायास ही हैं।

कामायनी में प्रलय के बाद का विध्वंसक नजारा है। शिला की छांव तले बैठा मनु सोचता है। इधर ''एलेजी'' में गांव (ब्रिटेन) के चर्च परिसर में दफन हुये लोगों पर कवि कल्पना करता है। ये लोग कैसे रहे थे? क्या हो सकते थे? क्यों हो नहीं पाये? बस इसी बिन्दु से कल्पनायें, अवधारणायें और सोच के नये आयाम मस्तिष्क खोजता रहता है, कुछ पाता है, कई लांघता भी है। किन्तु तलाश जारी रखता हैं।

मसलन, टामस ग्रे चर्च में फैले कब्रों तले दफन लोगों के विषय में ख्याल करते हैं। अपने शब्दों में पेश करते हैं कि इनमें न जाने कितने सुगंधित पुष्प जैसे रहे होंगे जिनकी व्यक्तित्व की ख़ुशबू इसी बालुई धरा में गुम हो गयी होगी। इनमें न जाने कितने लोग हीरा—मोती जैसे रहे होंगे। पर धूलभरे धरातल में ही गुम हो गये, बिना चमके।

फिर कवि याद कर सोचता है उन सागर की गुहाओं में दबे, छिपे अंसख्य रत्नों के बारे में जो बिना प्रगट हुये, बिना दमके, जलतले ही पड़े रह गये। यथा मनुष्य खुद अपनी जीवन में आकांक्षाओं के भार से दबा रहे। इस पर गीतकार नैराश्य व्यक्त करता है कि गांव में पड़े कई रचनाकर्मी अवसर के अभाव में उभर नहीं पाये।

भारत की पृष्टभूमि में कितने उदीयमान कवि अंचलों में ही सीमित, लुप्त होकर रह गये होंगे। टामस ग्रे स्वयं जीते जी ब्रिटेन के महान कवि बनने से चूक गये। हालांकि वह अपनी ''एलेजी'' के लंदन में प्रकाशित होने के बाद, ख्याति की ऊंचाई पर पहुंच गये थे।

तो कवि प्रसाद और रचनाकार टामस ग्रे की पंक्तियों को आज के संदर्भ में तराशे, उनमें नये मायने खोजे। गौर करें जरा। मल्लाह को किराया देने के लिये दो पैसे नहीं थे। वह तरुण तैरकर नदी पार करता था। पाठशाला जाने के लिये खुद मौका ढूंढा। वह भारत का द्वितीय प्रधानमंत्री बन गया।

दलित की दुहिता आईएएस परीक्षा की तैयारी कर रहीं थीं। नसीब चमकी कि लखनऊ में मुख्यमंत्री बनकर वरिष्ठ आईएएस पर ही हुक्म चलातीं थीं। फरगना चीनी तुर्किस्तानका छोटा सा जागीरदार था। उसे उसके चाचाओं ने बेघर कर दिया था। उसने उजबेकी युवक ने लुटेरों और बटमारों को बटोरकर दिल्ली पर हमला किया। जीत गया तो अयोध्या में ढांचा खड़ाकर दिया। उसे तोड़कर मंदिर बनाने में पांच सदियां लग गयीं।

एक अंग्रेज सिपाही ने कोलकाता कब्जियाकर, आज के चेन्नई पर राज किया। एक बार ऊंची इमारत से छलांग लगाकर आत्महत्या का प्रयास किया। भारत का दुर्भाग्य था कि वह बच गया। फिर पूरे आर्यावर्त पर उसने बर्तानी हुकूमत लाद दी। राबर्ट क्लाइव नाम था उसका।

यदि उसके ''गाड'' (ईश्वर) उसे शीघ्र बुला लेते तो भारत में अंग्रेजी पैठती ही नहीं। राष्ट्रभाषा का झमेला ही नहीं होता। एक साहित्यकार थे गाजीपुर के जिनकी रचनायें ''टाइम्स'' प्रकाशन समूह (मुम्बई) से ''सधन्यवाद अस्वीकृत'' होकर लौट आतीं थीं। पत्रकारीय अन्याय की यह इंतिहा थी। जब डा. धर्मवीर भारती की दृष्टि पड़ी तो खूब छपी। तब से विवेकी राय जी के कारण हिन्दी गद्य अमीर हो गया।

मगर ऐसा ही एक वाकया हुआ, जो बड़ा पीड़ादायी था। ''टाइम्स आफ इंडिया'' में संपादकीय पृष्ट के बीच के कालम में उन दिनों दिलचस्प, मगर लघुलेख, प्रकाशित होते थे। एक बार सरदार खुशवंत सिंह का लघुलेख छपा। इसमें एक वाक्य था : ''ट्रेन विलंब से आ रही थी। अत: प्लेटफार्म पर प्रतीक्षा करते, मैंने सिगरेट सुलगाई, धुआं छोड़ता रहा।'' संपादक को विरोध पत्र आया। असली सरदार खुशवंत सिंह का। लिखा था : ''हम सिख सिगरेट नहीं पीते। यह फर्जी लेखक है।''

तफ्तीश पर संपादक को सुघड़ जवाब मिला : '' मेरा यही लेख पांच बार आपके कार्यालय से सधन्यवाद अस्वीकृत होकर लौट आया था। इस बार बस लेखक का नाम तथा शीर्षक बदला और फिर भेज दिया। अब आपकी संपादकीय कोताही जग जाहिर हो गई।'' इसी सिलसिले में एक फिल्मी प्रकरण भी उल्लिखित हो जाये। सोहराब मोदी ने पृथ्वीराज कपूर से एकदा कहा था। '' अगर मुझे हिन्दी डायलाग बोलना और तुम्हारे चेहरे पर भाव और मुद्रा आ जाते तो हम दोनों महानतम एक्टर होते। कैसा सुखद संयोग होता!''

एक और ताजातरीन घटना। तमिलनाडु के गांव में किरमिच की गेंद से नंगे पैर या रबड़ के जूते पहने गांव के छोकरे क्रिकेट खेलते थे। नियति ने तय किया। भारतीय टीम के कुछ खिलाड़ी बीमार पड़ गये। इन छोरों को मौका मिला। महाबली आस्ट्रेलियाई टीम को उन्हीं के घर के मैदान में पछाड़कर वे भारत लौटे। यादगार लम्हें थे।

कल्पना कीजिये। यदि बापू त्रिपुरी अधिवेशन में नेताजी सुभाषचन्द्र बोस को कांग्रेस अध्यक्ष मान लेते और पार्टी नेतृत्व सौंप देते तो अंग्रेज दस वर्ष पहले ही भारत से भाग जाते। मियां मोहम्मद अली जिन्ना का सुलतान बनने का सपना दफन हो जाता। और नेहरु इतिहास में बस फुटनोट बनकर रह जाते। वंशवादिता आज लोकतंत्र पर ग्रहण न बनती। अर्थात छायावादी कवि जयशंकर प्रसाद और टामस ग्रे ने उम्दा तथा दुरुस्त कहा कि नियति ही सर्वशक्तिमान है। वही गति और राह तय करती है। मोड़ को भी मोड़ सकती है।

अन्त में एक और घटना का उल्लेख हो। मुंबई के चौपाटी के बालू पर लेटा एक बेरोजगार युवक अन्यमनस्क भाव में खोया-खोया था। सोच में डूबता उतरा रहा था। अचानक भेलपुरी खाकर फेका गया अखबारी टुकड़ा सागर की लहरों से उपजी हवाई झोंकों से उड़ता हुआ उसके चेहरे पर आ गिरा। वह उसे पलटने लगा। एक हिस्सा पढ़ा। लिखा था: '' आवश्यकता है, एक कम्पनी में उपप्रबंधक की। इन्टर्व्यू हेतु आयें।''

पता और समय दिया था वह बेरोजगार युवक पहुंचा। अच्छा था उसका प्रस्तुतिकरण। चयनित हो गया। कुछ वर्षों बाद बंग्ला, गाड़ी आदि नसीब से मिले। मान लीजिये यदि उस दिन वह अखबारी विज्ञापन का टुकड़ा हवा के झोंके से किसी अन्य दिशा में उड़कर चला जाता तो? यहीं टामस ग्रे का मलाल दिखाता है। जो नहीं बदा है, वह नहीं होता है? आप इसे क्रूरता कह सकते है।

Praveen Singh

Praveen Singh

Journalist & Director - Newstrack.com

Journalist (Director) - Newstrack, I Praveen Singh Director of online Website newstrack.com. My venture of Newstrack India Pvt Ltd.

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