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Suheldev History Y-Factor: युवाओं को प्रेरणा देगी सुहेलदेव की शौर्य गाथा...

Y-Factor: युवाओं को प्रेरणा देगी सुहेलदेव की शौर्य गाथा...

Yogesh Mishra
Written By Yogesh Mishra
Published on: 25 April 2021 12:59 PM IST (Updated on: 6 Aug 2021 6:43 PM IST)
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Suheldev History: भारतीय संस्कृति, साहित्य, धर्म व अध्यात्म में ही नहीं , खेती किसानी के लिए भी वसंत पंचमी का दिन बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है। जो महत्व सैनिकों के लिए अपनेशस्त्रों व विजयदशमी का है।विद्वानों केलिए अपनी पुस्तकों व व्यास पूर्णिमा का है। व्यापारियों के लिए अपने बाँट, तराज़ू , बहीखातों वदीपावली का है। वही महत्व कलाकारों के लिए वसंत पंचमी का है। इसे देवी मां सरस्वती का जन्मदिन माना जाता है।

वसंत पंचमी के दिन ही राजा भोज का जन्म हुआ था।इसी दिन पृथ्वीराज ने शब्द भेदी वाण चलाकरआक्रांता मोहम्मद गोरी को मार गिराया था। बसंत पंचमी के दिन सिखों के दसवें गुरु, गुरू गोविंदसिंह जी का विवाह हुआ था।वसंत पंचमी हमें गुरू राम सिंह कूका की भी याद दिलाती है। उनका जन्म1816 ई. में वसंत पंचमी पर लुधियाना के भैणी गांव में हुआ था। उन्होंने सर्वप्रथम अंग्रेजी शासन का बहिष्कारकर अपनी स्वतंत्र डाक और प्रशासन व्यवस्था चलायी थी। बसंत पंचमी के दिन हीभगवान श्रीराम दंडकारण्य क्षेत्र में पधारे थे।

वसंत पंचमी के ही दिन हिंदी साहित्य की महान विभूति महाप्राण निराला का जन्म हुआ था। इसीवसंत पंचमी के दिन महाराजा सुहेलदेव जी का जन्म 1009 ई. में हुआ था। इसी वसंत पंचमी के दिनही मुस्लिम आक्राताओं की सेना को महाराजा सुहेलदेव ने पराजित भी किया था।

सम्राट सुहेलदेव के पिता का नाम बिहारिमल एवं माता का नाम जयलक्ष्मी था। सुहेलदेव के तीनभाई और एक बहन थी । बिहारिमल के संतानों में सुहेलदेव, रुद्र्मल, बागमल, सहारमल या भूराय्देवतथा पुत्री अंबे देवी थीं। सुहेलदेव महाराज की शिक्षा-दीक्षा योग्य गुरुजनों के बीच संपन्न हुई। अपने पिता बिहारिमल एवंराज्य के योग्य युद्ध कौशल विज्ञों की देखरेख मे सुहेलदेव ने युद्ध कौशल, घुड़सवारी आदि की शिक्षाली। मात्र 18 वर्ष की आयु में सन् 1027 ई. को इनका राज तिलक कर दिया गया।

सुहेलदेव एक ऐसे राजा हुए हैं जिनके बारे में बहुत ही कम जानकारी मिलती हैं। दरअसल, सुहेलदेव नेविदेशी आक्रान्ताओं से लोहा लिया था। महमूद गजनवी के भतीजे को मार गिराया था। इसी वजहसे तत्कालीन इतिहासकारों ने उनके बारे में कुछ नहीं लिखा। अंग्रेजों ने भी सुहेलदेव को उपेक्षितरखा। सुहेलदेव के बारे में जो जानकारी है वह सिर्फ सालार मसूद की एक लाख सैनिकों की सेना को हरानेऔर उसे मार गिराने तक ही सीमित है।

सुहेलदेव किसी भी सूरत में सैयद सालार मसूद को अयोध्या की पावन भूमि में घुसने देना नहीं चाहतेथे।सुहेलदेव ने सालार मसूद के खिलाफ युद्ध में साथी राजाओं और आम जनता से आव्हान किया कीयह एक धर्मयुद्ध है। हर किसी को इस युद्ध की अग्नि में आहूति देनी होगी। हर घर से एक युवा सेना मेंशामिल हुआ। विशाल सेना बनायी गयी। महाभारत के बाद यह दूसरा उदहारण है जब राष्ट्रवादीनायक सुहेलदेव ने राष्ट्र की रक्षा के लिए 21 राजाओं- रायब, रायसायब, अर्जुन, भग्गन, गंग, मकरन, शंकर, वीरबल, अजयपाल, श्रीपाल, हरकरन, हरपाल, हर, नरहर, भाखमर, रजुन्धारी, नरायन, दल्ला, नरसिंह, कल्यान आदि को एकत्र करने में कामयाबी हासिल की। अवध गजेटियर भी इसकी पुष्टिकरता है। सुहेलदेव ही वो राजा थे जिन्होंने भारतीय उपमहाद्वीप में मुस्लिम आक्रमणकारिंयों के विजय अभियान को रोका। जिसके चलते भारत में इस्लामी विजय अभियान करीब एक शताब्दी तक रूका रहा।यही नहीं, हिन्दू गौरव की रक्षा के लिए इन सभी ने महाराजा सुहेलदेव के नेतृत्व में कई युद्ध भी लड़े।

मसूद 11 वर्ष की उम्र में अपने पिता गाज़ी सैयद सालार साहू के साथ भारत पर हमला करने आयाथा। अपने पिता के साथ उसने सिंधु नदी पार करके मुल्तान, दिल्ली, मेरठ और आज के बाराबंकी केसतरिख तक जीत दर्ज की। सैयद सैफ-उद-दीन और मियाँ राजब को बहराइच भेज दिया गया था। बहराइच के स्थानीय राजाऔर अन्य पड़ोसी हिंदू राजाओं ने एक संघ का गठन किया । लेकिन मसूद के पिता सैय्यद सालारसाहू गाजी के नेतृत्व में सेना ने उन्हें हरा दिया। फिर भी उन्होंने उत्पात मचाना जारी रखा। इसलिए मसूदखुद बहराइच में उनकी प्रगति को जाँचने आया। सुहेलदेव के आगमन तक, मसूद ने अपने दुश्मन को हर बार हराया। महाराजा सुहेलदेव के बीच हुए भीषण संग्राम का साक्षी यहां के चितौराझील का तट है।

कई दिनों तक युद्ध होता रहा ।अंत में 10 जून ,1032 चितौरा झील के तट पर ,जिसे उस समयटेढ़ी नदी कहा जाता था ,महाराजा सुहेलदेव से युद्ध करते हुए उनके एक तीर से सैयद सालार मसूदगाजी की मौत हो गई। चितौरा झील का एक पौराणिक महत्व यह भी है कि इस झील के तट पर त्रेता युग के मिथिला नरेशमहाराजा जनक के गुरूअष्टावक्र यहां तपस्या करते थे । यह सर्वविदित है कि मुनि अष्टावक्र काशरीर 8 स्थानों से मुड़ा हुआ था। इसीलिए उनका नाम अष्टावक्र पड़ा। जिस नदी के तट पर उनकाआश्रम था। उस नदी को टेढ़ी नदी कहा जाता था। मसूद बहराइच में जहाँ मारा गया , वहां वह सूर्यदेवता का एक मंदिर नष्ट करना चाहता था।इत्तेफाक से वह उसी मंदिर के पास ही मारा गया। मसूदको बहराइच में दफनाया गया। सन् 1035 में वहाँ उसकी याद में एक दरगाह बनायी गई। कहा जाताहै कि उस जगह पहले हिंदू संत और ऋषि बलार्क का एक आश्रम था। फिरोजशाह तुग़लक़ द्वारा उसे दरगाह में बदल दिया गया।

अप्रैल 1950 में इन संगठनों ने राजा के सम्मान में सालार मसूद के दरगाह में एक मेला की योजना बनाई। दरगाह समिति के सदस्य ख्वाजा खलील अहमद शाह ने सांप्रदायिक तनाव से बचने के लिए जिला प्रशासन को प्रस्तावितमेले पर प्रतिबंध लगाने की अपील की।तदनुसार, धारा 144 (गैरकानूनीअसेंबली) के तहत निषिद्ध आदेश जारी किए गए। स्थानीय हिंदुओं के एक समूह ने आदेश केख़िलाफ़ एक मार्च का आयोजन किया ।उन्हें दंगा भड़काने के आरोप में गिरफ्तार किया गया। उनकीगिरफ्तारी का विरोध करने के लिए हिंदुओं ने एक सप्ताह के लिए स्थानीय बाजारों को बंद कर दिया। गिरफ्तार होने की पेशकश की। कांग्रेसी नेता भी विरोध में शामिल हो गए। लगभग 2000 लोग जेल गए। प्रशासन ने आदेश वापस लिया।

एक दूसरी लड़ाई मसूद के भतीजे हटीला पीर के साथ अशोकनाथ महादेव मंदिर के पास भी हुई थी। जिसमें हटीला पीर मारा गया। अशोकनाथ महादेव मंदिर राजा सुहेलदेव द्वारा बनवाया गया था।जिस पर बाद में हटीला पीर का गुम्बद बनवा दिया गया।

सैयद सालार मसूद गाजी को उसकी डेढ़ लाख इस्लामी सेना के साथ समाप्त करने के बाद महाराजासुहेलदेव ने विजय पर्व मनाया। वहाँ 500 बीघा ज़मीन पर कई चित्रों और मूर्तियों के साथ सुहेलदेवका एक मंदिर बनाया गया था।हिंदू धर्म को मानने वाले अनुयायियों के लिए विभूति नाथ मंदिर औरसोनपथरी जैसे मुख्य मंदिर यहाँ हैं। इस महान विजय के उपलक्ष्य में कई पोखरे भी खुदवाए। वह विशाल विजय स्तंभका भी निर्माण कराना चाहते थे । लेकिन इसे पूरा न कर सके।

महाराजा सुहेलदेव में राष्ट्र भक्ति का जज्बा कूट कूट कर भरा था ! इसलिए राष्ट्र में प्रचलित भारतीयधर्म, समाज, सभ्यता एवं संस्कृति की रक्षा को उन्होंने अपना कर्तव्य माना । राष्ट्र की अस्मिता सेमहाराजा सुहेलदेव ने कभी समझौता नहीं किया। महाराजा सुहेलदेव बेहद धार्मिक प्रवृत्ति के थे। वहभगवान सूर्य के उपासक थे। उनकी वीरता से प्रभावित होकर गोंडा, लखनऊ, बाराबंकी, फैजाबाद, उन्नाव, गोला और लखीमपुर के राजाओं ने राजा सुहेलदेव को अपना महाराजा घोषित कर दिया.।

सुहेलदेव का साम्राज्य उत्तर में नेपाल से लेकर दक्षिण में कौशाम्बी तक तथा पूर्व में वैशाली से लेकरपश्चिम में गढ़वाल तक फैला था।भूराय्चा का सामंत सुहलदेव का छोटा भाई भुराय्देव था। जिसनेअपने नाम पर भूराय्चा दुर्ग इसका नाम रखा। श्री देवकी प्रसाद अपनी पुस्तक राजा सुहेलदेव मेंलिखते है कि भूराय्चा से भरराइच और भरराइच से बहराइच बन गया ! प्रो॰ के.एल. श्रीवास्तव केग्रन्थ बहराइच जनपद का खोजपूर्ण इतिहास के पृष्ट 61-62 पर अंकित है - "इस जिले की स्थानीय रात रिवाजों में महाराजा सुहेलदेव पाए जाते है।"उत्तर प्रदेश में अवध व तराई क्षेत्र से लेकर पूर्वांचलतक मिथकों-किंवदंतियों में उनकी वीरता के कई किस्से हैं। कहानियों के अनुसार वह सुहलदेव, सकर्देव, सुहिर्दाध्वाज राय, सुहृद देव, सुह्रिदिल, सुसज, शहर्देव, सहर्देव, सुहाह्ल्देव और सुहिल्देवजैसे कई नामों से जाने जाते है।

इतिहासकार कशी प्रसाद जयसवाल ने भी अपनी पुस्तक "अंधकार युगीन भारत" में इन्हें भारशिववंश का माना है। मिरात-ए-मसूदी के मुताबिक, सुहेलदेव "भर थारू" समुदाय से संबंधित थे। बाद केलेखकों ने उनकी जाति को भर राजपूत , कलहंस, सारावक, राजभर, थारू और जैन राजपूत के रूपमें वर्णित किया गया है। 1877 के गजेटियर ऑफ़ अवध में लिखा गया है कि सुहेलदेव को प्राचीनग्रंथों में जैन भी बताया गया था।

1950 और 1960 के दशक के दौरान, स्थानीय राजनेताओं ने महाराज सुहेलदेव को पासी राजाबताना शुरू किया। पासी एक दलित समुदाय है। धीरे-धीरे पासी ने सुहेलदेव को अपनी जाति के सदस्य के रूप में महिमा मंडित करनाशुरू कर दिया। मूल रूप से दलित मतदाताओं को आकर्षितकरने के लिए सुहेलदेव मिथक का इस्तेमाल किया। बाद में भाजपा , वीएचपी और राष्ट्रीयस्वयंसेवक संघ (आरएसएस) ने भी दलितों को आकर्षित करने के लिए इनके नायकत्व को धार दी।

1980 का दशक शुरू होने के बाद, बीजेपी-वीएचपी-आरएसएस ने महाराजा सुहेलदेव मिथक काजश्न मनाने के लिए मेले और नौटंकी का आयोजन किया। जिसमें उन्हें मुस्लिम आक्रमणकारियों केखिलाफ लड़े एक हिंदू दलित के रूप में दिखाया गया। बीसवीं शताब्दी के बाद से, विभिन्न राष्ट्रवादीसमूहों ने उन्हें एक हिंदू राजा के रूप में चिह्नित किया है । जिसने मुस्लिम आक्रमणकारियों को हरादिया।

इन सब के वावजूद सुहेलदेव 900 वर्षो तक इतिहास के पन्नों में दब कर रह गए। 19 वी. सदी केअंतिम चरण में इतिहासकारों ने जब महाराजा सुहेलदेव पर कलम चलाई तब उसका महत्व भारतीयोंको समझ में आया। 17वीं शताब्दी के फारसी भाषा के ऐतिहासिक कल्पित कथा मिरात-ए-मसूदी में राजा सुहेलदेव वगाजी के बीच हुए युद्ध का उल्लेख है। यह किताब मुगल सम्राट जहांगीर (1605-1627) केशासनकाल के दौरान अब्द-उर-रहमान चिश्ती ने लिखी थी।1940 में बहराइच के एक स्थानीय स्कूलीशिक्षक ने एक लंबी कविता की रचना की। उन्होंने सुहेलदेव को जैन राजा और हिंदू संस्कृति केउद्धारकर्ता के रूप में पेश किया। कविता बहुत लोकप्रिय हो गई। 1947 में भारत के धर्म आधारितविभाजन के बाद, कविता का पहला मुद्रित संस्करण 1950 में सामने आया।

बहराइच जनपद ऐतिहासिक और पौराणिक मामलों में काफी समृद्धशाली है । पौराणिक धर्म ग्रंथों मेंबताया गया है कि बहराइच जनपद को ब्रह्मा ने बसाया था । यहां सप्त ऋषि मंडल का सम्मेलन भीहुआ था । इस जनपद में 9 ग्रहों का वास भी है।बहराइच को एक प्रकार से सिद्ध स्थल भी कहा जाताहै।

इतिहास के एक लम्बे समय प्रवाह में इस जनपद ने अपनी एक विशेष पहचान है। प्राचीन काल मेंइसके वर्तमान भूभाग पर श्रावस्ती का अधिकांश भाग और कोशल महाजनपद फैला हुआ था।महात्मा बुद्ध के समय इसे एक नयी पहचान मिली। यह उस दौर में इतना अधिक प्रगतिशील एवंसमृद्ध था कि महात्मा बुद्ध ने यहाँ 21 वर्ष प्रवास में बिताये थे।

गोण्डा जनपद प्रसिद्ध उत्तरापथ के एक छोर पर स्थित है। प्राचीन भारत में यह हिमालय क्षेत्रों से आने वाली वस्तुओं का अग्रसारण स्थल था। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने अपने विभिन्नउत्खननों में इस जिले की प्राचीनता पर प्रकाश डाला है।गोण्डा एवं बहराइच जनपद की सीमा परस्थित सहेत महेत से प्राचीन श्रावस्ती की पहचान की जाती है।

जैन ग्रंथों में श्रावस्ती को उनके तीसरे तीर्थंकर सम्भवनाथ और आठवें तीर्थंकर चंद्रप्रभनाथ कीजन्मस्थली बताया गया है। इस धर्म के प्रवर्तक महावीर स्वामी यहाँ कई बार आ चुके थे । जैनसाहित्य में इसके लिए चंदपुरी तथा चंद्रिकापुरी नाम भी मिलते है । जैन धर्म के प्रचार केंद्र के रूप मेयह विख्यात था। महावीर स्वामी ने भी यहाँ एक वर्षावास व्यतीत किया था । जैन धर्म मे सावधिअथवा सावत्थीपुर के प्रचुर उल्लेख मिलते हैं। जैन धर्म भगवती सूत्र के अनुसार श्रावस्ती नगरआर्थिक क्षेत्र में भौतिक समृद्धि के चमोत्कृष पर था। यहाँ के व्यापारियों में शंख ओर मकखली मुख्यथे। जिन्होने नागरिकों के भौतिक समृद्धि के विकास मे महत्वपूर्ण योगदान दिया था। जैन श्रोतों सेपता चलता है कि कालांतर मे श्रावस्ती आजीवक संप्रदाय का एक प्रमुख केंद्र बन गया | वायु पुराणऔर रामायण के उत्तरकाण्ड के अनुसार श्रावस्ती उत्तरी कोशल की राजधानी थी । दक्षिणी कोशलकी राजधानी साकेत थी।

वास्तव में एक लम्बे समय तक श्रावस्ती का इतिहास ही गोण्डा का इतिहास है। सम्राट हर्ष बर्धन के शासनकाल 606 से 647 ई.के राज कवि बाणभट्ट ने अपने प्रशस्तिपरक ग्रन्थ हर्षचरित में श्रुत वर्मानामक एक राजा का उल्लेख किया हैं ।जो श्रावस्ती पर शासन करता था। दंडी के दशकुमारचरित मेंभी श्रावस्ती का वर्णन मिलता है।

श्रावस्ती से आरंभिक कुषाण काल में बोधिसत्व की मूर्तियों के प्रमाण मिलते हैं। लगता है कि कुषाणकाल के पश्चात् इस महत्त्वपूर्ण नगर का पतन होने लगा था। इतिहासकार राम शरण वर्मा ने इसेगुप्त काल में नगरों के पतन और सामंतवाद के उदय से जोड़कर देखा है।इसके बावजूद जेतवन काबिहार लम्बे समय तक, लगभग आठवीं एवं नौवीं शताब्दियों तक, अस्तित्व में बना रहा।

भगवान बुद्ध के जीवन काल में यह कोशल देश की राजधानी रहा। श्रावस्ती से भगवान बुद्ध के जीवनऔर कार्यो का विशेष सम्बंध है। बुद्ध ने अपने जीवन के अंतिम पच्चीस वर्षो के वर्षवास श्रावस्ती मेंही व्यतीत किए थे | भगवान बुद्ध के प्रथम निकायों के 871 सुत्तों का उपदेश श्रावस्ती में दिया था, जिसमे 844 जेतवन में, 23 पुब्बाराम में ओर 4 श्रावस्ती के आस –पास के अन्य स्थानों में उपविष्टकिए गए | बौद्ध धर्म को मानने वाले अनुयायियों के लिए श्रावस्ती में कटरा सहेट महेट है।

श्रावस्ती में बौद्ध धर्म अनुयायियों द्वारा बौद्ध मंदिरों का निर्माण कराया गया। जिसमे वर्मा बौद्ध मंदिर, लंका बौद्ध मंदिर, चाइना मंदिर , दक्षिण कोरिया मंदिर के साथ –साथ थाई बौद्ध मंदिर है | थायलैंडद्वारा डेनमहामंकोल मेडीटेशन सेंटर भी निर्मित कराया गया। श्रावस्ती को बुद्धकालीन भारत के 06 महानगरों चम्पा ,राजगृह , श्रावस्ती ,साकेत ,कौशाम्बी और वाराणसी में से एक माना जाता था |

श्रावस्ती के नाम के विषय मे कई मत प्रतिपादित है| बौद्ध ग्रंथों के अनुसार अवत्थ श्रावस्ती नामक एकऋषि यहाँ रहते थे। जिनके नाम पर इस नगर का नाम श्रावस्त पडा। महाभारत के अनुसार श्रावस्तीनाम श्रावस्त नाम के एक राजा के नाम पर पड़ा। ब्राह्मण साहित्य , महाकाव्यों एवं पुराणों के अनुसारश्रावस्त का नामकरण श्रावस्त या श्रावास्तक के नाम के आधार पर हुआ। श्रावस्तक युवनाय का पुत्रथा। पृथु की छठी पीढ़ी में उत्पन्न हुआ था | वही इस नगर के जन्मदाता थे। उन्हीं के नाम पर इसकानाम श्रावस्ती पड़ गया |

महाकाव्यों एवं पुराणों मे श्रावस्ती को भगवान राम के पुत्र लव की राजधानी बताया गया है | बौद्धग्रंथों के अनुसार, वहाँ 57 हज़ार कुल रहते थे । कोशल नरेशों की आमदनी सबसे ज्यादा इसी नगर सेहुआ करती थी| यह चौड़ी गहरी खाई से घीरा था | इसके इर्द –गिर्द एक सुरक्षा दीवार थी। जिसमे हरदिशा मे दरवाजे थे | हमारी प्राचीन कलाँ मे श्रावस्ती के दरवाजोंका अंकन हुआ है | चीनी यात्रीफ़ाहयान ओर हवेनसांग ने भी श्रावस्ती के दरवाजो का उल्लेख किया है | यहाँ मनुष्यों के उपयोग – परिभाग की सभी वस्तुए सुलभी थी, अतः इसे सावत्थी का जाता है | श्रावस्ती की भौतिक समृद्धि काप्रमुख कारण यहाँ पर तीन प्रमुख व्यापारिक पाठ मिलते थे , जिससे यह व्यापार का एक महान केंद्रबन गया था |

श्रावस्ती का प्रगैतिहासिक काल का कोई प्रमाण नहीं मिला है । शिवालिक पर्वत श्रखला केनतराई मेंस्थित यह क्षेत्र सघन वन व औषधियों-वनस्पतियों से आच्छादित था | शीशम के कोमल पत्तों , कचनार के रकताम पुष्प व सेमल के लाल प्रसूत कि बांसती आभा सेआपूरित यह वन खंड प्रकृतिक शोभा से परिपूर्ण रहता था| श्रावस्ती के प्राचीन इतिहास को प्रकाश में लाने के लिए प्रथम प्रयास जनरल कनिघम ने किया | उन्होने वर्ष 1863 मे उत्खनन प्रारम्भ करके

लगभग एक वर्ष के कार्य मे जेतवन का थोड़ा भाग साफकराया । इसमें उनको बोधिसत्व की 7 फुट 4 इंच ऊंची प्रतिमा प्राप्त हुई। जिस पर अंकित लेख मेइसका श्रावस्ती बिहार में स्थापित होना ज्ञात है | इस प्रतिमा के पर अंकित लेख मे तिथि नष्ट हो गयीहै | परंतु लिपि शास्त्र के आधार पर यह लेख कुषाण काल का प्रतीत होता है | वसंत पंचमी और महाराजा सुहेलदेव का जीवन हमें कई प्रेरणाएँ देता है। उन्होंने बताया कि संगठन मेंकितनी शक्ति होती है। उन्होंने बताया कि आक्रांताओं को किस तरह एक जुटता दिखाकर पराजितकिया जा सकता है। आज पूरा देश महाराजा सुहेलदेव जी का वंशज हैं। वह हमारे प्रेरणा पुरूष हैं।हमारे महापुरुष हैं। उनको याद करने। उनको नमन करने। उनके रास्ते पर चलने का समय है। उन्हेंकेवल गोंडा व श्रावस्ती तक ही सीमित नहीं किया जाना चाहिए ।

( लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)



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Praveen Singh

Praveen Singh

Journalist & Director - Newstrack.com

Journalist (Director) - Newstrack, I Praveen Singh Director of online Website newstrack.com. My venture of Newstrack India Pvt Ltd.

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