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Kashmir Video News: फिर कश्मीर! मगर दोषी कौन? देखें Y-Factor...

कश्मीर में ईमानदारी से मतदान कराया गया...

Yogesh Mishra
Written By Yogesh Mishra
Published on: 9 Aug 2021 9:27 PM IST
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Kashmir Video News: यूं तो कश्मीर मसले पर रायता फैलाने में कइयों ने कलछा खूब चलाया है। मगर दो प्रधानमंत्री थे जिन्होंने स्थिति को सुधारने का प्रयास किया। सफल भी रहे। लाल बहादुर शास्त्री तब नेहरू के गृहमंत्री थे। श्रीनगर के हजरतबल से पवित्र बाल चुरा लिया गया था। शास्त्री जी खोज कर ले आये। शांति कायम हो गई। मगर ज्यादा ऐतिहासिक महत्व की बात है, जब जनता पार्टी की सरकार 1977 में बनी। प्रधानमंत्री थे मोरारजी देसाई। कुछ राज्यों में विधान सभा चुनाव होने वाले थे। कश्मीर के चुनाव अधिकारीजन प्रधानमंत्री से पूछने आये कि घाटी में क्या किया जाय? कुछ अचंभित होकर, ऊंचे स्वर में मोरारजी देसाई ने कहा- 'निष्पक्ष निर्वाचन हो, जनमत का आदर हो।' और तब जनता पार्टी के विरोधी, नेहरू-इंदिरा परिवार के सखा शेख मोहम्मद अब्दुल्ला की नेशनल कॉन्फ्रेंस बड़े बहुमत से जीतकर आयी।https://youtu.be/wmLhau5yt4k

शेख के उद्गार थे- 'पहली बार कश्मीर में ईमानदारी से मतदान कराया गया।' फिर अवसर आया सितम्बर 1985 में जब जगमोहन राज्यपाल नियुक्त हुए थे। संजय गांधी के विश्वस्त थे। कुशल प्रशासनिक अधिकारी थे। तब वे भाजपा के सदस्य नहीं बने थे। इंडियन फेडरेशन ऑफ वर्किंग जर्नलिस्ट (प्थ्ॅश्र) का राष्ट्रीय अधिवेशन शेर-ए-कश्मीर सभागार में आयोजित हुआ। उद्घाटन जगमोहन जी ने किया। मुख्यअतिथि थे बर्खास्त मुख्यमंत्री फारुख अब्दुल्ला। दोनों में वार्ता कटी हुई थी।

संयोग था कि कुछ अवधि के बाद फिर जनप्रिय सरकार बनी। अब्दुल्ला मुख्यमंत्री बने। मगर उसी दौरान कई कश्मीरियों ने मुझे बताया कि यदि निर्वाचन हुआ तो एक अतिरिक्त डिब्बा जगमोहन के नाम पर भी रखा जाय, क्योंकि वे समूची घाटी में सर्वाधिक लोकप्रिय हैं। लूटखसोट की नींव कांग्रेस तथा नेशनल कॉन्फ्रेंस ने बहुत पक्की बनाई थी। यह पहली बार संभव हुआ कि दूरदराज इलाकों में अच्छी सड़कें, सस्ते गल्ले की दुकानें, यातातात, शिक्षा और दवा आदि घाटी में उपलब्ध हुई थी।

क्या विडंबना थी कि आम आदमी राज्यपाल शासन का पक्षधर था, विधायकों को लुटेरा मानता था। घाटी के चुनाव में घनघोर बेईमानी की बात हमेशा विश्वसनीय रहती थी। बात 1991 की है। घाटी में आतंकवाद चरम पर था। भारतीय प्रेस काउन्सिल के अध्यक्ष अवकाश प्राप्त न्यायमूर्ति सरदार राजेन्द्र सिंह सरकारिया ने 14 दिसम्बर, 1990 में राजस्थान रायफल के जवानों द्वारा कश्मीरी युवतियों से कथित दुराचार के आरोप पर मीडिया रपट की जांच का निर्देश दिया।

सेना प्रमुख जनरल सुनीत फ्रांसिस रोड्रिक्स, जो बाद में पंजाब के राज्यपाल, ने न्यायमूर्ति सरकारिया से प्रेस काउन्सिल द्वारा जांच का आग्रह किया था। तब प्रख्यात संपादक बीजी वर्गीज और के. विक्रम राव कश्मीर (कुपवाड़ा) सीमा तक गये। इन दोनों ने संयुक्त रपट दी जो (क्राइसिस एन्ड क्रेडिबिलिटी) प्रकाशित भी हुई। यात्रा के दौरान, सशत्र बलों ने अलगाववादी नेता यासीन मलिक से कारागार में भेंट भी करायी थी। इस कश्मीरी पुरोधा ने सरकारी सुरक्षा नहीं ली थी। उसकी पत्नी मशल हुसैन पाकिस्तानी है। मलिक कश्मीर को पाकिस्तान द्वारा कब्जियाने का सख्त विरोधी है। पर घाटी को आजाद राष्ट्र के रूप में चाहता है। यासीन मलिक का कहना था- 'जब तक कश्मीर दोनों राष्ट्रों की गुलामी से आजाद नहीं हो जाता। तब तक संघर्ष जारी रहेगा।' मतदान द्वारा राज्य विधान सभा में बहुमत पाकर वह अपना मंसूबा हासिल कर सकता है। उसका जवाब बड़ा दुखदायी था।

कश्मीर विधान सभा के विगत चुनाव में वह प्रत्याशी था। रात तक वह अपराजेय बहुमत से बढ़त बनाये था। चुनाव अधिकारी ने मलिक से कहा कि 'अब आप घर जाकर सोइये। आपके पक्ष में परिणाम सुबह ऐलान कर दूंगा।' वह घर आ गया। सुबह खबर मिली कि हारता हुआ नेशनल कॉन्फ्रेंस का प्रत्याशी विजयी घोषित कर दिया गया। तो ऐसी थी इस धरा के स्वर्ग की सियासी हालात। भारत में उस दौर में एकछत्र कांग्रेसी राज्य था, जिसकी बागडोर जन्मजात कश्मीरी जवाहरलाल नेहरू के वारिस के हाथों थी। एक दौर ऐसा भी आया जब भारत का गृहमंत्री कश्मीरी सुन्नी था। नाम था मुफ्ती मोहम्मद सईद (दिसम्बर 1989)। विश्वनाथ प्रताप सिंह प्रधानमंत्री थे। उनकी बेटी रूबिया का अपहरण हो गया था। उसे रिहा कराने के एवज में आतंकवादियों ने अपने कई घोर अपराधियों को छुड़ा लिया। शक था कि गृह मंत्री का इस प्रहसन में रोल था। तभी से उग्रवादियों का हौसला बढ़ा। उन्हीं की सुपुत्री महबूबा मुफ्ती की हमजोली बनकर भाजपा ने साझा सरकार बनाई थी।

इतने संकटों के पश्चात् भी यदि कश्मीर आज हमारा रहा है तो उसकी भी गौरव गाथा है। शेख अब्दुल्ला 1953 में अमरीकी साजिश के तहत घाटी को स्विट्जरलैंड जैसा गणराज्य बनाने की योजना रच रहे थे। तभी नेहरू काबीना के मंत्री भेष बदल श्रीनगर पहुंचे। उपमुख्यमंत्री बख्शी गुलाम मोहम्मद को मुख्यमंत्री घोषित किया। हिन्दू पुलिस मुखिया को दरकिनार कर, मुस्लिम उपमहानिरीक्षक को लेकर गुलमर्ग गये। शेख को कैद किया। कश्मीर बचा है तो बाराबंकी के इसी सुन्नी (रफी अहमद किदवई) की फुर्ती के कारणय न कि प्रयाग के पण्डित की वजह से, जो प्रधानमन्त्री था तब। मायने यही कि आज का पुलवामा नरसंहार अकस्मात् नहीं हुआ। एक लम्बी, राष्ट्रद्रोह और हिंसक श्रृंखला का यह नया छल्ला है। अर्थात् रायता फिर फैला, सिलसिला दुर्दान्त है, त्रासदपूर्ण भी।

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