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Yogesh Mishra Y-Factor: क्या सच में Anti Hindu हैं Faiz Ahmad Faiz की Nazm 'Hum Dekhenge'

आज जो लोग इस नज़्म को गा रहे हैं उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए...

Yogesh Mishra
Written By Yogesh Mishra
Published on: 10 Aug 2021 6:35 PM IST
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फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की एक नज़्म- 'हम देखेंगे...।' यह इन दिनों बेहद चर्चा में है। यह नज़्म 1979 में लिखी गई थी। तब पाकिस्तान में तानाशाह जनरल जियाउल हक़ का शासन था। पाकिस्तान में महिलाओं के लिए साड़ी पहनना गैर इस्लामिक था। लेकिन गज़़ल गायिका इकबाल बानो ने सफेद साड़ी पहनकर इस नज़्म को गा अमर कर दिया।

इस नज़्म ने फ़ैज़ को एक नई कसौटी पर खड़ा कर दिया है। कहा जा रहा है उनकी नज़्म हिन्दू हितों पर कुठाराघात करती हैं? फ़ैज़ की जिस नज़्म को लेकर हंगामा बरपा है। उसकी तहकीकात कानपुर आईआईटी कर रही है। यह फ़ैज़ के लिए दुर्भाग्यपूर्ण है। उनके साहित्य का मूल्यांकन टेक्नोलॉजी की दुनिया के लोग कर रहे हैं। साहित्य का दिल से रिश्ता है। जबकि टेक्नोलाॅजी का दिमाग से।

फ़ैज़ के साथ जावेद अख़्तर का आना लोगों को अखर रहा है। जावेद संसद के ऊपरी सदन के सदस्य रहे हैं। सियासत से उनका करीबी और गहरा रिश्ता है। तभी तो उनके वीडियो को कांग्रेस नेता शशि थरूर शेयर करने से नहीं चूकते हैं। इस समय देश में जो सरकार है उसकी विचारधारा के ठीक विपरीत उनकी शायरी और उनकी ज़िन्दगी है। इसलिए जब जावेद फ़ैज़ के बचाव में खड़े होते हैं तब फ़ैज़ के आसपास कई लाइने खिंच उठती हैं। फ़ैज़ को लेकर सवाल उठने लगते हैं। वैसे फ़ैज़ के पक्ष में गुलजार भी उतरे हैं, लेकिन गुलजार किसी खेमे की प्रतिबद्धता का निर्वाह नहीं करते। इसीलिए फ़ैज़ के बचाव में उनके तर्क जावेद अख़्तर की तरह नश्तर चुभोने वाले नहीं है। तवलीन सिंह ने इस नज़्म को भाजपा नेता जसवंत सिंह और अटल बिहारी वाजपेयी को सुनाई। इन्हें पसंद भी आई।

आज जो लोग इस नज़्म को गा रहे हैं उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि देश में आरूढ़ सरकार बकायदा लोकतंत्र से चुनी हुई है। भारत दुनिया का सबसे पुराना और सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है। इसलिए यह अप्रासंगिक है। तभी तो इस नज़्म को गाने वाले फै़ज़ की अहमियत कम कर रहे हैं। उनके खिलाफ चलाई जा रही साजिश का हिस्सा बन रहे हैं।

फ़ैज़ की इस नज़्म को सरकार के खिलाफ इस्तेमाल करने वाले फ़ैज़ के यश में इज़ाफ़ा करने की जगह उन पर और उनके समूचे साहित्य पर सवाल की तरह तनते जा रहे हैं। हकीकत यह है कि फ़ैज़ को लेकर जो भी भ्रम और संशय इन दिनों उठे हैं, उठाए जा रहे हैं, उसकी वजह उनके समर्थन में खड़े लोग ही हैं। उनका साहित्य, उनकी नज़्म, उनकी गज़लें नहीं।

फ़ैज़ को उर्दू और हिन्दी दोनों जुबान के लोगों से बहुत मोहब्बत मिली है। उनके कहे में जितना इंकलाब है, उतनी ही रूमानियत भी है। यही वजह है कि फ़ैज़ की कलम लिखती है- '' और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा। राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा...। वो बात सारे फ़साने में जिसका ज़िक्र न था। वो बात उनको बहुत नागवार गुज़री है...। गुलों में रंग भरे बादे-नौबहार चले। चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले...। ये दाग़ दाग़ उजाला, ये शबगज़ीदा सहर। वो इन्तज़ार था जिस का, ये वो सहर तो नहीं...। मुझ से पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब न माँग।'' ये लाइनें भी फ़ैज़ की ही हैं। फ़ैज़ की पत्नी एलिज जार्ज एक अंग्रेज समाजवादी महिला थीं। दोनों ने लंबे इश्क के बाद शादी की थी। दौर-ए-इश्क फ़ैज़ ने जो उन्हें ख़त लिखे और एलिस ने जो उन ख़तों का जवाब दिया है। उसे रेडियो ऑर्टिस्ट सलीमा रज़ा और दानिश इकबाल ने बहुत ही रोचक ढंग से पेश करके खूब शोहरत बटोरी है। फ़ैज़ की रूमानियत में भी इंक़लाबी तेवऱ हैं। उनकी रचनाओं में उदासी , दर्द और कराह के साथ साथ उम्मीद की एक अदम्य आस भी छिपी है। वे एक नर्म मिज़ाज और नाज़़ुक ख़्याल के व्यक्ति थे। किसी ने भी उन्हें ऊँची आवाज़ में बात करते या बहस करते नहीं सुना था।

साहिर, कैफी और फ़िराक़ के समकालीन शायरों में फ़ैज़ का नाम शुमार होता है। फ़ैज़ सुर्ख कम्युनिस्ट और रूमानी, क्रांतिकारी शायर थे। 'फ़ैज़' को एक विद्रोही शायर के रंग में देखा जाता है। जिनकी लेखनी में सामाजिक सरोकार और मजबूरियों का लेखा-जोखा है। वे एक ऐसे रचनाकार हैं जिन्होंने कलम ही नहीं बंदूक भी पकड़ी। वह 1942 से 47 तक ब्रिटिश भारतीय सेना में कर्नल के पद तक पहुंचे। उनके पिता उन्हें इस्लाम का विद्वान बनाना चाहते थे। पर फ़ैज़ को यह पसंद नहीं था। फ़ैज़ उस तबके के थे जो भारत की आज़ादी का यह स्वरुप नहीं चाहते थे। वह नहीं चाहते थे कि देश आज़ाद हो और बँट भी जाए। वह धर्म आधारित राज्य की अवधारणा के खिलाफ थे। हालांकि फै़ज़ की सोच ब्रिटिश साम्राज्यवाद का पतन थी। लियाकत अली खंा की सरकार के तख्ता पलट की साज़िश रचने के जुर्म में 1951-55 तक वह कैद में रहे।

1984 में उन्हें नोबेल पुरस्कार के लिए मनोनित किया गया। दस्त-ए-सबा (हवा का हाथ) और जिं़दानामा (कारावास का ब्योरा) में उनकी काफी नज़्में और गज़़ले संग्रहित हैं। फ़ैज़ के मिज़ाज, उनकी शायरी के स्वर और जिस कालखंड में लिखी गईं हैं उस समय के जरूरत के मद्देनजर ही उसका उपयोग किया जाना चाहिए। ऊर्दू में, शायरी में, नज़्म में तो यह और भी जरूरी होता है। क्योंकि वहां नुक्ते का हेर-फेर सब कुछ पलट देता है।

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