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Yogesh Mishra Y-Factor: Pandit Jasraj का ताल्लुक था Mewati Gharana से...

उनका रिश्ता संगीत के मेवाती घराने से जुड़ता है। इस घराने की शुरूआत जोधपुर के पंडित घग्गे नजीर खान ने की थी

Yogesh Mishra
Written By Yogesh Mishra
Published on: 10 Aug 2021 2:04 PM GMT
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Yogesh Mishra Y-Factor: शास्त्रीय गायक पंडित जसराज का अमेरिका के न्यूजर्सी में दिल का दौरा पड़ने की वजह से देहांत हो गया। वह 90 साल के थे। हरियाणा के गांव पीली मंदौरी में 28 जनवरी, 1930 को उनका जन्म हुआ था। संगीत से उनका परिचय पिता मोतीराम ने कराया था। जब पंडित जसराज चार साल के थे। तब उनके पिता का देहांत हो गया। जिस दिन पंडित जसराज के पिता का निधन हुआ। उसी दिन उन्‍हें हैदराबाद के आखिरी निजाम के उस्‍मान अली खां बहादुर के राजदरबार में राजसंगीत का दायित्‍व सौंपा जाने वाला था।

पंडित जी खुद बताया करते थे कि तीन साल की आयु में उनके पिता ने उन्‍हें संगीत की प्रारंभिक शिक्षा देनी शुरू कर दी थी। चार वर्ष की अल्पायु में पिता पंडित मोतीराम का साया जब सिर से उठा तो बड़े भाइयों पंडित मणीराम मिश्र और पंडित ओम प्रकाश मिश्र ने उन्‍हें संभाला। उनकी संगीत की शिक्षा जारी रखी।

उनका रिश्ता संगीत के मेवाती घराने से जुड़ता है। इस घराने की शुरूआत जोधपुर के पंडित घग्गे नजीर खान ने की थी। जसराज जी के पिता मोतीराम जी ने अपने मामा पंडित चिमन लाल से संगीत सीखा। जसराज जी आठ दशकों तक गायिकी करते रहे। जसराज जी वैष्णवी परंपरा के आवाज थे। इन्होंने अपने पिता की लिखी कुछ बंदिशें भी गायी हैं।

वह हैदराबाद में रहते थे। स्‍कूल जाने के लिए घर से निकलते तो रास्‍ते में एक चाय-पानी का होटल था। जहां ग्रामोफोन पर उन्‍हें बेगम अख्‍तर की गजल- "दीवाना बनाना है तो दीवाना बना दे" सुनाई पड़ती। उनके पैर थम जाया करते थे। स्‍कूल जाने के बजाय बैठकर वह बेगम अख्‍तर की गजल सुना करते थे। बाद में उनके भाई ओमप्रकाश मिश्र (बॉलीवुड संगीतकार जतिन-ललित और सिने अभिनेत्री विजेयता पंडित व सुलक्षणा पंडित के पिता) ने छह-सात वर्ष की अवस्‍था में ही उन्‍हें तबला बजाना सिखाया।

अपने साथ तबला वादक के तौर पर संगीत कार्यक्रमों में ले जाने लगे। 16 साल की उम्र तक वह अपने दोनों बड़े भाइयों के संगीत कार्यक्रमों में तबला वादन करते रहे। 1946 में उन्होंने पंडित डीवी पुलस्कर के साथ संगत की। तबला बजाना छोड़ने की पंडित जसराज की कथा भी कम रोचक नहीं है।

पंडित जसराज के बड़े भाई प‍ंडित मणीराम की शास्‍त्रीय संगीत मर्मज्ञ और गायक के तौर पर बड़ी धूम थी। लाहौर और दिल्‍ली में सरस्‍वती संगीत महाविद्यालय की उत्‍तर भारतीय शास्‍त्रीय संगीत के स्‍कूलों में बड़ी प्रतिष्‍ठा थी। पंडित मणीराम हर साल चार-पांच महीने के लिए लाहौर जाते। संगीत के विद्यार्थियों को शिक्षा देते थे।

श्री कृष्ण जन्‍माष्‍टमी से पहले कुमार गंधर्व भी लाहौर पहुंचे। वह पंडित मणीराम के साथ पूरे दिन रहे। शाम को लाहौर रेडियो पर उनका कार्यक्रम था। उनका तबला वादक किसी कारण से पहुंच नहीं सका। उन्‍होंने पंडित मणीराम से अपने छोटे भाई को भेजने का अनुरोध किया। इस तरह लाहौर रेडियो से प्रसारित कार्यक्रम में पंडित जसराज ने संगत की।

अगले दिन पंडित मणीराम से मिलने पहुंचे संगीतज्ञ व शास्‍त्रीय गायक पंडित अमरनाथ चावला ने उनसे कहा कि अगर बड़े लोग भी गलत गाएंगे तो नई पीढ़ी का क्‍या होगा। कुमार गंधर्व ने राग भीम पलास में धैवत पर सम लिया है। यह तो गलत है।

उनकी इस बात का खंडन पंडित जसराज ने किया। कहा कि इसमें गलत कुछ नहीं है। राग तो अच्‍छा बन पड़ा। इस पर उन्‍हें झिड़कते हुए पंडित अमरनाथ ने कहा कि जसराज तुम मरा हुआ चमड़ा पीटते हो। तुम्हें जीवित सुर की क्‍या समझ। पंडित जी ने अपने विभिन्‍न साक्षात्‍कारों में इस पूरी घटना की कई बार चर्चा की।

उनकी यह बात किशोरवय जसराज को गहरा आघात कर गई। उस दिन जन्‍माष्‍टमी थी। अगले दिन नंद उत्‍सव। नंद उत्‍सव के कार्यक्रम में तबला बजाने के लिए जसराज पहुंचे। देखा कि तबला और अन्‍य वाद्यय यंत्रों को बजाने वालों के बैठने के लिए जमीन में नीचे गहरे गड्ढे में स्‍थान दिया गया है।

उन्‍होंने इसका विरोध किया। कहा कि गायक के साथ ही बैठने की व्‍यवस्‍था की जाए। इस पर व्यवस्‍थापकों ने झिड़कते हुए क‍हा कि रागी के साथ तबला बजाने वाला बैठेगा? उसकी इतनी मजाल। पंडित जी ने अपने एक साक्षात्‍कार में बताया है कि यह तो घाव पर लगा नया घाव था। आहत मन ने उसी समय फैसला कर लिया कि वह अब तबला नहीं बजाएंगे।

पंडाल से बाहर निकल कर रोने लगे। नंद उत्‍सव में उनके बड़े भाई का कार्यक्रम था। वह पहुंचे तो पंडित जी ने मना कर दिया कि अब तबला नहीं बजाएंगे। ऐसे में उनके भाई ने संगीत महाविद्यालय से छात्रों को बुलाकर अपना कार्यक्रम किया। लेकिन अगली सुबह चार बजे ही उन्‍हें जगाकर कहा कि अब गाना शुरू करो। चार पीढ़ी से हमारा परिवार गायन कर रहा है। तुम्हें भी गायक ही बनना था।

लेकिन तबला वादन अच्‍छा करने की वजह से पहले इसकी शुरुआत नहीं हुई। पंडित जी ने उसी वक्‍त यह संकल्‍प किया कि जब तक गायन को प्रतिष्‍ठा नहीं मिल जाती है। तब तक वह अपना बाल नहीं कटाएंगे। 1952 तक लगभग सात साल उन्‍होंने अपने बाल लंबे ही रखे। 16 साल की उम्र में उन्होंने तबला वादन छोड़कर गायकी का संकल्प लिया। तब तक उनके आराध्य देव श्री हनुमान जी और भगवान राम हुआ करते थे।

उन्होंने हनुमान और भगवान श्री राम के लिए कई भजन भी गाए हैं। पंडित जी के अनुसार एक रात स्वप्न में भगवान श्री कृष्ण ने कहा कि उनका गायन उन्हें अत्यंत प्रिय है। पूजा, भोग, नैवेद्य तो संसार के अन्य समर्थ प्राणियों अथवा संसार के प्रतिष्ठित अन्य लोगों के लिए हैं। उन्हें तो जसराज का गायन ही चाहिए।

इसके बाद उन्होंने श्री कृष्ण भक्ति गायन को ही अपना जीवन समर्पित कर दिया। अपनी भक्ति भावपूर्ण गायकी से 'रानी तेरो चिरजीवौ गोपाल', 'ओम नमो भगवते वासुदेवाय', 'ब्रजे वसंतम' 'आज तो आनंद आनंद' और मधुराष्टकम् जैसी अनेक रचनाओं को अमृतमय कर दिया। अच्युतंमकेशवम को शास्त्रीय ढंग से गाकर लोकप्रिय बनाया। वह अष्टछाप के कवियों को भी खूब गाते थे।

पंडित जसराज ने कृष्ण भक्ति के गीत बहुत गाये। उन्होंने सूरदास, कृष्णदास, परमानन्द दास, छीतस्वामी और गोविंद स्वामी के पद खूब गाये। वह नवधा भक्ति में डूबे थे। उन्होंने राग गौरी, आसामांडा, अडाना, विलासखानी तोड़ी, अबरी तोड़ी, हिंडोल बसंत में भक्ति गीत गाकर बहुत ख्याति बटोरी। उन्होंने भजन को सुगम संगीत में ढाला।

उन्होंने फिल्मों के लिए भी गाया। हालांकि बहुत कम। 1966 में वी. शांताराम की फिल्म "लड़की सहयाद्री की" में एक वंदना गीत गाया। जिसके बोल थे-वंदना करो, अर्चना करो, इस धरा महान की। उन्होंने फिल्म बैजू बावरा की पदावलियों का भी गायन किया। हॉलीवुड की फिल्म 'लाइफ् ऑफ पई' और बॉलीवुड की 'बीरबल माई ब्रदर' में साउंड ट्रैक भी दिया।

उनका संगीत सबके लिए एक आध्यात्मिक यात्रा है। भक्ति गायन के लिए वह अपने आध्यात्मिक गुरु से प्रेरित हुए थे। उनके गुरु साणंद के महाराजा जयवंत सिंह वाघेला थे। इनकी लिखी बंदिशें भी रसराज जी ने गायीं।

उत्‍तर भारतीय संगीत के मूर्धन्‍य विद्वान गायक उस्‍ताद बड़े गुलाम अली खां उन्‍हें अपना शिष्‍य बनाना चाहते थे। एक बार जब बड़े गुलाम अली खां साहब बीमार थे। उनसे मिलने पंडित जसराज उनके घर गए। वह बिस्‍तर पर लेटे थे। पंडित जसराज देर तक उनका पैर दबाते रहे। बड़े गुलाम अली खां ने उनसे कहा कि जसराज तुम मेरे शागिर्द बन जाओ। मैं तुम्‍हें अपने बेटे की तरह रखूंगा। शिक्षा दूंगा।

पंडित जसराज ने उनसे कहा कि- 'आपसे शिक्षा हासिल करना मेरा सौभाग्‍य है। लेकिन मैं अपने पिता को जिंदा करना चाहता हूं। उन्‍होंने तीन वर्ष की अवस्‍था में मुझे जो सिखाया है। जिस गायकी की नींव रखी है। उसे मैं शीर्ष पर पहुंचाकर अपने पिता के नाम को प्रतिष्ठित करना चाहता हूं।'

उनकी यह बात सुनकर बड़े गुलाम अली ने उन्‍हें आशीर्वाद दिया कि तुम्हारी कामना पूरी हो। यह भी कहा कि मैं तो पहलवानी करता था। तुम्‍हारे पिता मोतीराम ही मुझे संगीत की दुनिया में लाए। गायक बनने के लिए प्रेरित किया।

पंडित जसराज ने आगे चलकर आगरा के स्‍वामी वल्‍लभदास से संगीत विशारद की शिक्षा प्राप्‍त की। मेवाती घराने के दिग्‍गज संगीतज्ञ महाराणा जयवंत सिंह वाघेला से ख्‍याल गायकी की बारीकियां न सीखीं। हवेली संगीत पर व्‍यापक अनुसंधान किये। नई बंदिशों की रचना करने वाले पंडित जी ने बाबा श्‍याम मनोहर गोस्‍वामी महाराज के साथ अपनी भक्ति साधना को परवान चढ़ाया।

महाराणा जयवंत सिंह वाघेला से उनके बड़े भाई मणिराम का घनिष्‍ठ संबंध था। पंडित जी बताते थे कि उनके बड़े भाई एक बार काफी अस्‍वस्‍थ हो गए। बोल नहीं पाते थे। तो महाराणा जयवंत सिंह वाघेला ने उन्‍हें अपनी रचना- माता कालिके गाने के लिए प्रेरित किया। कहा कि अब माई ही कल्‍याण करेंगी। यह रचना गाते ही उनके भाई उसी क्षण स्‍वस्‍थ हो गए। पंडित जसराज भी दैवी शक्ति के समक्ष समर्पित हो गए।

1964 में जयपुर के संगीत महोत्‍सव में उन्‍हें आधी रात के बाद गाने का मौका मिला। सुप्रसिद्ध नृत्यांगना सितारा देवी ने उनसे अनुरोध किया कि सुबह उनका राजभवन में कार्यक्रम है। उन्‍हें पहले मंच पर जाने दें। ज्यादा से ज्‍यादा एक घंटा लगेगा। उनके अनुरोध को पंडित जी टाल नहीं सके। सितारा देवी ने लगभग चार घंटे, सुबह 4.30 बजे तक नृत्य किया।

सुबह पौने पांच बजे जब पंडित जी ने राग नट भैरव गायन शुरू किया। 20 मिनट बाद ही उन्‍हें लोगों ने हूट करना शुरू कर दिया। इसके बाद उन्‍होंने माता कालिके का गायन किया। यह वैसे तो रात में गाया जाने वाला राग है। लेकिन उन्‍होंने सुबह इसे गाया। लगभग एक घंटे बाद विराम दिया। एक मिनट तक सन्‍नाटा छाया रहा।

उसके बाद पूरा पंडाल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा। पंडित जी के अनुसार यही कार्यक्रम था जिसने उन्‍हें संगीत का रसराज प‍ंडित जसराज बना दिया। वैसे तो रसराज की उपाधि उन्हें अटल बिहारी वाजपेयी ने दी थी। अंटाकर्टिका पर संगीत गायन कर दक्षिणी और उत्‍तरी ध्रुव पर गाने वाले गायक का रुतबा भी उन्होंने हासिल किया।

मूर्छना की प्राचीन शैली पर आधारित अनोखी जुगलबंदी के आविष्कार का श्रेय पंडित जसराज को जाता है। इसमें पुरुष और स्‍त्री गायक एक साथ अलग-अलग राग का गायन करते हैं। इसकी प्रसिद्ध ऐसी हुई कि इस गायन विधा को जसरंगी का नाम दिया गया। टोरेंटों विश्वविद्यालय उनके नाम से एक स्कालरशिप देता है। न्यूयार्क में पंडित जसराज ऑडिटोरियम है। एक ग्रह का नाम पंडित जसराज के नाम पर रखा गया है।

उपाधियां पूरे जीवन भर उन्‍हें अलंकत कर स्‍वयं विभूषित होती रहीं। पदम श्री, पदम भूषण, पदम विभूषण, संगीत नाटक अकादमी, मारवाड संगीत रत्‍न आदि क्‍या-क्‍या नहीं उन्‍हें मिला। लेकिन पंडित जी को रसराज उपाधि अत्‍यंत प्रिय अनुभूति दिलाती रही।

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