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Rahul Gandhi Congress: राहुल का वायनाड जाना क्या एक टोटका है या और कुछ, देखें Y-Factor...

राहुल जैसा नेता अपनी पैतृक सीट का छोड़ कर एक ऐसी सीट पर अपनी किस्मत आजमाने की बात सोच रहा हो...

Yogesh Mishra
Written By Yogesh Mishra
Published on: 10 Aug 2021 9:42 AM GMT
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Rahul Gandhi Congress: राहुल गांधी का अमेठी के साथ केरल के वायनाड सीट से उतरने के ढेर सारे मतलब है। भाजपा की स्मृति ईरानी इसे राहुल के अंदर अमेठी से हार जाने का भय बता रही हैं। उनके मुताबिक राहुल जैसा नेता अपनी पैतृक सीट का छोड़ कर एक ऐसी सीट पर अपनी किस्मत आजमाने की बात सोच रहा हो जिसकी सात विधानसभा सीटों में से चार सीटों पर सीपीएम का कब्जा है। एक सीट पर सीपीएम समर्थित निर्दलीय उम्मीदवार जीता है। राहुल के अमेठी से वायनाड पलायन के पीछे यह भी कहा जा रहा है कि वायनाड में मुस्लिम मतदाताओं की अधिकता के चलते राहुल ने यह सीट चुन लिया।

दस साल पहले बनी इस संसदीय सीट पर अब तक हुए दोनों चुनाव कांग्रेस ने जीते हैं। उसने सीपीआई को हराया है। हालांकि 2014 में कांग्रेस की जीत का अंतर बेहद कम था। यानी 20,870 वोटों का था। लेकिन राहुल के इस फैसले की पड़ताल करें तो तमाम रोचक और दूसरे तथ्य भी हाथ लगते हैं। मसलन, वायनाड में मुस्लिम आबादी 48.65 फीसदी है। ईसाई 11 फीसदी हैं। अनुसूचित जनजाति यहां 8 फीसदी है। अनुसूचित जाति 6 फीसदी है। जबकि अमेठी में मुस्लिम आबादी का आंकड़ा 33.04 फीसदी है। गांधी परिवार जब भी संकट में होता है या उसे सत्ता हासिल करनी होती है तो दक्षिण का रास्ता पकड़ता है। आपातकाल में हार के बाद इंदिरा गांधी ने संसद में वापसी कर्नाटक के चिकमंगलूर के रास्ते की। यह 1978 का वर्ष था। ठीक दो साल बाद 1980 में इंदिरा गांधी आंध्र प्रदेश के मेडक से चुनाव जीतने में कामयाब हुई। सोनिया गांधी ने जब 1999 में राजनीति की डगर पकड़ी तो उन्होंने कर्नाटक के बेल्लारी से शुरुआत की।

इस लिहाज से देखें तो यह कांग्रेस की सरकार बनाने का टोटका भी हो सकता है कि राहुल दक्षिण के वायनाड पहंुच गये हैं। अपना नामांकन दाखिल करने के बाद राहुल गांधी ने कहा कि दक्षिण भारत के लोगों को अपनी भाषा, संस्कृति एवं इतिहास को लेकर आरएसएस और भाजपा से खतरा महसूस हो रहा है। मैं उनके साथ खड़ा हूं। कांग्रेस पार्टी उनके साथ खड़ी है। इसी के बाद से कांग्रेसी नेता केंद्र सरकार द्वारा दक्षिण की उपेक्षा का राग अलापने लगे। कहने लगे दक्षिण भारतीय मुख्यमंत्रियों को बातचीत के लिए प्रधानमंत्री ने समय नहीं दिया। तमिलनाडु में एनईईटी, जलीकट्टू और स्टार लाइट, केरल में सबरीमाला मंदिर में प्रवेश, कर्नाटक और तमिलनाडु के बीच मांडवी और कावेरी नदी के पानी के बंटवारे के मुद्दों से दक्षिण विरोध का भाजपा का रुख साफ होता है। आंध्र प्रदेश के लिए स्पेशल पैकेज की घोषणा करने से कदम पीछे खींचने, तमिलानाडु में साइक्लोन गाजा से बेघर हुए लोगों को मदद पहुंचाने में नाकाम रहने तथा सूखा प्रभावित कर्नाटक के लिए 4,500 करोड़ रुपये पैकेज की जगह सिर्फ 950 करोड़ रुपये जारी करने को भी कांग्रेस केंद्र सरकार की दक्षिण के राज्यों के प्रति सौतेला व्यवहार करने के प्रमाण के रूप में पेश कर रही है।

कांग्रेस का मानना है कि वायनाड से राहुल के चुनाव लड़ने से केरल के साथ ही तमिलनाडु और कर्नाटक के चुनाव में भी असर पड़ेगा। लेकिन सच्चाई यह है कि कर्नाटक कांग्रेस के लिए सुरक्षित नहीं है। आंध्र प्रदेश दो राज्यों में बट चुका है। तमिलनाडु किसी बाहरी के लिए कभी अनुकूल नहीं रहा। 2014 के चुनाव में भाजपा ने पांच दक्षिण के राज्यों से सिर्फ 20 सीटें हासिल की थी। जबकि कुल 112 सीटें हैं। इन राज्यों में भाजपा का प्रदर्शन 20 फीसदी के आस-पास रहा। कांग्रेस और भाजपा को दोनों को यह समझना चाहिए कि मैंदान मारने के लिए किसी भी हथियार का उपयोग ठीक नहीं है। उत्तर-दक्षिण नहीं पूरे भारत को एक समझ कर जब तक रणनीति नहीं बनाई जाएगी। तब तक देश के विकास के सवाल पूरी तरह से हल नहीं होगा। हालांकि उत्तर और दक्षिण का ट्रेंड हमेशा अलग रहता है। 1977 में जब पूरा देश कांग्रेस को खारिज कर रहा था, तब भी दक्षिण के आंध्र ने कांग्रेस को 42 में 41 सीटें दी थी। पूरे देश में कांग्रेस को 153 सीटें मिली थीं। जनता पार्टी की सरकार बनी थी।

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