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यूक्रेन पर भारत के निर्णय का संदेश

दिलचस्प यह है कि राय मेडिकल, अंतरिक्ष, खेल, आविष्कार, साइंस, आर्ट ,कल्याण या वैश्विक सवाल पर भी व्यक्त करने में हम सब हिचकते नहीं हैं।

Yogesh Mishra
Written By Yogesh MishraPublished By Divyanshu Rao
Published on: 1 March 2022 2:51 PM IST
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Russia-Ukraine War: हमारे यहाँ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बेजोड़ नमूने देखेगा सके हैं। क्रिकेट का मैच हो रहा हो तो नीचे से लेकर ऊपर तक का हर आदमी यह बताता मिल जायेगा कि अमुक बैट्समैन को किस तरह बाल खेलनी चाहिए थी। बॉलर को बाल कैसे फेंकनी चाहिए थी। हमारे यहां राय दाताओं की कमी नहीं है।

दिलचस्प यह है कि राय मेडिकल, अंतरिक्ष, खेल, आविष्कार, साइंस, आर्ट ,कल्याण या वैश्विक सवाल पर भी व्यक्त करने में हम सब हिचकते नहीं हैं। इन दिनों रूस और यूक्रेन की लड़ाई में हर कोई मुँह लड़ाने को तैयार हैं। ज़बान व चोंच लड़ाने तक को तो हम सब बर्दाश्त करने की शक्ति जुटा लिये थे। पर मुँह लड़ाने को बर्दाश्त करने की ताक़त हम नहीं जुटा पाये हैं। पर हमारे पास शक्ति हो या न हो, ज़बान लड़ाने, चोंच लड़ाने व मुँह लड़ाने वाले राय दाता रूकने को तैयार नहीं हैं।

भारत ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में रुस व उक्रेन के सवाल पर मतदान करने से परहेज़ क्या किया? सुरक्षा परिषद के 15 सदस्यों में से 11 ने ही उसका समर्थन किया था, यदि पूरी सुरक्षा परिषद याने सभी 14 सदस्य भी उसका समर्थन कर देते तो भी वह प्रस्ताव गिर जाता, क्योंकि रूस तो उसका निषेध (वीटो) करता ही। वर्तमान अमेरिकी प्रस्ताव पर तीन राष्ट्रों भारत, चीन और यू.ए.ई. ने परिवर्जन (एब्सटैन) किया यानी वे तटस्थ रहे।

चीन ने अमेरिकी प्रस्ताव का विरोध नहीं किया, यह थोड़ा आश्चर्यजनक है, क्योंकि इस समय चीन तो अमेरिका का सबसे बड़ा विरोधी राष्ट्र है। रूस तो उम्मीद कर रहा होगा कि कम से कम चीन तो अमेरिकी निंदा-प्रस्ताव का विरोध जरुर करेगा । अब यह मामला 193—राष्ट्रों की सदस्यतावाली जनरल एसेम्बली में पेश किया जायेगा। लेकिन मुँह,चोंच व ज़बान लड़ाने वालों की बन आई। जिसे देखिये वही नसीहत दे रहा है। भारत को यह नहीं करना चाहिए था। क्या करना चाहिए था यह भी मुँह , चोंच व ज़बान लड़ाने वाली जमात बताने से परहेज़ नहीं करती।

इस पूरी समस्या पर व्यापक बहस में कतिपय अनभिज्ञ, कथित बौद्धिकों ने भारत की तटस्थता की भर्त्सना की है। नीतिशास्त्र तथा न्याय व्यवस्था के नियमों की दुहाई दी है। कहा है कि भारत को यूक्रेन के प्रति संवेदना तथा समर्थन व्यक्त करना चाहिए था। इन महानुभावों के मत में यह मानवीयता का तकाजा था।पर इस बुनियादी सिद्धांत को याद रखना पड़ेगा कि विदेश नीति की बुनियाद देशहित पर आधारित होती है। परोपकार पर नहीं।

मसलन, यूक्रेन का समर्थन भारत क्यों करें ? भारत ने उससे जब भी यूरेनियम खरीदने की पहल की, वह उसे किसी न किसी बहाने टाल गया।जब अटल बिहारी सरकार ने 1998 में आणविक परीक्षण किया था तो यूक्रेन ने उसकी आलोचना की थी। भारत के विरुद्ध सुरक्षा परिषद में यूक्रेन ने वोट दिया था।

यूक्रेन ने पाकिस्तान को सैनिक टैंक दिये थे , जिनका कश्मीर में उपयोग हो रहा है। कश्मीर में जनमत संग्रह कराने की पाकिस्तानी मांग का यूक्रेन समर्थन कर चुका है। संयुक्तराष्ट्र संघ में जब भी भारत से संबंधित कोई महत्वपूर्ण मामला आया, यूक्रेन ने भारत का विरोध किया है। चाहे परमाणु-परीक्षण का मामला हो, कश्मीर का हो या सुरक्षा परिषद में भारत की सदस्यता का मामला हो, यूक्रेन ने भारत-विरोधी रवैया ही अपनाया है। इसके बाद भी भारत के तटस्थता वाले स्टैंड पर नयी दिल्ली स्थित यूक्रेन राजदूत ईगोर पोलिखा ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को महाभारत के सिद्धांत का स्मरण कराया कि न्याय—अन्याय के संघर्ष में तटस्थता अनैतिक है।

जो लोग यह कह रहे हैं कि यूक्रेन का समर्थन करना चाहिए, उन्हें यह ज़रूर विचार करना चाहिए कि यदि भारत व्लादीमीर पुतिन के समर्थन में नहीं रहता। रुस के आक्रमण की निन्दा करता तो क्या होता? वह भी तब जब विगत दो दिनों से मास्को में इस्लामी पाकिस्तान के वजीरे आजम इमरान खान पुतिन के मेहमान बने बैठे हैं। गत ढाई दशकों में किसी पाकिस्तानी प्रधानमंत्री की यह प्रथम रुसी यात्रा है। इसके पूर्व मियां मोहम्मद नवाज शरीफ गये थे।

क्रेमलिन (सचिवालय) में बैठे पुतिन को इमरान खान समझाते रहे कि कश्मीर में भारत हमलावर है। संयुक्त राष्ट्र संघ को सैनिक हस्तक्षेप करना चाहिये। सुरक्षा परिषद में रुसी वीटो के कारण गत सत्तर वर्षों से कश्मीर बचा हुआ हैं । वर्ना कब का यह इस्लामी पाकिस्तान का मजहबी बुनियाद पर हिस्सा हो गया होता। इमरान की पूरी कोशिश रही कि अब रुस को कश्मीर के प्रस्ताव पर अपने वीटो के अधिकार का प्रयोग नहीं करना चाहिये। मायने यही कि यदि भारत यूक्रेन पर रुसी फौजी कार्रवाही की निन्दा करता है तो रुस को भी माकूल जवाबी कार्रवाही करनी चाहिये।

कम्युनिस्ट चीन, जो लद्दाख हड़पने को तत्पर है। वह आज रुस का फिर से मित्र तथा समर्थक बन गया है। उसने भी रुस की निन्दावाले प्रस्ताव का खुला समर्थन नहीं किया। हालांकि ब्रिक्स राष्ट्र समूह (ब्राजील, रुस, इंडिया, चीन तथा दक्षिण अफ्रीका) का प्रस्ताव है कि कोई भी राष्ट्र किसी दूसरे देश की भौगोलिक सीमायें सैन्य बल पर बदल नहीं सकता है।

स्वयं व्लादीमीर पुतिन ने इस संधि के प्रावधान का अनुमोदन किया था। भारत रुस पर अत्यधिक निर्भर है। कच्चे तेल, प्राकृतिक गैस, सैन्य हथियार तथा उपकरण और औद्योगिक धातुओं के लिये। यदि कहीं आपूर्ति कट जाये तो भारत पर विकट समस्या पड़ सकती है। अत: यूक्रेन पर भारत का नजरिया तथा कदम इन तथ्यों और अपरिहार्यताओं पर निर्भर रहता हे।

इतिहास को देखें तो अमेरिका की हरकतें भी उजागर होती हैं।उसने भी अगस्त, 1953 में पड़ोसी राज्य गौटेमाला तथा होन्डुरास पर हमला किया था। यह हमला केवल यह कहकर किया गया था कि अमेरिका के द्वार तक कम्युनिज्म आ टपका हैं। इन दोनों छोटे गणराज्यों की सरकारों ने अमेरिकी राष्ट्रपति जनरल डीडी आइजनहोवर तथा विदेश मंत्री जान डलेस की फल उत्पादक कम्पनियों का राष्ट्रीयकरण कर दिया था। बस ऐसे ''साम्यवादी'' निर्णय का आरोप थोपा गया। जैसे आज यूक्रेन पर नाटो सैन्य समूह में रुस के विरुद्ध शामिल होने का इल्जाम है। अत: अमेरिका ने जिस प्रकार ईराक, वियतनाम और क्यूबा पर आक्रमण किया था वह भी वैश्विक अपराध में ही गिना जाना चाहिये था।

किन्तु कतिपय मोदी—आलोचकों ने यूक्रेन के मसले पर तटस्थ रहने पर जो बेतुकी, नासमझी की बात की है, वह राष्ट्रहित में कदापि नहीं हैं। राहुल गांधी इस मामले में अपनी नासमझी से बाज नहीं आये। राहुल ने बयान दिया कि भारत सरकार की विश्व में साख घट रही है। उन्हें इतिहास याद दिलाना होगा।

बात 1956 की है। हंगरी गणराज्य की जनता ने सोवियत रुस के जबरन आधिपत्य के विरुद्ध विद्रोह कर दिया था। भारत की कम्युनिस्ट पार्टी ने रुस का समर्थन किया था। यूएन में रुस की भर्त्सना का प्रस्ताव आया तो जवाहरलाल नेहरु ने मौन धारण कर लिया। निरीह हंगरी जनता को रुसी टैंकों तले रौंद दिया गया। राजधानी बुडापोस्ट की यात्रा में बेहद मार्मिक पूरा विवरण तथा शहीद स्थल देखा जा सकता है। फिर आया 1968 ।प्राग स्प्रिंग जब रुसी सेना के उदारवादी राष्ट्रनायक एलेक्जेंडर ड्यूबचेक को अपदस्थ कर जनक्रान्ति का दमन कर दिया था।

तब भी इंदिरा गांधी ने सोवियत रुस द्वारा दमन की भर्त्सना नहीं की थी। भारत—रुस याराना का ही पक्ष लिया। जब बेज्नेव ने अफगानिस्तान का दमन किया तो इंदिरा गांधी ने काबुल के अफगान बागियो का साथ नहीं दिया। उस वक्त भारतीय जनसंघ के नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने लखनऊ में एक इंटरव्यू में एक भविष्यवाणी की थी कि : ''अफगानिस्तान भी एक दिन रुस के लिये वियतनाम जैसा हो जायेगा। अमेरिका की भांति रुस को भी भागना पड़ेगा।'' दोनों जगह ऐसा ही हुआ।

यही नहीं, अमेरिका और नाटो राष्ट्रों के साथ बढ़ते हुए संबधों के बावजूद आज भी भारत को सबसे ज्यादा हथियार देनेवाला राष्ट्र रूस ही है। रूस वह राष्ट्र है, जिसने शीतयुद्ध-काल में भारत का लगभग हर मुद्दे पर समर्थन किया है। गोवा और सिक्किम का भारत में विलय का सवाल हो, कश्मीर या बांग्लादेश का मुद्दा हो, परमाणु बम का मामला हो— रूस ने हमेशा खुलकर भारत का समर्थन किया है। 1971 में भारत पाक युद्ध के समय जब अमेरिका ने पाकिस्तान के समर्थन में अपना सातवाँ बेड़ा भेजा तब रुस ने भारत की मदद की। रुस ने भी अपने जंगी जहाज़ समुद्र में उतार दिये। नतीजतन, अमेरिका को अपना सातवाँ बेड़ा वापस लेना पड़ा।

इस संदर्भ में पुतिन के बारे में भी एक अति विलक्षण घटना का उल्लेख ज़रूरी है। यह कठोर सोवियत कम्युनिस्ट रहा। डरावनी खुफिया एजेंसी केजीबी का मुखिया रहा। आज रुस का कर्णधार है। पुतिन पैदा ही नहीं होता क्योंकि उसके जन्म के पूर्व ही उसकी मां मृत घोषत हो गयी थी। उसके पति द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद घर आये। घर के सामने उन्होंने देखा लाशों का अंबार जिसे ट्रक में लाद कर दफन करने ले जाया जा रहा था।

उसने चप्पल पहचानकर अपनी पत्नी को पाया। स्वयं दफन करने हेतु लाश मांग ली। आश्चर्य हुआ जब उसकी पत्नी में उसे स्पन्दन लगा। पति श​व को अस्पताल ले गया। सेवा सुश्रुषा के आठ वर्ष बाद वह स्वस्थ हो गयी। उसके बाद उस युगल के एक पुत्र 1952 पैदा हुआ। वहीं पुतिन है। यदि लाश में स्पन्दन न होता तो ? इतिहास ही भिन्न हो जाता। बालक पुतिन की मां के साथ तस्वीर हिलेरी क्लिंटन की पुस्तक ''हार्ड चॉवाइसेज'' (कठिन चयन) में मिलती है।



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Divyanshu Rao

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