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Patel-Nehru विवाद: भारतीय स्वतंत्रता इतिहास में कुछ सत्य बिखरे पड़े हैं, देखें Y-Factor...
नेहरू और पटेल के रिश्ते बेहद दिलचस्प थे, उनमें मतभेद था मनभेद नहीं।
सरदार वल्लभ भाई पटेल और पं. जवाहर लाल के बीच मतभेदों को लेकर भारतीय स्वतंत्रता इतिहास में मिथ, किंवदंतिया और कुछ सत्य बिखरे पड़े हैं। सरदार पटेल को जनसंघ समर्थक माना जाता है। हालांकि उन्होंने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की हत्या के बाद राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ पर प्रतिबंध लगाया। कहा कि गांधी जी की हत्या के बाद संघ कार्यकर्ताओं ने मिठाई बांटी। लेकिन जब गुरु गोलवरकर सरदार पटेल से मिले तो 11 जुलाई, 1949 को प्रतिबंध भी उन्होंने ही हटाया। इसके लिए उन्होंने बाकायदा नेहरू को प्रमाण पेश किया था कि गांधी जी की हत्या में संघ नहीं सावरकर के नेतृत्व वाले हिंदू महासभा की भूमिका थी।
वह चाहते थे हिंदू हित की राजनीति करने वालों को खारिज करने के बजाय उन्हें कांग्रेस में लाकर राष्ट्रहित के काम में जुटा देना चाहिए। महात्मा गांधी, सरदार पटेल और नरेंद्र मोदी ही नहीं, मोरारजी देसााई भी गुजरात से आते हैं। लेकिन नरेंद्र मोदी पटेल को लेकर नेहरू पर कई बार हमलावर हो चुके हैं। एक बार 2013 के दौरान तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के साथ मंच साझा करते हुए गुजरात के मुख्यमंत्री रहे नरेंद्र मोदी ने कहा था- 'हर भारतीय के मन में आज तक कसक है कि पटेल देश के प्रधानमंत्री क्यों नहीं बने।'
लेकिन नेहरू और पटेल के रिश्ते बेहद दिलचस्प थे। उनमें मतभेद था। मनभेद नहीं। एक-दूसरे को स्वीकारने में कोई गुरेज नहीं था। तभी 1 अगस्त, 1947 को नेहरू ने पटेल को पत्र लिखा- कुछ हद तक औपचारिकता निभाना जरूरी होने से मैं आपको मंत्रिमंडल में सम्मलित होने का निमंत्रण देने के लिए लिख रहा हूं। इस पत्र का कोई महत्व नहीं है। क्योंकि आप मंत्रिमंडल के सुदृंढ़ स्तंभ हैं। इस पत्र का जवाब देते हुए सरदार पटेल ने लिखा- धन्यवाद। एक-दूसरे के प्रति हमारा जो अनुराग और प्रेम रहा है। लगभग 30 साल की हमारी जो अखंड मित्रता है। उसे देखते हुए औपचारिकता के लिए कोई स्थान नहीं रह जाता है। आशा है कि मेरी सेवाएं बाकी के जीवन के लिए आपके अधीन रहेंगी।
आपको उस ध्येय की सिद्धी के लिए मेरी शुद्ध और संपूर्ण वफादारी और निष्ठा प्राप्त होगी। जिसके लिए आपके जैसा त्याग और बलिदान भारत के अन्य किसी पुरूष ने नहीं किया है। हमारा सम्मिलन और संयोजन अटूट और अखंड हैं। उसी में हमारी शक्ति निहित है। 2 अक्टूबर, 1950 के अपने भाषण में सरदार पटेल ने कहा था कि अब चूंकि महात्मा हमारे बीच नहीं हैं तो नेहरू ही हमारे नेता हैं। बापू ने उन्हें अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया था। उसकी घोषणा भी की थी। अब यह बापू के सिपाहियों का कर्तव्य है कि वे उनके निर्देश का पालन करें। मैं एक गैर वफादार सिपाही नहीं हूं।
पटेल मृदुभाषी थे। कम बोलते थे। लंबे भाषणों में यकीन नहीं करते थे। वह मानते थे कि हम जो बोले उस पर नहीं चल सकते हैं तो बोलना नुकसान कर सकता है। जबकि नेहरू यशकामी थे। जबकि नेहरू अपनी आलोचना बर्दाश्त नहीं करते थे। पटेल यथार्तवादी थे। नेहरू स्वप्नदर्शी।
नेहरू देशव्यापी और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर लोकप्रियता चहते थे, जबकि सरदार पटेल सिर्फ काम करना पसंद करते थे। वे साइलेंट वर्कर थे। तुषार गांधी की किताब 'लेट्स किल गांधी' में लिखा है कि पटेल अपनी आलोचनाओं को खुले दिल से स्वीकार करते थे। उनकी बेटी मणि बेन गांधी की हत्या की जांच के लिए गठित कपूर आयोग में पेश हुई थी तो उन्होंने कहा कि एक बैठक में मेरे पिता को जयप्रकाश नारायन ने सार्वजनिक रूप से गांधी जी की हत्या का जिम्मेदार बताया। उस बैठक में मौलाना आजाद भी थे। पर सरदार पटेल कुछ नहीं बोले।
उन्होंने अपना इस्तीफा नेहरू को भेजा पर स्वीकार नहीं हुआ। गांधी की तरह पटेल सार्वजनिक तौर पर हिंदू संस्कृत, वेद की बातें नहीं करते थे। एक बार जवाहर लाल नेहरू ने कहा था कि मैं जाता हूं आप बन जाइये प्रधानमंत्री। सरदार पटेल का जवाब था कि नहीं आपको रहना होगा। दोनों ने महात्मा गांधी की मृत्यु से कुछ मिनट पहले एक दूसरे से हाथ मिलाकर उनके सामने वादा किया था कि हम दोनों एक साथ रहेंगे। इसे उन्होंने निभाया भी। महात्मा गांधी के चंपारन सत्याग्रह का उनके जीवन पर ऐसा असर पड़ा कि उन्होंने जमी-जमाई वकालत छोड़कर स्वतंत्रता आंदोलन में कूदने का फैसला किया।
नेहरू ने अपनी इकलौती बेटी इंदिरा को अपने जीवन काल में संसद का मुंह नहीं देखने दिया। उन्हें नेहरू की मौत के बाद लाल बहादुर शास्त्री ने संसद भेजा। जबकि 1950 में पटेल की मौत के बाद नेहरू पटेल की बच्चों के लिए विंतित रहे। 1952 के आम चुनाव में उनकी बेटी मणि बेन को दक्षिण कैरा लोकसभा चुनाव लड़ाया गया। जीतीं भी।
1957 में आणंद लोकसभा से चुनी गईं। 1964 में उन्हें कांग्रेस ने राज्यसभा भेजा। गुजरात प्रदेश के पार्टी की सचिव और उपाध्यक्ष भी रहीं। हालांकि बाद में उनके बेटे डाह्या भाई ने अलग रास्ता चुन लिया। उन्होंने इंदू लाल याग्निक और कई अन्य नेताओं के साथ मिलकर महागुजरात जनता परिषद गठित की। डाह्या भाई को परिषद से उम्मीदवार के तौर पर याग्निक चुनाव लड़ाना चहते थे। पर मणि बेन ने नम आंखों से कहा कि पिता की मौत हो गई है। तुम दूसरी पार्टी से चुनाव कैसे लड़ सकते हो। नतीजतन, उन्होंने चुनाव लड़ने का फैसला छोड़ दिया। हालांकि 1958 में वे इसी पार्टी से राज्यसभा गये।
1959 में सरदार पटेल के करीबी लोगों ने स्वतंत्र पार्टी गठित की और 1964 में डाह्या भाई इसी पार्टी से राज्यसभा पहुंचे। वह 1958 से तीन बार राज्यसभा सदस्य रहे। डाह्या भाई ने अपनी आत्मकथा में लिखा कि साल 1957 के चुनाव में कांगे्रस की तरफ से लोकसभा चुनाव लड़ने के लिए प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष को पत्र लिखा।
वो मुझ से मिलने आये, आतुरता दिखाई, मुझे चिट्ठी लिखने को कहा। लेकिन 1957 की जनवरी में इंदौर में हुए कांग्रेस अधिवेशन में डाह्या भाई को लगा कि नेहरू के नेतृत्व में कांग्रेस सरदार पटेल की विरासत को स्वीकार करने को तैयार नहीं है। उसी समय महागुजरात आंदोलन जोर पकड़ रहा था और उन्होंने कांग्रेस छोड़ दी।
नेहरू के समय ही सरदार पटेल के बेटे डाह्या भाई पटेल को भी लोकसभा का टिकट मिला। बस इसके बाद विवाद के लिए कोई ऐसी जगह नहीं बचती है जिसका फायदा उठाया जा सके क्योंकि दोनों राष्ट्र रथ के दो पहिये थे। दोनों परस्पर पूरक थे। कुछ जगहों पर पर्याय थे पर एक-दूसरे को राह पर भी लाते थे। उनमें वैर प्रीत का रिश्ता नहीं था। बल्कि प्रीत काम का रिश्ता था। जिसने मंजिल तक पहुंचने के रास्ते अलग थे। अपधारणाएं भिन्न थीं। मान्यताएं कई बार अलग-अलग होती थी। लेकिन मंजिल और मकसद एक।