गठबंधन की खुलती गाठें

Update:2018-09-30 23:56 IST


नरेंद्र मोदी के अश्वमेधी रथ को रोकने के लिए उत्तर प्रदेश में महागठबंधन की कोशिशें तार-तार होती जा रही हैं। कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा जोड़कर भानुमती का जो कुनबा अखिलेश यादव, मायावती, अजित सिंह और कांग्रेस पार्टी ने खड़ा किया था वह लोकसभा चुनाव तो छोड़िये मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के चुनाव में ही बिखर गया। कांग्रेस की तमाम कोशिशों के बावजूद मायावती ने मध्यप्रदेश में 23 सीटों के उसके आमंत्रण को ठुकरा दिया। छत्तीसगढ़ में भी मायावती ने पांच-सात सीटों की हिस्सेदारी मना करते हुए कभी कांग्रेस के बड़े नेता रहे और इन दिनों अपनी पार्टी जनता कांग्रेस चलाने वाले अजीत जोगी से समझौता कर लिया। मायावती ने जो भी फैसला लिया उसकी अनुगूंज उत्तर प्रदेश में सम्भावित महागठबंधन के मद्देनजर अगर सुनी और परखी जाए तो इस निष्कर्ष पर पहुंचना आसान हो जाता है कि गठबंधन महज ख्वाब हो कर रह जाएगा।




मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में मायावती का कुछ भी दांव पर नहीं है वह मध्यप्रदेश में 1998, 2003, 2008 और 2013 में क्रमशः 6.15, 7.26, 8.97 और 6.29 फीसदी वोट हासिल कर चुकी हैं। यही नहीं इन्हीं चुनावी वर्षों में क्रमशः 11, दो, सात व चार सीटें जीत चुकी हैं। छत्तीसगढ़ में 2003, 2008 और 2013 में मायावती को क्रमशः 4.45, 6.11 और 4.27 फीसदी वोट मिल चुके हैं जबकि दो, दो और एक सीट हासिल हुई है। बावजूद इसके मायावती ने कांग्रेस से मध्यप्रदेश में 50 सीटें मांग लीं। अभी तक कुल 23 ऐसी सीटें हैं जिन पर मायावती विनर या रनर रही हैं। हरियाणा में मायावती ने चैटाला के इनेलो से हाथ मिलाया है। छत्तीसगढ़ में वह अजीत जोगी की जनता कांग्रेस के साथ हैं। मायावती के इस फैसले को ठीक से पढ़ा जाए तो यह संदेश निकलता है कि वह किसी राष्ट्रीय पार्टी के साथ हमकदम होने की जगह क्षेत्रीय क्षत्रपों को तरजीह देना पसंद कर रही हैं।




उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी भी क्षेत्रीय दल ही है। बावजूद इसके जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आ रहे हैं वैसे-वैसे मायावती की पसंद से अखिलेश यादव का गठजोड़ का आमंत्रण बाहर होता जा रहा है। कांशीराम जी हमेशा यह कहा करते थे कि उन्हें मजबूत नहीं मजबूर सरकार चाहिए मायावती ने उनके इस नारे को पार्टी की जगह नेता पर लाकर समेट दिया है। गठबंधन के लिए उन्हें मजबूत नहीं मजबूर नेता चाहिए। उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव मजबूर नेता नहीं हैं क्योंकि तीन बार उनके पिता और एक बार खुद वह मुख्यमंत्री रह चुके हैं। पिछले लोकसभा और विधानसभा दोनों चुनाव में उनकी पार्टी बसपा से ज्यादा वोट पा चुकी है। यहां मायावती खुद मजबूर नेता हैं। पहली मर्तबा लोकसभा में उनका कोई नुमाइंदा नहीं है। पार्टी के गठन के बाद से अब तक विधानसभा में सबसे खराब स्कोर इस बार बसपा का है। कैराना, फूलपुर और गोरखपुर को विपक्षी एकता की नजीर नहीं माना जाना चाहिए क्योंकि मायावती कभी भी उपचुनाव नहीं लड़ती हैं। ऐसे में उनका मतदाता हर बार घर तो बैठता नहीं है किसी न किसी को वोट तो देता ही है।




मायावती को गठबंधन में 36 से 38 सीटें मिल सकती हैं जबकि अखिलेश यादव 28 से तीस सीटों पर तैयार हैं लेकिन मायावती ने यहां भी यह कह दिया है कि सम्मानजनक सीटें नहीं मिलीं तो समझौता नहीं। मायावती के लिए सम्मानजनक सीटें अबूझ पहेली हैं क्योंकि समझौते सिर्फ सीटों तक ही नहीं हैं। गठबंधन की बात चलते ही मायावती की टिकटों की मांग बढ़ गई थी। अचानक स्मारक घोटाले के जिन्न का बाहर आ जाना, चीनी मिल बिक्री मामले की सीबीआई जांच, एनआरएचएम घोटाला, यादव सिंह प्रकरण ये सब भी गठबंधन के अलग-अलग कारक हैं। कुछ ऐसा ही कारक बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान सपा का महागठबंधन से बाहर होना भी था वह भी तब जबकि लालू प्रसाद यादव, नीतीश कुमार सरीखे नेता समाजवादी पार्टी में शिवपाल की कोशिशों के चलते विलय को तैयार थे। मुलायम सिंह को अध्यक्ष मानने को सहमत थे। पर यादव सिंह कांड का जिन्न एक सपा नेता के बेटे तक इस कदर पहुंच गया था कि बिहार में अकेले लड़ने का सपा को एलान करना पड़ा। उत्तर प्रदेश में सपा, बसपा कांग्रेस और रालोद तीनों अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं। इसलिए नेता एक दूसरे के भले ही गल बहियां हो लें। लेकिन कार्यकर्ता और मतदाता मेलजोल कर लेंगे यह आसान नहीं है। किसी भी चुनाव में इसका परीक्षण भी नहीं हुआ है।




मायावती भले ही अपने वोट ट्रांसफर करा लेती हों पर यादव मुखिया वाली पार्टी को करा पाएंगी यह बेहद टेढ़ी खीर है। उत्तर प्रदेश में खनन घोटाला, लोकसेवा आयोग भर्ती घोटाला और रीवर फ्रंट मामले की जांच सीबीआई के हाथ है जिस कार्यकाल के यह मामले हैं उस समय अखिलेश यादव मुख्यमंत्री हुआ करते थे। आज जब शिवपाल सिंह यादव समाजवादी सेक्युलर मोर्चे के मार्फत मुलायम लैंड में अखिलेश यादव की जमीन खिसकाने के संकल्प पर काम कर रहे हों तब अखिलेश यादव भी एक मजबूत नेता नहीं रह जाते हैं। गठबंधन की एक बड़ी चुनौती यह भी है कि जिसे टिकट नहीं मिलेगा वह पार्टी में बने रहने की जगह भाजपा में घुस जाना बेहतर समझेगा क्योंकि उत्तर प्रदेश में भाजपा की दो ढाई साल सरकार लोकसभा चुनाव के बाद भी रहेगी। नतीजतन इन नेताओं को जिला स्तर पर तमाम ऐसी सुविधाएं हासिल हो जाएंगी जिससे उनका रुतबा गालिब होता रहेगा। इन नेताओं को पटा कर रख पाना मायावती और अखिलेश दोनों के बस का नहीं होगा। कांग्रेस-सपा के साथ गठबंधन का हश्र बीते विधानसभा चुनाव में भुगत चुकी है। बसपा से निकाले जाने के बाद जो नेता कांग्रेस और सपा में महत्वपूर्ण ढंग से सियासत कर रहे हैं वह भी गठबंधन के बीच कम रोड़ा नहीं होंगे। नसीमुद्दीन सिद्दीकी ने मायावती पर लेन-देन का न केवल आरोप लगाया बल्कि आडियो भी जारी किया वह कांग्रेस में महत्व की जगह पर हैं। इन्द्रजीत सरोज ने भी मायावती पर तोहमत लगाकर पार्टी छोड़ दी वह सपा में महत्व की जगह पर हैं। गठबंधन के समय मायावती इन दोनों नेताओं समेत बाकी जो भी नेता बसपा से निकलकर कांग्रेस और सपा में है उन्हें बाहर करने की शर्त जरूर रखेंगी।




सपा, बसपा और कांग्रेस के प्रतीक पुरुष कभी भी एक दूसरे को नहीं सुहाए हैं। 2022 में विधानसभा का चुनाव इन तीनों दलों को एक दूसरे के खिलाफ लड़ना होगा क्योंकि गठबंधन सिर्फ लोकसभा तक है और मुख्यमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा अखिलेश यादव और मायावती दोनों की होनी चाहिए नतीजतन गठबंधन में भी यह अपनी-अपनी तुरूप की चालें इस कदर बचाकर रखेंगे कि गठबंधन में ईमानदारी का नतीजा ही नहीं मिल पाएगा। मायावती बेहद अबूझ नेता हैं उनके फैसलों के बारे में पूर्वानुमान असंभव है पर उन्हें कोई भी फैसला लेने से पहले खुद को सुरक्षा की लक्ष्मण रेखा में रखना आता है। सपा, बसपा और कांग्रेस एक दूसरे के विरोध की सियासत की उपज हैं ऐसे में रहीम का दोहा प्रासंगिक हो उठता है- कह रहीम कैसे निभे केर बेर को संग।

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