भारत के बँटवारे का सच: गांधी, नेहरू, पटेल, जिन्ना व कलाम किस-किस को कितना था पता

Truth Of Partition Of India: जाने किस इतिहास की किताब में पढ़ लिया गया कि गांधी ने भारत पाक बँटवारा करवाया। यह ऐसे ही है जैसे एक झूठ सौ बार बोला जाये तो सच हो जाता है।

Written By :  Yogesh Mishra
Update:2022-08-15 11:24 IST

भारत के बँटवारे का सच: Photo - Social Media

Truth Of Partition Of India: पिछली सदी में दो अविष्कार हुए। एक मोहनदास करम चंद गांधी (Mohandas Karamchand Gandhi) और दूसरा बम का। यह बात पहली बार कोपनहेगन की एक प्रेस कांफ्रेंस में कही गई । इस बात के कहे जाने के बाद ब्रिटेन के प्रसिद्ध पत्रकार एच. एन. ब्रेल्सफोर्ड (Journalist H.N. bralesford) ने गांधी और बम के साथ लेनिन को भी जोड़ दिया । परंतु बाद में ब्रेल्सफोर्ड ने गांधी की जीवनी की समीक्षा की। लिखा कि लेनिन कार्ल मार्क्स की केवल गूंज थे । जबकि गांधी मौलिक थे । हालाँकि ब्रेल्सफोर्ड के इस विचार के परिवर्तन में 15 साल लगे।

एक झूठ सौ बार बोला जाये तो सच हो जाता है!

आज बम को लगातार सफलता मिल रही है। गांधी अपने देश में लगातार असफल हो रहे हैं। हालाँकि दुनिया में उनकी सफलता बढ़ रही है। वर्चुअल वर्ड (virtual word) में जीने वालों के लिए तो गांधी के मायने कुछ नहीं है।

आज जब दुनिया गांधी को मान रही है तब भी वर्चुअल वर्ल्ड में जैविक कचरे के रूप में पसरे लोग गांधी को गाली दे रहे हैं। यह जमात प्रताप की पूजा करती है। इसका भारत से कोई लेना देना नहीं। इसने जाने किस इतिहास (History) की किताब में पढ़ लिया कि गांधी ने भारत पाक बँटवारा (india pakistan partition) करवाया।

यह ऐसे ही है जैसे एक झूठ सौ बार बोला जाये तो सच हो जाता है। पर दिलचस्प है कि भारत में जैविक कचरे के रूप में ज़िंदगी बसर करने वाली जमात बहत्तर साल से जो झूठ बोल रही है, वह सच नहीं हो पा रहा है। तभी तो दुनिया में गांधी की सफलता बम से ज़्यादा है।

महात्मा गाँधी और जिन्ना: Photo - Social Media

क्या देश का बँटवारा गांधी के नाते हुआ?

हमें गांधी को खुली आँखों से देखना चाहिए । डॉ. राम मनोहर लोहिया ने तीन तरह के गांधीवादी बतायें है- सरकारी, मठी और कुजात। तीनों गांधीवादी आज तक गांधी के लिए ख़तरा हैं। हम इस तथ्य से पर्दा हटाने की कोशिश करेंगे कि देश का बँटवारा गांधी के नाते हुआ? गांधी अल्पसंख्यकों के हितैषी थे? समूचे स्वतंत्रता आंदोलन में गांधी जी के निकट लोगों के नाम आते हैं। सूची चाहे जितनी लंबी या छोटी की जाये पर उसमें डॉ. राम मनोहर लोहिया का नाम शामिल किये बिना सूची का पूरा होना नहीं माना जायेगा।

लोहिया ने लिखा है कि देश के बँटवारे के लिए जिस तरह जवाहर लाल नेहरू, मोहम्मद अली जिन्ना व सरदार वल्लभ भाई पटेल मुख्य रूप से दोषी थे। उस तरह का दोषी मैं गांधी को नहीं मानता। पर लोहिया यह भी कहते हैं कि गांधी को बँटवारे के ख़िलाफ़ जिस तरह लड़ना चाहिए था, उस तरह नहीं लड़े। गांधी जी मामूली नेता नहीं थे। इतिहास में कोई ऐसा नेता नहीं है जो किसी पद पर न रहा हो। और लोग उसकी मुट्ठी में रहे हों। उसका जनता पर अधिकार रहा हो।

हर अधिकार का जन्म कर्तव्य की कोख से होता है

महात्मा गांधी हिंसा और शोषण के ख़िलाफ़ थे। इसलिए वह चाहते थे कि हर रोज़ की जीवनशैली में प्राकृतिक संसाधनों का उतना ही इस्तेमाल हो जितना कि मनुष्य विभिन्न तरह से धरती को वापस लौटा सके। गांधी अंधाधुंध शोषण को भी हिंसा मानते थे ।

हालाँकि आज के मानव की सुख सुविधाएँ व सम्पन्नता इसी शोषण की बुनियाद पर टिकी हुई है । जलवायु परिवर्तन पर हम जितना भी चिल्लाए । लेकिन जब तक हम अपनी प्रकृति को शोषणयुक्त सुविधाओं को कम नहीं करते तब तक प्रकृति का क़हर झेलना पड़ेगा। हर अधिकार का जन्म कर्तव्य की कोख से होता है।

जल, जंगल और ज़मीन को वस्तु के रूप में देखना छोड़ना होगा । 12 मार्च, 1930 को महात्मा गांधी ने दांडी कूच इसलिए किया था क्योंकि अंग्रेजों ने गरीबों को मिलने वाले नमक पर टैक्स लगा दिया था । उससे नाराज़ होकर तत्कालीन वायसराय लार्ड इरविन (Viceroy Lord Irwin) को पत्र लिखकर गांधी ने कहा था की आज़ादी की लड़ाई देश के ग़रीब से ग़रीब लोगों के लिए है।प्रकृति के दिए हुए नमक पर इन्ही गरीबों का पहला हक़ है। क्योंकि नमक का अधिक इस्तेमाल भी ग़रीब लोग करते हैं । इसलिए नमक टैक्स नहीं दिया जाएगा।

1930 में बुनियादी शिक्षा को लेकर वर्धा में बैठक के बाद गांधी ने पुस्तिका लिखी। जिसमें उन्होंने लिखा शिक्षा ऐसी हो जो आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति कर सके, बालक आत्मनिर्भर बन सकें, बेरोज़गारी से मुक्ति मिल सके।

इसके साथ ही मानव के व्यवहार में संस्कृति परिलक्षित होनी चाहिए । सच्ची शिक्षा वह है जिसके द्वारा बालकों का शारीरिक , मानसिक और आध्यात्मिक विकास हो सके। हालाँकि उदारीकरण के दौर में वैज्ञानिक शिक्षाओं की ओट लेकर नैतिक शिक्षा का लोप किया जाने लगा है।

अंबेडकर और गांधी का मतभेद

गांधी कभी कांग्रेस में रहते थे। कभी कांग्रेस से बाहर चले जाते थे। यह वह बाद के दिनों में करते थे। वह व्यक्तिगत सत्याग्रह की बात करते थे। हरिजन कल्याण, बेसिक शिक्षा, चरख़ा और व्यक्तिगत सत्याग्रह उनके एजेंडे में हमेशा रहे। हरिजन पत्रिका उनकी सक्रियता का छोटा प्रिंट वर्जन था। वे विचारक कार्यकर्ता थे। सिर्फ़ लिखने के लिए नहीं लिखे।

दलित उद्धार के लिए जो भी काम करते थे। वह उनके बड़े फलक का छोटा सा हिस्सा था, अंबेडकर से उनका मतभेद था। अंबेडकर नहीं मानते थे कि सवर्ण हिंदू दिल परिवर्तन को तैयार होंगे। दूसरा, उनको इस बात का डर रहता था कि गांधी पर विश्वास करने वाले दलित क्रिकेटर बल्लू डॉ. अंबेडकर से इत्तफ़ाक़ नहीं रखते थे।

महात्मा गाँधी-आंबेडकर:Photo - Social Media

1903-04 के कांग्रेस अधिवेशन में गांधी ने टट्टी ख़ुद सबकी साफ़ की थी। लोगों ने कहा कि यह हमारा काम नहीं है। गांधी ने कहा यह ग़लत है। शांतिनिकेतन में भी गांधी जी ने गंदा साफ़ किया था। बच्चों के हाथ में तसला दे दिया। रविंद्र नाथ टैगोर ने कहा,"जो मैं सालों से नहीं करवा पाया। आपने उसे डेढ़ घंटे में ही करवा दिया।"

गांधी जी ने कहा कि झाड़ू उठाना पड़ता है। वर्धा में गांधी जी जहां रहते थे। वहां जात पात विहिनता का आदर्श था। अंबेडकर को डर था कि यह आदमी हमारी पॉलिटिकल वेब ग़ायब कर देगा। बुजुर्ग हरिजन गांधी के साथ थे। जो जल्दी में थे, वो गांधी के ख़िलाफ़ रहते थे। वे चाहते थे कि पॉलिटिकल बेस बनने ही न दें। वह अतार्किकता के हद तक गये। बिहार में भूकंप आ गया तो इसे गाँधी ने ईश्वर का प्रकोप कहा।

क्योंकि तबके हिंदुओं ने दलितों के साथ न्याय नहीं किया था। वे प्राकृतिक आपदा को भी हिंदुओं के प्रति ईश्वर का प्रकोप मानते थे।टैगोर से गांधी का लंबा प्रतिवाद चला। गांधी के कांस्ट्रेक्टिव प्रोग्राम में- क़ौमी एकता, अस्पृश्यता निवारण, मद्य निषेध, खादी ग्रामोद्योग, गाँवों की सफ़ाई, बुनियादी तालीम, प्रौढ़ शिक्षा, आरोग्य के नियमों की शिक्षा, राष्ट्र भाषा, प्रांतीय भाषाएँ व आर्थिक समानता थे।

भारत पाकिस्तान विभाजन

अब हम पर भारत पाकिस्तान विभाजन को लेकर गांधी की भूमिका के बारे में सही जानकारी देने की ज़िम्मेदारी आन पड़ती है। तो इस प्रसंग व संदर्भ के साथ किसी ऐसे व्यक्ति का ज़िक्र अनिवार्य हो जाता है, जिसने इसका केवल मौन ही नहीं, मुखर विरोध किया हो। और वह इन घटनाओं का गवाह रहा हो। ऐसे व्यक्ति के रूप में सिर्फ़ डॉ राम मनोहर लोहिया का नाम उभरता है । डॉक्टर लोहिया कांग्रेस कार्य समिति की उस बैठक में शामिल थे, जिसमें विभाजन का अनुमोदन किया गया।

डॉक्टर राम मनोहर लोहिया लिखते हैं कि इस बात की शुरुआत करने से पहले मैं कांग्रेस कार्य समिति की बैठक का ज़िक्र करना चाहूँगा, जिसमें बँटवारे की योजना स्वीकृत की गयी। दो सोशलिस्टों- जयप्रकाश नारायण और मुझे इस बैठक में विशेष निमंत्रण पर बुलाया गया था। हमदोनों,महात्मा गांधी और ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान को छोड़कर कोई बँटवारे की योजना के ख़िलाफ़ एक शब्द भी नहीं बोला। यह बैठक दो दिन तक चली।

इस बैठक में आचार्य कृपलानी की स्थिति बड़ी दयनीय थी। वह कांग्रेस के अध्यक्ष थे। वह झुककर बैठे थे। बीच बीच में ऊँघ रहे थे । किसी मुद्दे पर बहस के दरमियान महात्मा गांधी ने कांग्रेस के श्रांत अध्यक्ष की ओर संकेत किया । झुंझलाकर मैंने उनका हाथ पकड़ कर झिझोडा।

उन्होंने बताया कि वे सर दर्द से बुरी तरह पीड़ित हैं। बँटवारे से उनका विरोध निश्चित ही साफ़ रहा होगा , क्योंकि उनके लिए यह वैयक्तिक भी था । लेकिन इस आज़ादी के लड़ाकू संगठन को बुढ़ापे की बीमारियां और थकान ने आफत के समय इस बुरी तरह धर दबोचा था ।

जयप्रकाश नारायण विभाजन के ख़िलाफ़ एक बार ही ही बोले, फिर चुप रहे

ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ाँ मात्र दो वाक्य बोले। उनके सहयोगियों ने विभाजन योजना स्वीकृत कर ली, इस पर उन्होंने अफ़सोस ज़ाहिर किया । उन्होंने विनती की कि प्रस्तावित जनमत गणना में पाकिस्तान और हिन्दुस्तान में सम्मिलित होने के इन दो विकल्पों के अलावा क्या यह भी जोड़ा जा सकता है कि उत्तर पश्चिम सीमांत प्रांत चाहे तो स्वतंत्र भी रहे। इससे अधिक किसी भी अवसर पर वह एक शब्द भी नहीं बोले।

निश्चय ही उन्हें काफ़ी सदमा लगा था। जयप्रकाश नारायण विभाजन के ख़िलाफ़ संक्षेप में पर निश्चयात्मक ढंग से एक बार ही ही बोले। फिर चुप रहे । उन्होंने ऐसा क्यों किया ? जिस ढंग से कार्य समिति देश का विभाजन करना चाह रही थी, क्या वह उससे क्षुब्ध थे ? या उन्होंने चुप रहने में ही बुद्धिमानी समझी । क्योंकि नेतृत्व वर्ग विभाजन की स्वीकृति के लिए दृढ़ रूप से एकमत था । शायद उनका चरित्र किसी अवसर पर स्वस्थ प्रतिक्रियाओं और आम तौर पर बुद्धिमानी के मिश्रण से बना है, जो निसंदेह झुँझलाहट पैदा करता है। जिससे अक्सर उन पर मुझे ग़ुस्सा आता है।

जय प्रकाश नारायण:Photo - Social Media 

लोहिया लिखते हैं यहाँ मैं विशेष रूप से उन दो बातों की चर्चा करूँगा, जिन्हें इस बैठक में गांधीजी ने उठाया था। शिकायत सी करते हुए उन्होंने जवाहर लाल नेहरू और सरदार पटेल से कहा कि विभाजन को मान लेने के पहले इन लोगों ने उसकी ख़बर उन्हें नहीं दी।

गांधीजी के अपनी बात पूरी कर सकने के पहले, नेहरू ने कुछ आवेश में आकर उन्हें रोका और कहा कि उनको भी पूरी तौर पर जानकारी देते हैं । महात्मा गांधी के दुबारा यह कहने पर कि विभाजन की योजना की जानकारी उनको नहीं थी , नेहरू ने अपनी पहली बात को थोड़ा सा बदल दिया । उन्होंने कहा कि नौवाख़ाली इतनी दूर है और कि चाहे उन्होंने इस योजना को तफ़सील से न बताया हो , पर विभाजन के बारे में उन्होंने मोटे तौर पर गांधीजी को लिख दिया था।

सवाल यह उठता है कि नेहरू और सरदार पटेल के विभाजन की योजना मान लेने के पहले, क्या उसकी जानकारी गांधीजी को थी? महात्मा गांधी को लिखे गए संदिग्ध पत्रों को छपा देने से नेहरू का काम नहीं चलेगा, जिनमें उन्होंने काल्पनिक और सतही जानकारी दी थी । नेहरू और सरदार पटेल ने साफ़ तौर पर आपस में तय कर लिया था कि काम के निश्चित रूप से पूरा होने के पहले गांधीजी को विषय को बता देना अच्छा नहीं होगा।

वो चाहते थे कि कांग्रेस पार्टी (Congress Party) अपने नेताओं के वायदे की लाज रखे, इसलिए वे कांग्रेस से कहेंगे कि विभाजन के सिद्धांत को वह मान ले। सिद्धांत को मान लेने के बाद, उसको कार्यान्वित करने के बारे में घोषणा करनी चाहिए थी। संत के साथ साथ उनके नीति कुशल होने के बाद बहुत कही गई है , पर यह कुशाग्र और निपुण प्रस्ताव जहाँ तक मुझे मालूम है अब तक लिपिबद्ध नहीं किया गया है ।

राम मनोहर लोहिया:Photo - Social Media 

सीमांत गांधी के बड़े भाई डॉक्टर ख़ान साहब पहले या अकेले थे जो ज़ोर से चिल्ला पड़े कि यह प्रस्ताव बिल्कुल अव्यवहारिक है। इन प्रस्तावों का किसी और के विरोध करने की नौबत ही नहीं आयी । उस पर विचार नहीं किया गया । मैंने डॉक्टर ख़ान से आपत्ति की कि प्रस्ताव की अव्यवहारिकता में ही तो उसकी ख़ूबसूरती है ।और जिन्ना और कांग्रेस प्रतिनिधि अंग्रेजों की मदद के बिना देश का विभाजन कैसे करें इसमें समझ न हो तो हिंदुस्तान घाटे में नहीं रहेगा । ऐसी आपत्तियों को कौन सुनता ।

एकता की क़ीमत पर आज़ादी

एकता की क़ीमत पर आज़ादी ख़रीदने की कांग्रेस नेतृत्व की दृढ़ता के कारण उसका कोई व्यवहारिक महत्व नहीं निकला । उसका मतलब निकलता अगर गांधीजी अपने प्रस्ताव को आंदोलन की संभावना से पुष्ट करते। उन्होंने महसूस नहीं किया कि गांधीजी के प्रस्ताव के अनुसार , हठी जिन्ना अपनी असाधुता के कारण हिन्दुस्तान को बचा लेते। इसी मीटिंग में नेहरू और सरदार पटेल ने गांधी जी के साथ असभ्य और टुच्चे पन का व्यवहार किया ।

उन दोनों के साथ मेरी कुछ झड़प हो गई । इनमें से कुछ की मैं चर्चा करूँगा । अपने अधिष्ठाता के प्रति इन 2 चुनिंदा चेलों के अत्यधिक अशिष्ट व्यवहार से मुझे जैसे पहले आश्चर्य हुआ था ,वैसे अब भी होता है । हालाँकि आज उसे मैं कुछ बेहतर समझ सका हूँ । इस चीज़ में कुछ मनोविकार था । ऐसा लगता था कि वे किसी चीज़ के लिए ललक गए हैं और जब कभी उन्हें इसकी गंध मिलती है कि गांधीजी उसको रोकने लगेंगे तो वे ज़ोर से भौकने लगते हैं।

गांधीजी और जनता की आज़ादी की इच्छा को भुलावा देने के लिए उस समय मौलाना आज़ाद और नेहरू गज़ब के घनिष्ठ हो गए थे। ये लोग बुढा गए थे। वे अपने आख़िरी दिनों के क़रीब पहुँच गये थे। यह भी सही है कि पद के आराम के बिना भी ये ज़्यादा दिन ज़िंदा नहीं रह सकते थे। अपने संघर्ष के जीवन को देखने पर उन्हें बड़ी निराशा होने लगने लगी थी । बहुत ज़्यादा मौक़ा परस्त बनने का मौक़ा उनका नेता दे नहीं रहा था।

कांग्रेस नेता बूढ़े हो गए थे। थक गए थे- लोहिया

लोहिया का मत यह था कि कांग्रेस नेता बूढ़े हो गए थे। थक गए थे। आगे सुख तथा आराम की ज़िंदगी बिताना चाहते थे । लोहिया का ग़ुस्सा इन नेताओं पर इसलिए भी बरसा कि उन्होंने गांधी को दूध में पड़ी मक्खी की तरह निकाल फेंका । विभाजन को स्वीकार कर इन नेताओं में छह लाख लोगों की हत्या तथा लगभग डेढ़ करोड़ लोगों के विस्थापन की स्थितियां बनायी । उन्हें यह भी संदेह रहा कि नेहरू और पटेल ने सत्ता की उतावली में पूर्ण स्वतंत्रता के बजाए डोमिनियन स्टेट्स ( स्वतंत्र उपनिवेश ) को स्वीकार किया।

भारत में ब्रिटिश साम्राज्य के तंत्र को ज्यों का त्यों जारी रखने का कोई और लिखित अथवा अलिखित समझौता ब्रिटिश सरकार से किया।मुझे यक़ीन है कि अपने देश की एकता की क़ीमत पर नेहरू और उनकी जैसे लोगों ने देश की स्वतंत्रता ख़रीद कर देश को बहुत नुक़सान पहुंचाया है।

कांग्रेस के महासभा की बैठक में सरदार पटेल ने कहा था, "अंग्रेज़ और मुस्लिम लीग दोनों ने मिलकर प्रशासन संबंधी व्यवस्था में जो हस्तक्षेप शुरू किया है , उससे बचने के लिए दूसरा कोई भी दरवाज़ा हमारे सामने खुला ही नहीं रहने दिया गया । आख़िर हमें यह फ़ैसला करना था कि बटवारा एक हों या कई हो। लोहिया और जयप्रकाश दोनों की दृष्टि में विभाजन का मुख्य कारण कांग्रेस के बूढे होते नेताओं की जल्दी थी । इसके लिए उन्होंने गांधीजी की भी उपेक्षा कर दी थी । गांधी जी ने नेहरू को लिखा कि उनकी राय ली जाए । किंतु किसी ने उनकी बात सुनी नहीं । गांधी चाहते थे कि अंग्रेजों की उपस्थिति में कोई समझौता उचित नहीं है । हमें सत्ता प्राप्ति के लिए जल्दी नहीं करनी चाहिए। किंतु शासन में रहने वाले दोनों नेता नेहरू और पटेल ने किसी की नहीं सुनी। वे शायद लीग के नेताओं के आचरण से बेहद नाराज़ थे। निश्चय ही लीग का स्वार्थ देश के बँटवारे में था। देश के बँटवारे का एक मूल कारण कांग्रेस का यह विश्वास भी था कि सांप्रदायिकता कोई मूल समस्या नहीं है । यह अंग्रेजों द्वारा तैयार की गई है । अंग्रेजों के जाने के बाद सांप्रदायिकता भी चली जायेगी।

लोहिया कहते हैं कि निस्संदेह जिन्ना की हठधर्मी ने देश को तोड़ा । साथ ही नेहरू की मौकेबाजी और पाखंड भी उस हठधर्मी में सहायक हुए। मुस्लिम लीग के ख़ली कुज्जमा को जीभ दी। उनके साथ सन् 36 के चुनाव लड़े और जब जीत ज़्यादा हो गई तो जीभ और अपने साथ दोनों को दुत्कार दिया ।

अब भी वही सिद्धांत मौकेबाजी और पाखंड चल रहे हैं। लोहिया लिखते हैं कि जब सरदार पटेल ने मुझसे कहा कि उनके जैसे बूढ़े लोग सिर्फ़ मेरे जैसे जवानों को एक देश दे रहे हैं ताकि उसमें परिवर्तन और प्रगति करें। तब मैंने उन्हें याद दिलाया कि अगर वे स्वतंत्र्य सेनानी थे , तो हम भी एक सिपाही थे , और कि नीतियों पर समानता के वातावरण में बहस होनी चाहिए ।

पटेल ने यह भी कहा कि अब वह जिन्ना से लाठी से बात करेंगे । इस पर फिर मैंने उनको याद दिलाया कि एक साल पहले उन्होंने जिन्ना से तलवार से बात करने का वादा किया था । मुझे यक़ीन है कि पटेल नहीं समझ सके कि किन चीज़ों का उनको सामना करना है या नेहरू के साथ मिल कर उन्होंने जो युक्तियाँ बिठाई हैं, उनका कितना कड़वा फल निकलेगा।

ये लोग विभाजन की क़ीमत पर आज़ादी ख़रीदने की नियति बनाकर आए थे ।मेरे जैसे आदमियों ने जो अस्पष्ट संकल्प से उनका विरोध करने की कोशिश की । नेहरू ने मुझे भाषण आचार दोनों में कूटनीति सिखाने की कोशिश ज़रूर की । मेरी कुछ बातों को इस आधार पर ठुकरा दिया कि वे अराजनयिक थी। मुझे याद नहीं पड़ता कि प्रारूप समिति को और किसी सदस्य ने कुछ कहा हो।

मौलाना आज़ाद:Photo - Social Media 

मौलाना आज़ाद एक शब्द नहीं बोले

मौलाना आज़ाद उसी छोटी सी कोठरी के कोने में बैठकर अबाध गति से सिगरेट पीते रहे। वह एक शब्द नहीं बोले। संभव हो कि उन्हें सदमा पहुँचा हो। लेकिन उनका यह बतलाने की कोशिश करना कि वह अकेले विरोध करने वाले थे, बेवक़ूफ़ी के सिवाय कुछ नहीं है। इतना ही नहीं, इन बैठकों में वह एक शब्द भी नहीं बोले। बल्कि एक दशक और उससे भी अधिक विभाजित भारत में मंत्री पद पर जमे रहे। मैं मान सकता हूँ और यह समझ सकता हूँ कि वे बँटवारे से दुखी थे ।

शायद अनौपचारिक ढंग से या गपाष्टक में उन्होंने इसका विरोध भी किया हो। लेकिन यह ऐसा विरोध था कि आगे चलकर उस चीज़ की सेवा से वह नहीं हिचकिचाये, जिसका उन्होंने विरोध किया था। बड़े बुद्धिमान या उतने ही नमनीय मन में विरोध और सेवा का यह विचित्र मेल था। मौलाना आज़ाद के मन की खोज भी एक दिलचस्प चीज़ हो सकती है । मुझे कभी कभी लगता है कि बुद्धिमानी और लचीलापन दोनों साथ साथ चलते हैं।

कांग्रेस नेतृत्व की तुच्छ स्वार्थ परक कमियों पर थोड़ा और ग़ौर करें । नीतियों के निर्वैयक्तिक निरीक्षण से जो नतीजे निकले हैं, उनका श्री आज़ाद ने , कई वैयक्तिक मामलों के उद्घाटन द्वारा विस्तारपूर्वक चित्रण कियाहै।इस किताब से ज़बरन ज़बर्दस्त असर पड़ता है कि उनके सहकर्मी छुद्र,विद्वेषी, ईर्ष्यालु,कुत्सित,तुच्छ और साधारण जीवन बिताने वाले आदमियों से भी कमतर थे ।

असल में कांग्रेसी नेता इतने तुच्छ आदमी नहीं थे,जितना उन्होंने दर्शाया है। इतने तुच्छ आदमी राष्ट्रीय मामलों में इतना बड़ा रोल कैसे अदा कर पाए ? मेरे पास कोई जवाब नहीं है । सिवाय इसके कि युग पुरुष की वशीकरण,चमत्कार और उसके संसर्ग का इन आदमियों पर असर पड़ा अन्यथा ये साधारण से भी कमतर आदमी थे।

भारत विभाजन के अपराधी

इस पर डॉ राम मनोहर लोहिया ने एक किताब- "भारत विभाजन के अपराधी" शीर्षक से लिखी भी । यह पुस्तक उन्होंने बहुत ग़ुस्से में लिखी है । क्योंकि उन्हें पूरा विश्वास था कि इसमें कांग्रेस के बड़े नेताओं ने ख़ासकर जवाहर-लाल नेहरू और सरदार पटेल ने सारे देश के साथ धोखा किया ।

उन्होंने गांधी को भी अंधेरे में रखा। सत्ता संभालने की उतावली में विभाजन को स्वीकार कर लिया । लोहिया के मुताबिक़ समिति की बैठक में गांधी के प्रति जवाहर लाल नेहरू पर रवैया तिरस्कार पूर्ण था। अपनी किताब भारत विभाजन के अपराधी में डॉक्टर राम मनोहर लोहिया ने लिखा है ,"कम्युनिस्टों के समर्थकों से पाकिस्तान नहीं पैदा हुआ , उन्होंने बहुत बुरा किया तो एक दाई का काम किया।"

मौलाना आज़ाद की अंग्रेज़ी किताब "इंडिया विन्स फ्रीडम" में भी विभाजन तक पहुँचाने वाली घटनाओं का विश्लेषण है । "भारत विभाजन के अपराधी" पुस्तक डॉक्टर लोहिया ने मौलाना अबुल कलाम की पुस्तक "इंडिया विंस फ्रीडम" की समीक्षा के बहाने लिखी है। डॉक्टर राम मनोहर लोहिया ने लिखा है कि आज़ाद ने बाल कथाओं की शैली अपनायी है ।

मौलाना आज़ाद की किताब में विवरण की सैकड़ों त्रुटियाँ हैं। सामयिक घटनाओं के दूसरे अनेक भारतीय लेखकों की तरह मौलाना आज़ाद हर कोने में एक नेपोलियन देखने की गलती करते हैं । वह शक पैदा करते हैं कि उन्होंने अपने आप को और लार्ड वेवल को असफल नेपोलियन और लार्ड माउंटबेटन को सफल काल का नेपोलियन माना । चरित्र रचना और आत्म कथाओं के लिखने में हमेशा यह ख़तरा रहता है।

लोहिया लिखते हैं , "जहाँ तक मुझे याद पड़ता है , जब श्री और श्रीमती चांग ताज महल देखने आगरा गए थे । तब हिंदुस्तान के वर्तमान प्रधानमंत्री कुतुब के चमन में सर के बल खड़े होकर चीन के विदेश मंत्री और उनकी पार्टी तमाशा दिखा रहे थे।"

कलाम के मुताबिक़ ऐसा लगता है कि सभी चीज़ें झट हो जाती हैं। हर घटना के पीछे कुछ असाधारण प्रयोजन है ।इस प्रकार हिंदुस्तान के विभाजन को ऐसे बताया गया है कि जैसे वो लार्ड माउंटबेटन के दिमाग़ से उपजा फल हो। सरदार पटेल को उसे चखने के लिए मना लेते हैं । यह उनकी पहली सफलता है ।

सरदार पटेल और अपनी पत्नी की मदद से लार्ड माउंटबेटन नेहरू को विभाजन योजना मानने के लिए तैयार कर लेते हैं । यह उनकी दूसरी सफलता है। उनकी तीसरी और चरम सफलता तब होती है, जब महात्मा गांधी भी मना लिये जाते हैं । मौलाना ने उस मोहनी या गुप्त विद्या को प्रकट करने की परवाह नहीं की है , जिससे गांधीजी भी बदल गये। जबकि सच्चाई है कि वे अकेले ही आख़िर तक विभाजन के विरोधी रहे । समूचा क़िस्सा बेलज्जत झूठ है । नेहरू पर लेडी माउंटबेटन का कुछ दुष्ट प्रभाव था।

सरदार पटेल:Photo - Social Media

इतने बरसों तक जो सामूहिक गप्प लड़ाई जा रही थी, उसे इतिहास बनाने की पहली कोशिश मौलाना आज़ाद ने की। ऐसे विवरणों से नेहरू को चाहे जितना तात्कालिक लाभ क्यों न हों , क्योंकि वह उन्हें प्रत्यक्ष पाप से मुक्त करते हैं। उन्हें सौंदर्य या माया का मारा जैसा प्रकट करते हैं , दूरदृष्टि से वह उनकी ख्याति का नाश ही करते हैं और राजनीतिक प्रक्रिया की गंभीर धाराओं को अछूता छोड देते हैं।

सामयिक गप्प लेडी माउंटबेटन को जो महत्व देती है वह कहीं इतिहास भी न दे दे। इसलिए यह याद कर लेना उचित होगा कि श्रीमती चांग काई शेक को भी लगभग ऐसा ही रोल दिया गया था । चीन की मैडम ने वास्तव में तत्कालीन ब्रिटिश वायसराय लिनलिथगो को थोड़ा सा दुखी और उत्तेजित किया था, इस लिए कि उसने अपने बाल मित्र की बरौनियों को इतना पसंद किया कि उनकी परवाह नहीं की।

इससे पहले के अवसर पर नेहरू ने ज़्यादा साधारण और ज़्यादा क्रांतिकारी औरतों से दोस्ती की थी । जैसे हिंदुस्तान और ब्रिटेन का ऐलन बिलकिंसन परिवार । मैं बिलकुल पक्के तौर पर कह सकता हूँ कि अगर श्रीमती ख्रुश्चेव आएं और वह रुचिर व संलाप प्रिय हों तो नेहरू उनके पीछे उसी तरह दौड़ते फिरंगे जैसे की उन दूसरी औरतों के पीछे वह दौड़ते फिरते थे।

इसमें कुछ ग़लत फ़हमी नहीं होनी चाहिए वे ऐसा तभी करेंगे, ज़ाहिर है, जब उनके अपने हिसाब से भारत राष्ट्र के मामले उन्हें मज़बूत करें। इसलिए इन दोस्ती पर कोई राजनीतिक अर्थ आरोपित करना अनुचित होगा। नेहरू में रईसों और औरतों के बहलावे में आ जाने का दुर्व्यसन है ,जो अपने आप में ग़ौर रूप से सही भी हो सकता है -इस सिद्धांत को प्रतिपादित करने के लिए मौलाना ने बचकाना सा क़िस्सा गढ़ा है कि प्रधानमंत्री माउंटबेटन परिवार के आने पर ही विभाजन के लिए राज़ी हुए ।

जबकि सच्चाई यह है कि माउंटबेटन परिवार के आगमन से पहले ही नेहरू विभाजन के मत के बन गए थे । इस संबंध में कोई निश्चित सुबूत नहीं है। लेकिन लोहिया लिखते हैं कि नोवाख़ाली में 1946 के आस पास नेहरू से अकेले में मेरी बात हुई थी । इसके लिए गांधीजी ने डॉ लोहिया को कुछ मजबूर कर दिया था । यहां उसी बातचीत का हवाला है। नेहरू ने पूर्वी बंगाल में सर्वत्र पानी , कीचड़ , झाड़ियों और पेड़ों की चर्चा की ।

उन्होंने कहा कि यह वह हिन्दुस्तान नहीं है जिसे मैं या तुम दोनों जानते हैं । नेहरू भारत देश से पूर्वी बंगाल को गर्म जोशी से काटकर अलग करना चाहते थे । यह बड़ी असाधारण बात थी। आदमी बहुत भावुक हो गया था । वे कुछ करने को कृत संकल्प थे ।अपने अंतश्चैतन्य की रही सही धीमी आवाज़ को शांत करने के लिए वे भूगोल के चिर स्थायी कारण खोज रहे थे ।

दूसरी परिस्थितियों में इन्ही कारणों से साबित किया जा सकता है कि गंगोत्री , यमुनोत्री से लेकर बंगाल की खाड़ी तक का इलाक़ा जुड़ा हुआ रहना ही ज़रूरी है । लेकिन एक बार तो देश की आज़ादी के लिए विभाजन की बात पहली शर्त बन गई , चाहे यह बात तब तक बहुत गोपनीय थी और महात्मा गांधी तक को भी नहीं बतायी गई। तभी तो पूर्वी बंगाल का भूगोल बहुत घृणित बन गया । लेकिन मुझे तो पूर्वी बंगालिन की प्रफुल्ल हँसी की दुनिया में कोई जोड़ा नहीं मिलता।

पंडित जवाहर लाल नेहरू: Photo - Social Media 

नेहरू ने अपने राजनीतिक मतलब के लिए लेडी माउंटबेटन का इस्तेमाल किया । इस स्थिति के अनुमान को उसके दूसरे पक्ष से जोड़ना ठीक होगा । लेडी माउंटबेटन और उनके लार्ड ने भी अपने राजनैतिक मतलब के लिए उसी तरह सीनियरों का इस्तेमाल किया । पारंपरिक लाभ के ऐसे रिश्तों में स्वभावत: कुछ कोमलता आ ही जाती है । कोमलता से बढ़कर कभी भी और कुछ था या नहीं , यह भविष्य के ऐसे अन्वेषकों के लिए उपयुक्त विषय है, जिन्हें दूसरे विषय नहीं मिलते और जो इतिहास की छोटी बातों और रोमांस को अपनी खोज के लिए चुनते हैं ।

भारत की जनता परिपक्वता को प्राप्त करें और ऐसी सामयिक गप पर अपना समय न बरबाद करें और न अपनी रुचि को भ्रष्ट करे, तो अच्छा होगा । ऐसा लगता है कि वे अपनी दोस्ती की राजनैतिक क़ीमत आंकते हैं और इससे बढ़कर उनके पास कोई आदर नहीं है।

यह बेहद बचकानी और बच्चों जैसी बात मौलाना करते हैं कि लॉर्ड माउंटबेटन की पूर्वाधिकारी लार्ड वेवल अधिकतम प्रांतीय स्वायत्त शासन की योजना बनाकर मुसीबत में पड़ गए थे और इसके बाद लॉर्ड माउंटबेटन ने ख़ुद की सूझ से विभाजन की योजना बनायी । इतिहास को ऐसे देख कर , जो रोल प्रधानमंत्रियों और बादशाहों का नहीं होता , उसे वायसरायों पर आरोपित किया गया है।

डॉ लोहिया का मानना है कि भारत के विभाजन का तीर बहुत लंबे अरसे से ब्रिटेन के इंडिया ऑफ़िस में ज़रूर तैयार रहा होगा। अन्य अनुभवी सरकारों और ब्रिटिश सरकारों के व्यवहार के ज्ञान के आधार पर मैं निस्संकोच इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि 1940 के लगभग जिन्ना ने जब उसके बारे में बोलना शुरू किया था उससे पहले से वह तैयार था।

वह कहते है, "मुझे श़क है कि जब लार्ड वेवल अधिकतम प्रांतीय स्वायत्त शासन की योजना कार्यान्वित करने का प्रयास कर रहे थे । तभी से विभाजन की योजना 1946 के शुरू में ही तय की जानी लगी । 1942 , आज़ाद हिंद फ़ौज , नौसेना का विद्रोह , सड़कों पर जन प्रदर्शन और शायद महात्मा गांधी के स्थायी सत्व से अंग्रेजों को यक़ीन हो गया था कि अब उन्हें जाना पड़ेगा।"

विभाजन की योजना ने हिंदुस्तान को नुक़सान पहुँचाया

हिंदुस्तान छोड़ने के बाद हिंदुस्तान से उन्हें ज़्यादा फ़ायदा हो ऐसी योजना बनाना और कार्यान्वित करना अंग्रेजों के लिए स्वाभाविक था । विभाजन की योजना ने हिंदुस्तान को इतना नुक़सान पहुँचाया जितना दूसरी कम ही चीज़ें ने पहुँचाया। हिन्दुस्तान की ज़मीन पर ब्रिटिश साम्राज्यवाद का यह आख़िरी और सबसे ज़्यादा शर्मनाक काम था जैसे जैसे समय बीतेगा , विभाजन के अमिट कलंक के सामने स्वेच्छया स्वतंत्रता दे देने की मिथ्या महिमा ध्वस्त हो जाएगी।

विभाजन के पाप कर्म से जिन आदमियों की आत्मा तब दग्ध चाहिए थी , वे अपनी अपकीर्ति की गंदगी में कीटवत मज़ा ले रहे थे । वे दुराचरण की तह में गिरते ही जाएंगे । आज मुझे बहुत दुख है कि जब हमारे इस महान देश का विभाजन हो रहा था तब एक भी आदमी उसका प्रतिकार करते हुए मरा नहीं या जेल नहीं गया। भारत के विभाजन पर मैं जेल क्यों नहीं किया इसका मुझे बेहद अफ़सोस है।

भारत के बँटवारे का सच: Photo - Social Media

अपने पूर्वजों की सतत नपुंसकता से मुझे दुख हुआ है । अक्सर मुसलमान, पहली हिंदू थे। इसे भी हमें नहीं भूलना चाहिए । बहुत सी बातों में हिंदुस्तान का जो इतिहास रहा है अगर हिंदू और मुसलमान दोनों उसे दुख मानकर बाँट लें तो वह पाप जिसके कारण विभाजन हुआ कम हो जाएगा । लोहिया ने लिखा है कि मुझे बहुत दुख है कि जब हमारे इस महान देश का विभाजन हो रहा था तब एक भी आदमी उसका प्रतिकार करते हुए मरा नहीं या जेल नहीं गया। भारत के विभाजन पर मैं जेल क्यों नहीं किया इसका मुझे बेहद अफ़सोस है।

लोहिया के मुताबिक़ पटेल के ख़िलाफ़ सबसे बड़ी झूठ कही जाती है उसका ज़िक्र कर देना ज़रूरी है । महात्मा गांधी ने पटेल को कांग्रेस अध्यक्ष की गद्दी नहीं दी थी । असल में उन्होंने पिछले साल यह गद्दी उनको न मिलने दी थी । लाहौर कांग्रेस की अध्यक्षता के लिए जिसमें पूर्ण स्वतंत्रता का प्रस्ताव पास हुआ था । पटेल को नेहरू से ज़्यादा वोट मिले थे । पर गांधीजी ने उनको अपना नाम वापस लेने के लिए मना लिया था। ख़ासतौर पर निज के पद और पसंदगी के मामलों में कहाँ गांधीजी मानते थे और कहाँ दबाते थे इसका निश्चय करना मुश्किल है।

अपनी अमेरिकी यात्रा का ज़िक्र करते हुए लोहिया ने लिखा है कि उस शाम वहाँ तारकनाथ दास का भाषण हुआ था। वे पुराने देशभक्त थे, जिन्हें ब्रिटिश सरकार ने देश निकाला दिया था । बाद में उन्होंने लोहिया को भी भाषण पिलाया। दास स्वतंत्र भारत नहीं लौटे थे । और अपनी धवल केश राशि के बावजूद उनमें बंगालियों की पुरानी आग बनी हुई थी ।

उनका विचार था देश के विभाजन के लिए कांग्रेस को तैयार करने के कारण नेहरू देश द्रोही थे। उन्होंने लोहिया को बताया कि वे जानते हैं कि सोशलिस्ट ने और गांधी ने विभाजन का विरोध किया था । और वोट के समय वे अनुपस्थित रहे थे । लेकिन उन्होंने सोशलिस्टों पर आरोप लगाया कि वे इस बात को लेकर जनता के बीच नहीं गए। इस त्रासदी को रोकने की उन्होंने कोशिश नहीं की।

( लेखक पत्रकार हैं।)

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