Women Empowerment in Media: भारतीय मीडिया और महिलाओं की स्थिति
Women Empowerment in India Media House: 2019 की एक सर्वे रिपोर्ट बताती है कि समाचार चैनलों, डिजिटल मीडिया आउटलेट्स, पत्रिकाओं के 20 से 26 प्रतिशत नेतृत्व वाले पदों पर हीं महिलाएं थीं।;
Women Empowerment in India Media Houses
Women in India Media Houses: पिछले एक महीने में दो बार छात्रों विशेषकर लड़कियों से संवाद करने का अवसर मिला। नई शिक्षा नीति के कारण उन्हें 'पत्रकारिता' भी एक विषय के रूप में पढ़ना हो रहा था। अलग-अलग विद्यालयों के ये छात्र अपने कोर्स की किताबों के माध्यम से पत्रकारिता और अखबारों के बारे में पढ़ रहे थे और उन्हें उसके बारे में थोड़ी बहुत जानकारी थी। लेकिन एक मूर्त रूप में अखबार की कार्यशैली को देखना उनके लिए एक एकदम अलग अनुभव था। मैंने उनमें से कुछ लड़कियों के चेहरे पर एक चमक देखी। यह चमक किसी फेशियल के ग्लो की नहीं थी, न ही किसी मेकअप की थी। यह चमक थी आशा की, यह चमक थी कुछ बनने की चाहत की, यह चमक थी सपनों को देखने और उनका पूरा करने की इच्छा की। उनके मन की उर्वरा मिट्टी में उनके द्वारा भविष्य के सपने गढ़ने की इच्छा के बीज बोऐ जा रहे थे। ऐसा सोचना हर किसी के बस की बात नहीं भी नहीं , उन्हें पूरा कर पाना तो और भी किसी के बस की बात नहीं होती। किसी आवेग में बह जाना और एक सपने को देख लेना और बात होती है और दृढ़ निश्चय करके किसी बहाव में मजबूती के साथ बहना और एक सपने को देखना अलग बात होती है।
उनमें से कोई समाचार पत्रों की कार्यशैली जानना चाहती थी तो कोई एक अच्छे वक्ता के रूप में खुद को स्थापित करना चाहती थी। किसी को हिंदी से प्रेम था तो किसी का लक्ष्य तो निश्चित नहीं था पर कुछ बनना है, यह वह जरूर चाहतीं थीं। कोई अंतर्मुखी थी, तो कोई बात करने में पहल करने वाली। कोई चुप थी तो किसी की अधीरता उसके क्रियाकलापों से ही झलक रही थी। कोई बहुत कुछ जानना चाहती थी तो कोई चुपचाप सब सुन लेना चाहती थी। किसी को कहानी लिखने का शौक था तो किसी को अपनी इच्छाओं के बारे में कुछ भी नहीं पता था। उन्हें इस तरह से देखकर मुझे स्वयं के 35 साल पहले के दिन याद आ गए, जब दूरदर्शन पर किसी कार्यक्रम को देखकर या समाचारों की महिला एंकर और गिनती की पैनालिस्ट को देखकर खुद को वैसे ही बोलते देखने की इच्छा होती थी। अखबार की खबरों को पढ़कर उसके प्रति एक आकर्षण का भाव रहता था कि काश कभी इस तरह से लिख पाएं या बोल पाएं और टीवी पर दिखाई दें। दरअसल जब हम एक सपना देखते हैं, हम एक इच्छा को अपने अंदर समेट लेते हैं, उसका बीज बोते हैं तब कहीं न कहीं उस अच्छे सपने में प्रकृति भी हमारा साथ देती है। और इसके लिए समय की कोई सीमा नहीं होती बल्कि हमें अपने काम को करते रहने की सीमा रखनी चाहिए। कभी ना कभी यह सपना फलित होता है। मैं उन लड़कियों में खुद को ही खोज रही थी कि इनमें से कोई कुछ सालों के बाद में शायद एंकर बने, शायद पत्रकारिता करें, कहीं अखबार के लिए या मीडिया के लिए कुछ रचनात्मक, सृजनात्मक, गंभीर मुद्दों पर अपनी बात कहना सीख पाएं। यह सब भविष्य की मुट्ठी में बंद है। जब यह मुट्ठी खुलेगी तब मालूम पड़ेगा कि इनमें से कितनी लड़कियों ने अपने सपनों को साकार करने की तरफ कदम आगे बढ़ाएं।
जब हम वर्तमान स्थिति की बात करते हैं तब भारतीय मीडिया में सन् 2019 की एक सर्वे रिपोर्ट बताती है कि समाचार चैनलों, डिजिटल मीडिया आउटलेट्स, पत्रिकाओं के 20 से 26 प्रतिशत नेतृत्व वाले पदों पर हीं महिलाएं थीं। जबकि समाचार पत्रों में कोई भी नहीं। महिलाओं द्वारा विभिन्न विषयों पर अंग्रेजी समाचार पत्रों में अधिक लेख भी लिखे गए और प्रथम पृष्ठ पर प्रकाशित हुए बनस्पत हिंदी समाचार पत्रों के। राजनीति, राष्ट्रीय सुरक्षा और खेल जैसे विषयों पर हिंदी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं के अखबारों में महिलाओं द्वारा लिखे गए लेखों का प्रतिशत और भी कम था। यह और भी निराशाजनक आंकड़ा था कि मात्र 3% लेखों में लैंगिक मुद्दों पर चर्चा की गई। समाचार पत्रों में भी संपादकीय समेत विभिन्न पृष्ठों पर आते लेखों में 75% से भी अधिक पुरुषों द्वारा लिखे गए होते हैं। कोविड के बाद से महिला पत्रकारों की संख्या में और भी गिरावट आई है। दरअसल कोविड में नौकरी छूट जाने, वर्क फ्रॉम होम की परेशानियों और फिर वापस से नई तरह से काम को प्रारंभ करना बिल्कुल भी आसान नहीं होने के कारण प्रिंट मीडिया, टी.वी., रेडियो में महिला पत्रकारों की संख्या कम हो गई। मीडिया पर टॉक शो या विचार विमर्श या बहसों में भी महिला पैनलिस्ट की संख्या मात्र उपस्थिति दिखाने जितनी ही होती है।
भारत के मीडिया और मनोरंजन क्षेत्र में लैंगिक असमानता स्पष्ट रूप से देखी जा रही है। डिजिटल मीडिया में शीर्ष पदों पर महिलाओं की संख्या 38.89 %, अंग्रेजी अख़बारों में 14.71 %, वहीं हिंदी अखबारों में यह संख्या सिर्फ 9.68% है। अगर मैगजीन की बात करें तो यहां महिलाओं की भागीदारी सिर्फ 10.71 प्रतिशत है। पिछले साल की तुलना में महिलाओं के प्रतिनिधित्व में यह मामूली गिरावट आई है। इस के कारणों की तलाश की जानी चाहिए और महिलाओं को, लड़कियों को इस क्षेत्र में आगे लाना चाहिए, आगे आना चाहिए। दरअसल कहीं न कहीं हमारे समाज की एक सोच भी नकारात्मक काम करती है कि अगर लड़कियां या महिलाएं मीडिया के क्षेत्र में जाती हैं है तो वे कुछ अधिक मुखर हो जाती हैं और कुछ अधिक स्वतंत्र हो जाती हैं। शायद वहां पर काम करने को लेकर बनी गलत भ्रांतियों के कारण इस तरह की सोच पैदा होती है। और कहीं न कहीं एक डर भी होता है उनकी सुरक्षा को लेकर और राजनीतिक विषयों पर विशेषकर लिखने को लेकर। जैसा कि अभी दो महिला पत्रकारों द्वारा एक वीडियो जारी करने को लेकर, जेल भेजे जाने का समाचार आया ही है। फिर भी हम सभी को इन परिवर्तनकारी प्रयासों को तेज करना चाहिए। भले ही छोटे-छोटे कदम ही उठाएं, एक ऐसी साहसिक दुनिया की ओर जहां अवसर और प्रतिभा परिभाषित होती है। महिलाओं की संख्या बढ़ी है लेकिन अभी और बढ़नी चाहिए, इसको लेकर हमें कोशिश करनी चाहिए।
भविष्य को गढ़ने के लिए वर्तमान से ही प्रयास किए जाने चाहिए। छोटी-छोटी कार्यशालाएं और सेमिनार कॉलेजों में किए जाते रहने चाहिए, तभी लड़कियां भविष्य में मीडिया क्षेत्र में आएंगी।
( लेखिका वरिष्ठ स्तंभकार हैं।)