Vinod Kumar Shukla Poetry: विनोद कुमार शुक्ल के बहाने

Vinod Kumar Shukla Poetry: 'जी दुखता है तो खिड़की बंद कर लेनी चाहिए. अकेलेपन में कोई आएगा की राह देखने के बदले किसी के पास चले जाना चाहिए.';

Update:2025-03-30 20:19 IST

Vinod Kumar Shukla Poetry

Vinod Kumar Shukla Poetry: 59 वां ज्ञानपीठ पुरस्कार हिंदी के प्रसिद्ध हस्ताक्षर विनोद कुमार शुक्ला को प्रदान किए जाने के घोषणा के बाद से गंगा, ब्रह्मपुत्र, नर्मदा, गोदावरी समेत देश की तमाम नदियों में न जाने कितना पानी बह चुका है. सोशल मीडिया और देश के तमाम हिंदी अखबार, पत्र,पत्रिकाएं विनोद कुमार शुक्ल पर अपनी‌‌ -अपनी सुखद प्रतिक्रियाएँ लिखकर शांत बैठ चुकें हैं. पुरस्कार प्राप्ति की घोषणा के बाद इस मुर्धन्य कवि ने अपनी पहली प्रतिक्रिया में कहा कि उन्होंने जितना लिखा वह अब भी कम है और उनका यह मानना है कि अब उनके पास समय कम है और लिखने के लिए अभी भी बहुत कुछ बाकी है।

22 मई, 1961 को साहू शांति प्रसाद जैन के 50वें जन्मदिन के अवसर पर स्थापित भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार देश की 22 भाषाओं के श्रेष्ठ साहित्य को प्रतिवर्ष प्रदान किया जाता है। हिंदी भाषा के लिए पहला ज्ञानपीठ पुरस्कार प्रसिद्ध साहित्यकार सुमित्रानंदन पंत को दिया गया था और विनोद कुमार शुक्ल हिंदी भाषा के 12वें साहित्यकार हैं जिन्हें यह पुरस्कार प्रदान दिए जाने की घोषणा की गई है। आधी सदी से ज्यादा की अपने लेखन यात्रा में विनोद कुमार शुक्ला ने गद्य और पद्य दोनों लिखे और अत्यधिक प्रसिद्धि प्राप्त की। वह खूब पढ़े गए फिर भी बहुतों तक नहीं पहुंच पाए या पढ़े जा पाए। प्रकाशक द्वारा उनको कम रॉयल्टी देने के मामले ने साहित्य जगत में एक हलचल और बहस पैदा कर दी थी।


विनोद कुमार शुक्ला को पढ़ना अर्थात उनकी अभिव्यक्ति को बड़े ही आसान शब्दों में समझना होता है। उनकी कविताएं उनका लेखन इतना स्वाभाविक है, इतना मौलिक है कि पढ़ने वाला यह समझ ही नहीं पाता कि इतने सरल शब्दों में भी कविता या गद्य पढा और लिखा जा सकता है। उनके लेखन में कहीं भी यह बात नहीं आती है कि उसमें कहीं कोई बनावटीन हो या अनावश्यक रूप से और थोपने वाले तरीके से तत्सम और विशेषण शब्दों का प्रयोग किया गया हो। गहन मानवीय अर्थों को कह देने वाली उनकी कविताएं दरअसल कविता नहीं होती बल्कि वे उनके अनुभवों को अपने शब्दों में कह देने का हौसला रखती हैं, जिससे कि वह पढ़ने वाले को छू जाती हैं।छायावादी कवियों की तरह उनके लेखन में कहीं भी बौद्धिकता नहीं है, न ही रचनाधर्मिता के गूढ़ रहस्य दिखाई देते हैं। इसीलिए उनकी कविताएं आज की युवा पीढ़ी को जरूर पढ़नी चाहिए, उनके लेखन को जरूर पढ़ना चाहिए, जिससे कि उन्हें पता रहे कि सिर्फ शब्दों का सौंदर्य बोध ही कविता नहीं होता। छंदों का बेहतरीन प्रयोग ही कविता नहीं होता बल्कि जो छंदों से मुक्त कर दे, तुकबंदी ना रहे वह भी कविता होती है।मात्र तुकबंदी कभी भी कविता नहीं होती। ऐसा लगता है किसी कविता को पढ़कर या गद्य को पढ़कर कि वे बहुत सारे सुंदर शब्दों का एक ढांचा मात्र है उनमें सजीवता नहीं है बल्कि वे एक निर्जीव, सुंदर शोपीस की भांति है। साहित्य वह अमर होता है जिसको पढ़ने और लिखने के लिए बहुत सारे प्रयुक्त शब्दों को ढूंढना नहीं पड़ता बल्कि हम क्या कहना चाहते हैं, वह उन शब्दों में ही निकल कर आ जाता है। साहित्य संवेदना की यात्रा करता है और उसके साथ में वह विचारों की भी यात्रा करता है और अनुभव की यात्रा करता है।अगर उसमें यह सब नहीं है तो वह रचना साहित्य का अवमूल्यन कर देती है।


विनोद कुमार शुक्ला का मानना है कि लिखना एक नशे की जैसे होता है, एक आदत होता है। कभी लिखने की इच्छा होती है और कभी-कभी लिखने की इच्छा नहीं भी होती है लेकिन जिसको लिखने की आदत पड़ जाती है तो यह सिर्फ आदत नहीं होती बल्कि अपने आप को, अपने अभिव्यक्ति को खोजने की और अपनी बात कहने की भी एक कोशिश होती है।और हर बार कुछ लिखना एक नएपन का ही एहसास कराता है और इस लिखने में मौलिकता को बचाकर रखना हमेशा बहुत जरूरी होता है। सबसे बड़ी बात यह है कि हम जो लिखते हैं, उसमें हम क्या पढ़ते हैं उसका अक्स हमेशा नजर आता है और अगर हम कुछ अच्छा नहीं पढ़ते या नहीं पढ़ने की कोशिश करते हैं तो यह लेखन के क्षेत्र में पिछड़ने वाला कार्य होता है।इन सबसे बढ़कर यह जरूरी है कि हम जल्दबाजी में ना लिखें। आदत के कारण ही लिखना ज्यादातर अर्थ को चुनौती देता है। अंत में क्या किसी साहित्यिकार के कमाने की क्षमता से ही उसका सही मूल्यांकन संभव है?

(लेखिका वरिष्ठ स्तंभकार हैं।)

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