कांग्रेस न बदली है, न बदलेगी !

कांग्रेस को इतने दशक हो गए फिर भी न ढांचा बदला न नेतृत्व। वैसा ही है जैसा नवम्बर 1978 में था। एक सियासी आँधी आयी थी।;

Update:2025-03-20 20:49 IST

Congress News (Image From Social Media)

कांग्रेस को इतने दशक हो गए फिर भी न ढांचा बदला न नेतृत्व। वैसा ही है जैसा नवम्बर 1978 में था। एक सियासी आँधी आयी थी। रायबरेली में जख्मी होकर, इंदिरा गांधी चिकमगलूर (कर्नाटक) से चुनाव जीती थीं। कवि श्रीकांत वर्मा, (पहले लोहियावादी, बाद में फिर इंदिराभक्त) ने कारगर नारा गढ़ा था, “एक शेरनी सौ लंगूर, चिकमगलूर-चिकमगलूर।” जो बयार थी, बवंडर बन गयी। तुर्रा यह कि जनता पार्टी वाले उनके हरीफ थे पूर्व कांग्रेसी मुख्यमंत्री वीरेन्द्र पाटिल जो हारकर फिर इंदिरा कांग्रेस में भरती हो गये थे। आया राम गया राम जैसा।

इस उपचुनाव के उपसंहार में आपातकाल से उपजा गैरकांग्रेसवाद बारह बरस तक दफ़न हो गया| दो प्रधानमंत्री क्रमशः फर्श पर आ गये। तीन कांग्रेस अध्यक्ष बेदखल हो गये। दो कांग्रेसी विपक्ष के नेता पैदल हो गये। इंदिरा गांधी ने दो साल में ही यह सारा काम तमाम कर डाला। यह घटना विश्व संसदीय इतिहास में बेजोड़ है। कालखंड था सन 78 की दीपावली से चौदह माह बाद मकर संक्रांति (14 जनवरी 1980) तक का।

तनिक सिलसिलेवार गौर कर लें। रायबरेली के मतदाताओं के कम्पायमान वोट (20 मार्च 1977) के ढाई माह बाद राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष पद का मतदान हुआ। सिधार्थ शंकर राय और देवकांत बरुआ (‘इंदिरा ईज इंडिया’ के रचयिता) ने जुगलबंदी की। मगर इंदिरा गांधी के प्रत्याशी कासु ब्रम्हानन्द रेड्डी (3 जून 1977) जीते। राय हर गये। नरेंद्र मोदी की याद को दुरुस्त कर दूँ। रेड्डी के निर्वाचन के सत्ताइस साल पूर्व राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन बनाम आचार्य जेबी कृपलानी के चुनाव में वोट पड़े थे| फिर वोट कभी भी पड़े ही नहीं। जब सीताराम केसरी पार्टी मुखिया (1996) बने तो सोनिया गांधी ने उन्हें सशरीर कार्यालय से उखाड़ डाला था। खुद बन गयी थीं बिना मतदान के। उधर ब्रम्हानन्द रेड्डी के तेवर ढीले करने हेतु इंदिरा गांधी ने (1978) में डी. देवराज अर्स को अध्यक्ष नामांकित कर दिया। रेड्डी की पार्टी को रद्दी कांग्रेस कहकर अंत्येष्टि कर दी। देवकांत बरुआ तथा देवराज अर्स कब आये, कहाँ गये, कांग्रेस की किताब देखनी पड़ेगी। आम कांग्रेसी ने पार्टी निर्वाचन के मतपत्र देखे अरसा गुजार दिया। छठी लोकसभा में पहली बार (मार्च 1977) में इंदिरा गांधी की हार के बाद कांग्रेस पार्टी के नेता यशवंत चव्हाण बने। अर्थात पहली बार 1967 में कांग्रेस विभाजन के बाद से लोक सभा में मान्यताप्राप्त नेता विपक्ष बना था। डॉ. रामसुभग सिंह कुछ समय के लिए चौथी लोकसभा में बने थे। अर्थात लोकसभा के सात दशकों में केवल दो बार ही मान्यता प्राप्त विपक्ष था। मल्लिकार्जुन खड्गे विपक्ष में थे पर मान्य नेता नहीं थे।

दो प्रधानमंत्री हुए थे। इंदिरा ने दोनों को अपदस्थ कर दिया था। मोरारजी देसाई थे डेढ़ साल तक। फिर चरण सिंह कांग्रेस के झांसे में आ गये। प्रधान मंत्री की शपथ ली पर बहुमत साबित करने के पूर्व ही चल दिये। तब मुंबई के साप्ताहिक धर्मयुग ने संसद भवन और चरण सिंह की फोटो एक ही पृष्ठ पर छापकर शीर्षक दिया था, “बिन फेरे, हम तेरे।”

चिकमगलूर उपचुनाव जीतकर इंदिरा गांधी ने चव्हाण को हटाकर खुद नेता विपक्ष बनने का प्रयास किया। चव्हाण ने नहीं माना तो उन्हें हकाल दिया गया। किस्मत थी कि चरण सिंह ने उन्हें उपप्रधानमंत्री बना दिया। मगर नाखुश इंदिरा गांधी ने अपने अलमबरदार केरल के वकील और श्रमिक नेता सीयम स्टीफन को नेता विपक्ष बना दिया। कूछ माह तक वे चले। दिल्ली में इतना उलटफेर करने से भी इंदिरा गांधी नहीं अघायी तो गऊपट्टी वाले प्रदेशों के जनता पार्टी वाले मुख्यमंत्रियों को दरबदर कर दिया। तब लखनऊ में टाइम्स ऑफ़ इंडिया के संवाददाता के नाते मैं नारायणपुर (देवरिया जनपद) में पुलिसिया बलात्कार की रिपोर्टिंग के लिये (13 जनवरी 1980) गया था। प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी जांच करने आयीं थीं। तब के अनधिकृत प्रधानमंत्री संजय गांधी नारायणपुर का दौरा कर चुके थे। बयान भी दिया था कि, “नारायणपुर की हर युवती तथा स्त्री का बलात्कार हो चुका है”। शादी होना मुश्किल पड़ गया था।

प्रधानमंत्री की देवरिया में प्रेस कोन्फ्रेंस हुई। मैंने पूछा, “इंदिरा जी, क्या बाबू बनारसी दास की सरकार को बर्खास्त करेंगी ?” उनका जवाब नहीं, वरन सवाल था, “क्या उन्हें सत्ता में रहने का अधिकार है ?” लखनऊ लौटकर मैंने मुख्यमंत्री, उनके मंत्री मुलायम सिंह यादव, बेनी प्रसाद वर्मा आदि को बता दिया था कि प्रस्थान की बेला आ गयी है।

डेढ़ दशकों तक इंदिरा गांधी की रिपोर्टिंग करके मुझे अनुभव हो गया था कि जब वे सवाल का जवाब सवाल में देती हैं और दायीं कनखी झपकाती है, तो निहितार्थ “हाँ” में होता है। फिर सर्वविदित है कि कोई भी महिला है कभी भी सीधे “हाँ” नहीं कहती है।

K Vikram Rao

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