Bhagavad Gita Adhyay First: भगवद्गीता - अध्याय - 1 श्लोक (अर्जुन उवाच)
Bhagavad Gita Adhyay First: र्जुन पांडव पक्ष में यह संकेत देना चाहता था कि देखो ! अर्जुन कितना निर्भीक, साहसी और पराक्रमी है कि अपने पक्ष को छोड़कर युद्ध के पूर्व ही शत्रु पक्ष की ओर अकेला ही बढ़ रहा है।
Bhagavad Gita Adhyay First:
सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत।।२१।।
सरलार्थ - हे अच्युत ! मेरे रथ को दोनों सेनाओं के बीच में खड़ा कीजिए।
निहितार्थ - भगवद्गीता के अंतर्गत अर्जुन ने पहली बार इसी श्लोक के माध्यम से अपनी वाणी को प्रकट किया है। अर्जुन अपना वक्तव्य आदेश के रूप में रखता है। आदेश देने वाला अधिकारी होता है तथा आदेश का पालन करने वाला अधिकारी के अधीनस्थ उसका सेवक होता है। अर्जुन तो स्वयं को ही पांडव सेना का सर्वे सर्वा समझता है। अत: किसी से सलाह लिए बिना अर्जुन सारथी को आदेश दे देता है। अर्जुन को तो अपने सेनाध्यक्ष धृष्टद्युम्न से परामर्श लेकर उसके निर्देशन में कदम उठाना चाहिए अथवा श्रीकृष्ण से सलाह लेकर ही निर्णय लेना चाहिए था। परंतु , अर्जुन ने ऐसा कुछ भी नहीं किया।
अर्जुन का आदेश भी अद्भुत है। अपने सारथी को अर्जुन ने कहा कि मेरे रथ को उभय यानी दोनों सेनाओं के मध्य ले चलें। यदि अर्जुन को स्वयं दोनों पक्षों के बीच जाना ही था, तो वह अकेले पैदल ही जा सकता था, लेकिन वह अकेले नहीं गया। इसका विशेष कारण है। अर्जुन बाहर से यह दिखाने का प्रयास कर तो रहा है कि वह कितना निर्भीक है ! पर भीतर से, वह भयभीत है। इसलिए वह श्री कृष्ण सहित जाना चाहता है ताकि कोई संकट पड़े तो उसकी रक्षा करने के लिए भगवान श्रीकृष्ण सर्वदा उसके साथ तत्पर रहें।
अर्जुन पांडव पक्ष में यह संकेत देना चाहता था कि देखो ! अर्जुन कितना निर्भीक, साहसी और पराक्रमी है कि अपने पक्ष को छोड़कर युद्ध के पूर्व ही शत्रु पक्ष की ओर अकेला ही बढ़ रहा है। दुर्योधन ने तो स्पष्ट रूप से द्रोणाचार्य को यह कह दिया था कि पांडवों की सेना भीम द्वारा संरक्षित है - इस धारणा को तोड़ने के लिए अर्जुन ने श्रीकृष्ण को रथ आगे बढ़ाने को कहा ताकि सभी यह देखें कि वास्तव में अर्जुन पांडव सेना का संरक्षक है।
दुर्योधन अपने पक्ष में रहकर ही विपक्ष का निरीक्षण कर उसका विवरण द्रोणाचार्य के समक्ष प्रस्तुत किया था। अर्जुन अपने पक्ष में रहकर दोनों पक्षों का आकलन कर पाने में असमर्थ है, तभी वह दोनों पक्षों के बीच जाने की बात कर रहा है। जब हम दोनों पक्षों के बीच में चले जाते हैं, तो किसी पक्ष विशेष का प्रभाव नहीं पड़ता। समान दूरी पर रहने के कारण दोनों पक्षों के प्रभाव का उदासीनीकरण ( न्यूट्रलाइजेशन ) हो जाता है। तब वहां से देखने पर दोनों पक्ष अपने अलग रूप में दिखने लगते हैं। क्योंकि मध्य में रहने वाला किसी भी पक्ष का न होकर उभयपक्षी हो जाता है। अतः उसे दोनों पक्ष एक समान ही दिखने लगते हैं। वास्तव में तभी सही अर्थों में दोनों पक्षों का निष्पक्ष आकलन होता है।
अर्जुन का श्री कृष्ण के प्रति पहला संबोधन है - अच्युत, तो अर्जुन का अंतिम संबोधन भी १८वें अध्याय के ७३वें श्लोक में अच्युत ही है। अर्जुन यह शब्द कह कर दो बातों को इंगित कर रहा है। पहला, श्रीकृष्ण तुम तो पतित नहीं हो सकते, तुम तो अच्युत हो अर्थात् सर्व विकारों से रहित हो। दूसरा, मैं किंतु अच्युत नहीं हूं अर्थात् अर्जुन अपने को च्युत घोषित कर रहा है। अर्जुन अपने मानसिक दशा का प्रथम प्रकटीकरण यहीं से शुरू करने जा रहा है।
अर्जुन यदि गिरता है, तो उसके उसको ऊपर उठाने की जिम्मेवारी श्री कृष्ण पर ही है। वह केवल " अच्युत " शब्द के संबोधन से ही इस भाव को प्रकट कर रहा है। जब अर्जुन ने श्रीकृष्ण को आदेश दिया, तभी वह गिर चुका है। इसलिए जिस वाक्य में उसने श्रीकृष्ण को निर्देश दिया, उसी में श्रीकृष्ण को "अच्युत" कहकर उनकी महानता को तथा अपनी दुर्बलता एवं मलिनता को स्वीकार भी कर लिया।
(श्री भगवद्गीता शास्त्र फेसबुकपेज से साभार)