Shri Ram Ki Katha: हे रामजी! सुनिये, अब में वे स्थान बताता हूँ जहां आप सीताजी और लक्ष्मण जी समेत निवास करिये

Bhagwan Shri Ram Ki Katha: उन लोगों के हृदय रूपी सुखदायी भवनो में आप भाई लक्ष्मणजी और सीताजी सहित निवास कीजिये। आपके यशरूपी निर्मल मानसरोवर में जिसकी जीभ हंसिनि बनी हुई आपके गुण समूहरूपी मोतियों को चुगती रहती हैं, हे रामजी! आप उनके हृदयँ में बसिये।

Written By :  Sankata Prasad Dwived
Update:2023-12-03 16:30 IST

Bhagwan Shri Ram Ki Katha: जिनके कान समुद्र की भाँति आपकी सुन्दर कथारूपी अनेकों सुन्दर नदियों से निरन्तर भरते रहते हैं, परन्तु कभी पुरे ( तृप्त ) नहीं होते, उनके हृदय आपके लिये सुन्दर घर है और जिन्होंने अपने नेत्रों को चातक बना रखा है, जो आपके दर्शनरूपी मेघ के लिये सदा लालायित रहते हैं, तथा जो भारी-भारी नदियों, समुद्रों और झीलोँ का निरादर करते है और आपके सौन्दर्य ( रूपी मेघ ) के एक बूंद जल से सुखी हो जाते हैं ( अर्थात आपके दिव्य सच्चिदानन्दमय स्वरूप के किसी एक अङ्गकी जरा-सी भी झांकी के सामने स्थूल, सूक्ष्म और कारण तीनों जगत के, अर्थात पृथ्वी, स्वर्ग और ब्रह्मलोक तक के सौन्दर्य का तिरस्कार करते हैं ), हे रघुनाथजी!

वाल्मीकि जी ने बताया राम जी का निवास स्थान में यह सब जोड़ दें। नीचे से।

सुनहु राम अब कहउँ निकेता ।

जहाँ बसहु सिय लखन समेता ।।

जिन्ह के श्रवण समुद्र समाना ।

कथा तुम्हारि सुभग सरि नाना ।।

भरहीं निरंतर होहिं न पूरे ।

तिन्ह के हिय तुम्ह कहुँ गृह रूरे ।।

लोचन चातक जिन्ह करि राखे ।

रहहिं दरस जलधर अभिलाषे ।।

निदरहिं सरित सिंधु सर भारी ।

रूप बिंदु जल होहिं सुखारी ।।

तिन्ह कें हृदय सदन सुखदायक ।

बसहु बंधु सिय सह रघुनायक ।।

जसु तुम्हार मानस बिमल हंसिनि जिहा जासु ।

मुकताहल गुन गन चुनइ राम बसहु हियँ तासु ।।

(मानस २/१२७/३-८; १२८)

उन लोगों के हृदय रूपी सुखदायी भवनो में आप भाई लक्ष्मणजी और सीताजी सहित निवास कीजिये। आपके यशरूपी निर्मल मानसरोवर में जिसकी जीभ हंसिनि बनी हुई आपके गुण समूहरूपी मोतियों को चुगती रहती हैं, हे रामजी! आप उनके हृदयँ में बसिये।

प्रभु प्रसाद सूचि सुभग सुबासा ।

सादर जासु लहइ नित नासा ।।

तुम्हहि निबेदित भोजन करहीं ।

प्रभु प्रसाद पट भूषन धरहीं ।।

सीस नवहिं सुर गुरु द्विज देखी ।

प्रीति सहित करि बिनय बिसेषी ।।

कर नित करहिं राम पद पूजा ।

राम भरोस हृदयँ नहिं दूजा ।।

चरन राम तीरथ चलि जाहीं ।

राम बसहु तिन्ह के मन माहीं ।।

मंत्रराजु नित जपहिं तुम्हारा ।

पूजहिं तुम्हहिं सहित परिवारा ।।

तरपन होम करहिं बिधि नाना ।

बिप्र जेवाँइ देहिं बहु दाना ।।

तुम्ह तें अधिक गुरहि जियँ जानी ।

सकल भायँ सेवहिं सनमानी ।।

सबु करि मागहिं एक फलु राम चरन रति होउ ।

तिन्ह केँ मन मंदिर बसहु सिय रघुंनदन दोउ ।।

( मानस २/१२८/१-१६; १२९)

जिसकी नासिका प्रभु (आप) के पवित्र और सुगन्धित ( पुष्पादि ) सुन्दर प्रसादको नित्य आदर के साथ ग्रहण करती ( सूँघती ) हैं, और जो आपको अर्पण करके भोजन करते हैं और आपके प्रसादरूप ही वस्त्राभूषण धारण करते हैं; जिनके मस्तक देवता, गुरु और ब्राह्मणों को देखकर बडी नम्रताके साथ प्रेमसहित झुक जाते हैं; जिनके हाथ नित्य श्रीरामचन्द्रजी ( आप ) के चरणों की पूजा करते हैं, और जिनके हृदय में श्रीरामचन्द्रजी ( आप ) का ही भरोसा है, दूसरा नहीं तथा जिनके चरण श्रीरामचन्द्रजी ( आप ) के तीर्थों में चलकर जातें है; हे रामजी !*

आप उनके मन में निवास कीजिये । जो नित्य आपके ( राम नाम रूप ) मंत्रराजको जपते हैं और परिवार ( पर्रिकर ) सहित आपकी पूजा करते हैं; जो अनेकों प्रकार से तर्पण और हवन करते हैं, तथा ब्राह्मणों को भोजन कराकर बहुत दान देते है; तथा जो गुरुको हृदयँ में आपसे भी अधिक ( बड़ा ) जानकर सर्वभाव से सम्मान करके उनकी सेवा करते हैं और ये सब कर्म करके सबका एकमात्र यही फल माँगते हैं कि श्रीरामचंद्रजी के चरणों में हमारी प्रीति हो; उन लोगों के मनरूपी मंदिरों में सीताजी और रघुकुल को आनन्दित करने वाले आप दोनों बसिये ।

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