दुर्गेश मिश्र
लखनऊ : जनेऊ अर्थात यज्ञोपवीत महज धागों की डोर ही नहीं होती बल्कि इसमें हमारे संस्कार, कर्तव्यपरायणता व दृढ़ निश्चय समाहित होते हैं। हिन्दू धर्म में यज्ञोपवीत के बिना किसी भी तरह का धार्मिक या मांगलिक कार्य नहीं होता। हिन्दुओं के 16 संस्कारों में से एक है यज्ञोपवीत संस्कार। इस संस्कार के द्वारा बालक वर्ण अथवा जाति का सदस्य बनता है और द्विज कहा जाता है। धर्मशास्त्रों के अनुसार उपनयन संस्कार आवश्यक है। शास्त्र कहते हैं कि यज्ञोपवीत हमारे हृदय को स्पर्श कर हमें बार-बार उन तीन ऋणों को याद दिलाते हैं जिनसे उऋण होने का हमेशा प्रयत्न किया जाना चाहिए।
जन्म नहीं बल्कि संस्कार बनाता है द्विज
धार्मिक कर्मकांड व शास्त्रों के जानकारों का मानना है कि यज्ञोपवीत के तीन सूत्र त्रिदेवों ब्रह्मा, विष्णु व महेश का प्रतीक हैं जिसे धारण करने से मनुष्य की आंतरिक व बाहरी काया शुद्ध व पवित्र रहती है। स्मृतिकार मनु कहते हैं-जन्मनात्जायते शूद्र: संस्कारराद् द्विज उच्चते अर्थात जन्म से कोई द्विज नहीं होता बल्कि उसे उसके संस्कार ही द्विज बनाते हैं। धर्मशास्त्रों के अनुसार व्यक्ति जन्म से समाज का सदस्य नहीं होता, लेकिन जब उसका उपनयन संस्कार कर दिया जाता है तो वह समाज का सदस्य बन जाता है। सुप्रसिद्ध इतिहासकार डा.राजबली पांडेय के अनुसार यह संस्कार इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि व्यक्ति अपने अनियमित और अनुत्तरदायी जीवन को छोडक़र गंभीर और अनुशासित जीवन प्रारंभ करता है।
संस्कृति की रक्षा में बनाता है सक्षम
‘द्विज’ का शाब्दिक अर्थ होता है पुन: जन्म लेना। धर्मशास्त्रों के अनुसार एक बार बालक का जन्म मां के गर्भ से होता है और दूसरी बार उसे संस्कारों के माध्यम से जन्म देकर समाज का हिस्सा बनाया जाता है। भारतीय समाज में व्यक्ति का संपूर्ण जीवन संस्कारों से घिरा होता है जो समय-समय पर कार्यान्वित किए जाते हैं। जन्म से मृत्यु तक संपूर्ण जीवन संस्कारों से शुद्ध एवं पवित्र होता है।
संस्कारविहीन जीवन अपवित्र, अपूर्ण तथा अव्यवस्थित माना जाता है। यज्ञोपवीत संस्कार प्रतीकात्मक विधानों के माध्यम से बालक में ऐसी क्षमता उत्पन्न करता है, जिससे वह सभ्यता और संस्कृति की रक्षा करने में अपना योगदान देता है।
यज्ञोपवीत के बिना पुरुष अधूरा
संकल्पों की याद दिलाता है यज्ञोपवीत
शास्त्रों में अन्य संस्कारों की अपेक्षा उपनयन संस्कार को अधिक महत्व दिया गया है। पितरों को तर्पण देते समय या देव पूजन में संकल्प लेते समय हाथ की अंजलि में यज्ञोपवीत को लेकर संकल्प लेना होता है, जिससे यज्ञोपवीत बार-बार उन संकल्पों को याद दिला अपने धर्म व कर्तव्य के पथ पर निरंतर चलते रहने को कहता है। स्मृतिकार मनु और गौतम कहते हैं कि-
उपनयनं ब्राह्मणस्याष्टमे। एकादशद्वादशयो: क्षत्रिय वैश्यो:। अर्थात ब्राह्मण बालक का गर्भ से आठवें वर्ष में, क्षत्रिय का गर्भ से ग्यारहवें वर्ष में व वैश्य बालक का गर्भ के 12वें वर्ष में उपनयन संस्कार करने का विधान है। आज युग आधुनिकतावाद के कारण तेजी से बदल रहा है, जिसके साथ-साथ कई विधान भी बदल रहे हैं। देर से ही सही यज्ञोपवीत संस्कार होता जरूर है, भले ही यह रस्म बढ़ती हुई महंगाई व इसमें होने वाले खर्चों को देखते हुए अलग से न निभाई जाती हो, लेकिन विवाह के समय इस रस्म को अवश्य पूरा किया जाता है।
कई रोगों से राहत दिलाता है यज्ञोपवीत