Raag Aur Dwesh: जब तक है राग द्वेष, तब तक नहीं मिलेगी मुक्ति
Raag Aur Dwesh: समता आने से योग हो जाता है; क्योंकि योग नाम समता का ही है ( गीता 2/48) । निष्कामभाव आने से चेतनता की मुख्यता और जड़ता की गौणता हो जाती हैं। मनुष्य में जितना-जितना निष्कामभाव आता हैं, उतना-उतना वह संसार से ऊँचा उठता है और जितना-जितना सकामभाव आता है, उतना-उतना वह संसार में बँधता है।
Raag Aur Dwesh: निष्कामभाव होने से मनुष्य में राग-द्वेष, हर्ष-शोक आदि द्वन्द्वों का नाश हो जाता है और समता आ जाती है। समता आने से योग हो जाता है; क्योंकि योग नाम समता का ही है ( गीता 2/48) । निष्कामभाव आने से चेतनता की मुख्यता और जड़ता की गौणता हो जाती हैं। मनुष्य में जितना-जितना निष्कामभाव आता हैं, उतना-उतना वह संसार से ऊँचा उठता है और जितना-जितना सकामभाव आता है, उतना-उतना वह संसार में बँधता है।
गीता में आया है – जिनका मन साम्यावस्था में स्थित हो गया, उन लोगों ने संसार को जीत लिया अर्थात वे जन्म-मरण से ऊँचे उठ गये। ब्रह्म निर्दोष और सम है और उनका अन्त:करण भी निर्दोष और सम हो गया, इसलिये वे ब्रह्म में ही स्थित हो गये। वास्तव में परमात्मा में स्थिति सब की है; क्योंकि परमात्मा सर्वव्यापक हैं। एक सुई की नोक-जितनी जगह भी परमात्मा से खाली नहीं है। परमात्मा सब-जगह समानरूप से परिपूर्ण है। परन्तु परमात्मा में स्थित होते हुए भी संसार में राग-द्वेष के कारण मनुष्य परमात्मा में स्थित नहीं है, प्रत्युत संसार में स्थित है। वे परमात्मा में स्थित तभी होंगे, जब उनके मन में राग-द्वेष मिट जायँगे। जब तक मन में राग-द्वेष रहेंगे, तब तक भले ही चारों वेद और छ: शास्त्र पढ़ लो, पर मुक्ति नहीं होगी। राग-द्वेष को हटाने के लिये क्या करें ? इसके लिये भगवान् कहते हैं –
‘इन्द्रिय-इन्द्रिय के अर्थ में (प्रत्येक इन्द्रिय के प्रत्येक विषय में) मनुष्य के राग-द्वेष व्यवस्था से ( अनुकूलता और प्रतिकूलता को लेकर) स्थित हैं। मनुष्य को उन दोनों के वश में नहीं होना चाहिये; क्योंकि वे दोनों ही इसके (पारमार्थिक मार्ग में विघ्न डालने वाले) शत्रु है।’ (गीता 3/34) |
भक्ति से पैदा होती है भक्ति
अनुकूलता को लेकर राग और प्रतिकूलता को लेकर द्वेष होता है। साधक को चाहिये कि वह इनके वशीभूत न हो। वशीभूत होने से राग-द्वेष बढ़ते हैं। जब तक राग-द्वेष हैं, तब तक जन्म-मरण है। राग-द्वेष से ऊँचा उठने पर मुक्ति होती है और परमात्मा में प्रेम होने पर भक्ति होती है। पहले कर्मयोग और ज्ञानयोग करके भी भक्ति कर सकते हैं और आरम्भ से भी भक्ति कर सकते हैं।
कर्मयोग और ज्ञानयोग – ये दोनों साधन हैं और भक्तियोग साध्य है। कई व्यक्ति ऐसा नहीं मानते, प्रत्युत कर्मयोग तथा भक्तियोग को साधन और ज्ञानयोग को साध्य मानते हैं। परन्तु गीता भक्तियोग को ही साध्य मानती है। गीता के अनुसार कर्मयोग और ज्ञानयोग – दोनों निष्ठाएँ समकक्ष हैं, पर भक्ति दोनों से विलक्षण है।
कर्मयोग में दो बातें हैं – कर्म और योग। ऐसे ही ज्ञानयोग में भी दो बातें हैं – ज्ञान और योग। परन्तु भक्तियोग में दो बातें नहीं होती। हाँ, भक्तियोग के प्रकार दो हैं – साधन-भक्ति और साध्य-भक्ति। श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पादसेवन, अर्चन, वन्दन, दासी, सख्य और आत्मनिवेदन (श्रीमद. 7/5/23) – यह नौ प्रकार की साधन-भक्ति और प्रतिक्षण वर्धमान प्रेमाभक्ति साध्य-भक्ति है (गीता 18/54) | इसलिये श्रीमदभागवत में आया है ‘भक्ति से भक्ति पैदा होती है’ (11/3/31) अर्थात साधनभक्ति से साध्य भक्ति की प्राप्ति होती है। इस तरह साधक चाहे तो आरम्भ से ही भक्ति कर सकता है। भक्ति का आरम्भ कब होता है ? जब भगवान प्यारे लगते हैं, भगवान में मन खिंच जाता है।
सत्संग से कम होती है भोग और संग्रह की वृत्ति
संसार के भोग और रूपये प्यारे लगते हैं – यह सांसारिक (बन्धन में पड़े हुए) आदमी की पहचान है। भगवान प्यारे लगते हैं – यह भक्त की पहचान है। इस लिये जब रूपये और पदार्थ अच्छे नहीं लगेंगे, इनसे चित हट जायगा और भगवान में लग जायगा, तब भक्ति आरम्भ हो जायगी। जब तक भोगों में और रुपयों में आकर्षण है, तब तक ज्ञान की बड़ी ऊँची-ऊँची बातें कर लो, बन्धन ज्यों-का-त्यों रहेगा। जैसे गीध बहुत ऊँचा उड़ता है, पर उसकी दृष्टि मुर्दे पर रहती है। मांस देखते ही उसकी ऊँची उड़ान खत्म हो जाती है और वह वहीँ नीचे गिर पड़ता है। ऐसे बड़ी ऊँची-ऊँची बातें करने वाले, व्याखान देने वाले रुपयों को और भोगों को देखते ही उन पर गिर पड़ते हैं! जैसे गीध को सड़े-गले एवं दुर्गन्धित मांस में ही रस (आनन्द) आता है, ऐसे ही उनको रुपयों में और भोगों में ही रस आता है। इसलिये गीता में कहा गया है –
‘उस पुष्पित (दिखाऊ शोभायुक्त) वाणी से जिसका अन्त:करण हर लिया गया है अर्थात भोगों की तरफ खिंच गया है और जो भोग तथा ऐश्वर्य में अत्यन्त आसक्त हैं, उन मनुष्यों की परमात्मा में एक निश्चयवाली बुध्दि नहीं होती।’ ( गीता 2/44 ) |
जो मान, आदर, बड़ाई, रूपये भोग आदि में ही रचे-पचे हैं वे मुक्त नहीं हो सकते। मुक्त अर्थात बन्धन से रहित तभी हो सकते हैं, जब उनसे ऊँचें उठेंगें। ‘ भोगैश्वर्य’ का अर्थ है भोग भोगना और भोग-सामग्री ( रूपये, सोना-चाँदी, जमीन, मकान आदि ) – का संग्रह करना। इन दोनों में लगे हुए मनुष्य परमात्मप्राप्ति तो करना दूर रहा, ‘हमें परमात्मा को प्राप्त करना है’ – ऐसा निश्चय भी नहीं कर सकते। सत्संग करने वालों का अनुभव है कि भोग और संग्रह की आसक्ति कम होती है और मिटती है।