Mahabharat दुर्योधन की दृष्टि में पांडव सेना भीम द्वारा संरक्षित है - ऐसा क्यों
Mahabharat Katha : धर्मपति दृष्टद्युम्न ने महाभारत के युद्ध के दौरान भीम को दुर्योधन के सामने बहुत बड़ी समस्या बनाने के लिए चुनौती दी थी। उन्होंने कहा था कि भीम को दुर्योधन के सामने ला दो ताकि उसे उसकी दृष्टि में देखने का मौका मिले।
Mahabharat Katha : भगवद्गीता के प्रथम अध्याय के दसवें श्लोक में द्रोणाचार्य को दुर्योधन ने अपनी ( धृतराष्ट्र की ) सेना को तो अपने प्रधान सेनाध्यक्ष भीष्म द्वारा संरक्षित बताया। लेकिन पांडवों की सेना को उसके प्रधान सेनाध्यक्ष धृष्टद्युम्न द्वारा संरक्षित नहीं बताया। बल्कि भीम द्वारा संरक्षित बताया। इसके कारण को जानने के लिए महाभारत के कुछ पृष्ठों का अवलोकन करते हैं।
किशोरावस्था से ही दुर्योधन के मन में भीम के प्रति हिंसा व द्वेष की भावना थी। भीम के कारण ही पांडव जीवित बचे हुए थे - यह बात दुर्योधन अच्छी तरह जानता था। जब दुर्योधन ने द्यूत-क्रीड़ा के समय अपनी जांघ का वस्त्र हटाकर अपनी जांघ द्रौपदी को दिखाया था, तो भीम ने दुर्योधन से कहा था :-
पितृभि: सह सालोक्यं मा स्म गच्छेद् वृकोदर:।
यद्येतमूरूं गदया न: भिन्द्यां ते महाहवे ।।
यदि महासमर में तेरी इस जांघ को मैं अपनी गदा से न तोड़ डालूं, तो मुझ भीम को अपने पूर्वजों के साथ उन्हीं के समान पुण्य लोकों की प्राप्ति न हो ।
दु:शासन ने जब पांडवों को नपुंसक कहा था, तब भीम ने कहा था :-
धार्तराष्ट्रान् रणे हत्वा मिषतां सर्वधन्विनाम्।
शमं गन्तास्मि नचिरात् सत्यमेतद् ब्रवीमि ते॥
मैं तुम्हें सच्ची बात कह रहा हूं, शीघ्र ही वह समय आने वाला है, जब समस्त धनुर्धरों के देखते-देखते मैं युद्ध में धृतराष्ट्र के सभी पुत्रों का वध करके शांति प्राप्त करूंगा।
अतः दुर्योधन की नजर में पांडव पक्ष में भीम अग्रणी था।
इसी कारण प्रथम अध्याय के चौथे श्लोक में पांडवों का नाम लेते समय दुर्योधन ने सर्वप्रथम भीम का ही नाम लिया था।
दुर्योधन की सोच सही थी - हमें यह महाभारत युद्ध के अंत में परिलक्षित होता है, जब हम यह जान पाते हैं कि धृतराष्ट्र के सभी पुत्रों का वध भीम ने ही किया था।
एक तरह से युद्ध के पूर्व ही दुर्योधन यह स्वीकार कर रहा है कि अंतिम लड़ाई तो मेरी भीम से ही होगी। शारीरिक शक्ति के आधार पर दूसरे को दबा देना दोनों का स्वभाव था। अतः दुर्योधन अपने स्वभाव के कारण भीम के स्वभाव से पूर्णरूपेण परिचित था।
सोच के जिस धरातल पर दुर्योधन खड़ा था, भीम भी लगभग उसी धरातल पर खड़ा था। ईंट का जवाब पत्थर से देना चाहिए - दोनों इस सिद्धांत के समर्थक थे। वे दोनों केवल तात्कालिक कारणों को ही देख पाते थे एवं समझ पाते थे। शारीरिक शक्ति के आधार पर दूसरे को दबा देना ही दोनों का स्वभाव था।
दोनों में अंतर बस यही था कि दुर्योधन अपने शारीरिक बल को पाशविक शक्ति में परिणत कर उठे हुए को गिराता था, तो भीम अपनी शारीरिक शक्ति को दैवी शक्ति में बदलकर गिरे हुए को उठाता था। शक्ति तो दोनों तरफ समान थी। दुर्योधन की शक्ति अधोगामी थी, तो भीम की शक्ति ऊर्ध्वगामी थी।