Mahabharata Ki Kahani: कुरुक्षेत्र के समरांगण में अर्जुन ने अपने रथ को दोनों सेनाओं के मध्य ले जाने के लिए श्रीकृष्ण को क्यों कहा ?
Mahabharata Ki Kahani: कुरुक्षेत्र के समरांगण में, जब अर्जुन को अपने रथ को दोनों सेनाओं के मध्य ले जाने के लिए उचित मार्ग का चयन करना था, उन्होंने श्रीकृष्ण को "पार्थ" कहा। यहां "पार्थ" एक उपनाम है जो अर्जुन के लिए उपयोग किया जाता है
Mahabharata Ki Kahani in Hindi: शुरू में ही हम लोगों ने जाना था कि दुर्योधन अपने पक्ष में रहकर ही उभय-पक्ष का निरीक्षण कर उसका विवरण द्रोणाचार्य के समक्ष प्रस्तुत किया था। दुर्योधन को दोनों सेनाओं के मध्य जाने की आवश्यकता नहीं पड़ी थी, पर यहां अर्जुन अपने पक्ष में रहकर दोनों पक्षों का आकलन कर पाने में असमर्थ है। तभी तो वह दोनों पक्ष के मध्य जाने की बात कर रहा है।
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दुर्योधन ने तो स्पष्ट रूप से द्रोणाचार्य को कह दिया था कि पांडवों की सेना भीम द्वारा संरक्षित है - इस धारणा को तोड़ने के लिए अर्जुन ने श्रीकृष्ण को रथ आगे बढ़ाने को कहा ताकि सभी यह देखें कि वास्तव में अर्जुन पांडव सेना का संरक्षक है।
अर्जुन पांडव पक्ष में यह संकेत देना चाहता था कि देखो! अर्जुन कितना निर्भीक, साहसी और पराक्रमी है कि अपने पक्ष को छोड़कर युद्ध के पूर्व ही शत्रु-पक्ष की ओर बढ़ रहा है और शत्रुओं पर बाणों की वर्षा करने वाला है। अर्जुन के अंतःकरण में कहीं-न-कहीं सूक्ष्म रूप से यह अहंकार छिपा था कि धृतराष्ट्र के सारे पुत्र उसी के द्वारा मारे जाएंगे। जबकि महाभारत के अंत में हम सभी जानते हैं कि अर्जुन ने नहीं, बल्कि भीम ने धृतराष्ट्र के सभी पुत्रों की हत्या की थी।
जब तक हम दो पक्षों में से किसी भी एक पक्ष की ओर रहते हैं, तो अपना पक्ष मित्रवत लगता है और दूसरा पक्ष शत्रुवत् दिखता है क्योंकि प्रत्येक पक्ष का अपना एक अलग प्रभाव रहता है। लेकिन जब हम दोनों पक्षों के बीच में चले जाते हैं, तो किसी पक्ष-विशेष का प्रभाव नहीं पड़ता। समान दूरी पर रहने के कारण दोनों पक्षों के प्रभाव का उदासीनीकरण ( न्यूट्रलाइजेशन ) हो जाता है। वास्तव में तभी सही अर्थों में दोनों पक्षों का निष्पक्ष आकलन होता है। इस दृष्टि से भी अर्जुन ने श्री कृष्ण को अपने रथ को दोनों सेनाओं के मध्य ले जाने के लिए कहा।
युद्ध एक तमस कार्य है। ऐसे तमस कार्य में अर्थात् अंधकार में जाने की हिम्मत तीन प्रकार के लोग सहज ढंग से करते हैं।
पहला - जो अंधा होता है, उसके लिए अंधकार और प्रकाश में कोई फर्क महसूस नहीं होता। वह आराम से अंधेरा में जाता है।
दूसरा - वह जो स्वयं के प्रकाश से प्रकाशित हो अर्थात् उसके पास आत्मिक प्रकाश होता है। वह इतना ज्योतिर्मय होता है कि उसकी उपस्थिति ही अंधेरे को खत्म कर देती है।
तीसरा - यह भी अंधेरे में जाता है। लेकिन किसी दूसरे प्रकाशित वस्तु को साथ लेकर जाता है। दूसरे के प्रकाश से अंधेरा मिटता है, तब वह प्रवेश करता है। स्वयं - प्रकाशक श्रीकृष्ण को साथ लेकर ही नहीं वरन् उन्हें आगे रखकर अर्जुन युद्ध क्षेत्र में उतरा है।
इस प्रकार हम कुरुक्षेत्र के रणक्षेत्र में तीन प्रकार के पात्रों को देख रहे हैं।
पहली श्रेणी के अंतर्गत दुर्योधन, दूसरी श्रेणी के अंतर्गत भगवान श्रीकृष्ण और तीसरी श्रेणी के अंतर्गत अर्जुन आते हैं। दुर्योधन पशु का प्रतीक है। अर्जुन मनुष्य का प्रतीक है। श्रीकृष्ण भगवान के प्रतीक नहीं बल्कि स्वयं भगवान हैं।