Mata Shabri Ki Katha: जानिए कौन थी रामभक्त माता शबरी और प्रभु श्रीराम से कैसे मिली

Mata Shabri Ki Katha: शबरी का वास्तविक नाम श्रमणा बताया गया है। इन्होने शबर जाति में जन्म लिया जिस कारण इनका नाम शबरी पड़ गया। संतजन कहते है की इन्होने भगवान श्री राम का इतना सब्र किया की इनका नाम ही सबरी पड़ गया। शबरी को श्रीराम के प्रमुख भक्तों में गिना जाता है।

Update:2023-04-15 21:56 IST
Mata Shabri Ki Katha (Pic: Newstrack)

Mata Shabri Ki Katha in Hindi: फाल्गुन मास के कृष्णपक्ष की सप्तमी को शबरी जयंती मनाई जाती है। प्रस्तुत है रामभक्त माता शबरी की सम्पूर्ण पावन कथा-

शबरी का वास्तविक नाम श्रमणा बताया गया है। इन्होने शबर जाति में जन्म लिया जिस कारण इनका नाम शबरी पड़ गया। संतजन कहते है की इन्होने भगवान श्री राम का इतना सब्र किया की इनका नाम ही सबरी पड़ गया। शबरी को श्रीराम के प्रमुख भक्तों में गिना जाता है। शबरी के पिता भीलों के राजा थे। शबरी जब विवाह के योग्य हुई तो उसके पिता ने एक दूसरे भील कुमार से उसका विवाह पक्का कर दिया और धूमधाम से विवाह की तैयारी की जाने लगी। विवाह के दिन सैकड़ों बकरे-भैंसे बलिदान के लिए लाए गए।

बकरे-भैंसे देखकर शबरी ने अपने पिता से पूछा- ‘ये सब जानवर यहां क्यों लाए गए हैं?’ पिता ने कहा- ‘तुम्हारे विवाह के उपलक्ष्य में इन सबकी बलि दी जाएगी।’यह सुनकर बालिका शबरी को अच्छा नहीं लगा और सोचने लगी यह किस प्रकार का विवाह है, जिसमें इतने निर्दोष प्राणियों का वध किया जाएगा। यह तो पाप कर्म है, इससे तो विवाह न करना ही अच्छा है। ऐसा सोचकर वह रात्रि में उठकर जंगल में भाग जाती है।

दंडकारण्य में जाकर वह देखती है कि हजारों ऋषि-मुनि तप कर रहे हैं। बालिका शबरी अशिक्षित होने के साथ ही निचली जाति से थी। वह समझ नहीं पा रही थीं कि किस तरह वह इन ऋषि-मुनियों के बीच यहां जंगल में रहें जबकि मुझे तो भजन, ध्यान आदि कुछ भी नहीं आता। लेकिन शबरी का हृदय पवित्र था और उसमें प्रभु के लिए सच्ची चाह थी, जिसके होने से सभी गुण स्वत: ही आ जाते हैं।

वह रात्रि में जल्दी उठकर, जिधर से ऋषि निकलते, उस रास्ते को नदी तक साफ करती, कंकर-पत्थर हटाती ताकि ऋषियों के पैर सुरक्षित रहे। फिर वह जंगल की सूखी लकड़ियां बटोरती और उन्हें ऋषियों के यज्ञ स्थल पर रख देती। इस प्रकार वह गुप्त रूप से ऋषियों की सेवा करती थी। इन सब कार्यों को वह इतनी तत्परता से छिपकर करती कि कोई ऋषि देख न ले।

यह कार्य वह कई वर्षों तक करती रही। अंत में मतंग ऋषि ने उस पर कृपा की। जब मतंग ऋषि मृत्यु शैया पर थे तब उनके वियोग से ही शबरी व्याकुल हो गई। महर्षि ने उसे निकट बुलाकर समझाया- ‘बेटी! धैर्य से कष्ट सहन करती हुई साधना में लगी रहना। प्रभु राम एक दिन तेरी कुटिया में अवश्य आएंगे। प्रभु की दृष्टि में कोई दीन-हीन और अस्पृश्य नहीं है। वे तो भाव के भूखे हैं और अंतर की प्रीति पर रीझते हैं।’

महर्षि की मृत्यु के बाद शबरी अकेली ही अपनी कुटिया में रहती और प्रभु राम का स्मरण करती रहती थी। राम के आने की बांट जोहती और प्रतिदिन कुटिया को इस तरह साफ करती थीं कि आज राम आएंगे। साथ ही रोज ताजे फल लाकर रखती कि प्रभु राम आएंगे तो उन्हें मैं यह फल खिलाऊंगी।

ताहि देइ गति राम उदारा।

सबरी कें आश्रम पगु धारा।।

सबरी देखि राम गृहँ आए।

मुनि के बचन समुझि जियँ भाए।।

उदार श्री रामजी उसे गति देकर शबरीजी के आश्रम में पधारे। शबरीजी ने श्री रामचंद्रजी को घर में आए देखा, तब मुनि मतंगजी के वचनों को याद करके उनका मन प्रसन्न हो गया। आज मेरे गुरुदेव का वचन पूरा हो गया। उन्होंने कहा था कि राम आयेगे। और प्रभु आज आप आ गए। निष्ठा हो तो शबरी जैसी। बस गुरु ने एक बार बोल दिया की राम आयेगे। और विश्वास हो गया। हमे भगवान इसलिए नही मिलते क्योकि हमे अपने गुरु के वचनों पर भरोसा ही नही होता। जब शबरी ने श्री राम को देखा तो आँखों से आंसू बहने लगे और चरणो से लिपट गई है।

सबरी परी चरन लपटाई।

मुह से कुछ बोल भी नही पा रही है चरणो में शीश नवा रही है। फिर सबरी ने दोनों भाइयो राम, लक्ष्मण जी के चरण धोये है। कुटिया के अंदर गई है और बेर लाई है। वैसे रामचरितमानस में कंद-मूल लिखा हुआ है। लेकिन संतो ने कहा की सबरी ने तो रामजी को बेर ही खिलाये। सबरी एक बेर उठाती है, उसे चखती है। बेर मीठा निकलता है तो रामजी को देती है अगर बेर खट्टा होता है तो फेक देती है।

भगवान राम एकशब्द भी नही बोले की मैया क्या कर रही है। तू जूठे बेर खिला रही है। भगवान प्रेम में डूबे हुए है। बिना कुछ बोले बेर खा रहे है। माँ एकटक राम जी को निहार रही है। भगवान ने बड़े प्रेम से बेर खाए और बार बार प्रशंसा की है।

प्रेम सहित प्रभु खाए बारंबार बखानि।।

उसके बाद शबरी हाथ जोड़ कर खड़ी हो गई। सबरी बोली की प्रभु मैं किस प्रकार आपकी स्तुति करू?

मैं नीच जाति की और अत्यंत मूढ़ बुद्धि हूँ।

अधम जाति मैं जड़मति भारी।।

जो अधम से भी अधम हैं, स्त्रियाँ उनमें भी अत्यंत अधम हैं, और उनमें भी हे पापनाशन! मैं मंदबुद्धि हूँ।भगवन राम माँ की ये बात सुन नहीं पाये और बीच में ही रोक दिया- भगवन कहते है माँ मैं केवल एक भगति का ही नाता मानता हूँ।

मानउँ एक भगति कर नाता।।

जाति, पाँति, कुल, धर्म, बड़ाई, धन, बल, कुटुम्ब, गुण और चतुरता- इन सबके होने पर भी यदि इंसान भक्ति न करे तो वह ऐसा लगता है, जैसे जलहीन बादल (शोभाहीन) दिखाई पड़ता है।

जाति पाँति कुल धर्म बड़ाई।

धन बल परिजन गुन चतुराई।।

भगति हीन नर सोहइ कैसा।

बिनु जल बारिद देखिअ जैसा।।

माँ में तुम्हे अपनी 9 प्रकार की भक्ति के बारे में बताता हूँ। जिसे भक्ति को कहते है नवधा भक्ति ।

नवधा भगति कहउँ तोहि पाहीं।

सावधान सुनु धरु मन माहीं।।

प्रथम भगति संतन्ह कर संगा।

दूसरि रति मम कथा प्रसंगा।।

अर्थ- मैं तुझसे अब अपनी नवधा भक्ति कहता हूँ। तू सावधान होकर सुन और मन में धारण कर। पहली भक्ति है संतों का सत्संग। दूसरी भक्ति है मेरे कथा प्रसंग में प्रेम।

गुर पद पंकज सेवा तीसरि भगति अमान।

चौथि भगति मम गुन गन करइ कपट तजि गान।।

अर्थ- तीसरी भक्ति है अभिमानरहित होकर गुरु के चरण कमलों की सेवा और चौथी भक्ति यह है कि कपट छोड़कर मेरे गुण समूहों का गान करें।

मंत्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा।

पंचम भजन सो बेद प्रकासा।।

छठ दम सील बिरति बहु करमा।

निरत निरंतर सज्जन धरमा।।

अर्थ- मेरे (राम) मंत्र का जाप और मुझमें दृढ़ विश्वास- यह पाँचवीं भक्ति है, जो वेदों में प्रसिद्ध है। छठी भक्ति है इंद्रियों का निग्रह, शील (अच्छा स्वभाव या चरित्र), बहुत कार्यों से वैराग्य और निरंतर संत पुरुषों के धर्म (आचरण) में लगे रहना।।

सातवँ सम मोहि मय जग देखा।

मोतें संत अधिक करि लेखा।।

आठवँ जथालाभ संतोषा।

सपनेहुँ नहिं देखइ परदोषा।।

अर्थ- सातवीं भक्ति है जगत्‌ भर को समभाव से मुझमें ओतप्रोत (राममय) देखना और संतों को मुझसे भी अधिक करके मानना। आठवीं भक्ति है जो कुछ मिल जाए, उसी में संतोष करना और स्वप्न में भी पराए दोषों को न देखना।

नवम सरल सब सन छलहीना।

मम भरोस हियँ हरष न दीना।।

नव महुँ एकउ जिन्ह कें होई।

नारि पुरुष सचराचर कोई।।

अर्थ- नवीं भक्ति है सरलता और सबके साथ कपटरहित बर्ताव करना, हृदय में मेरा भरोसा रखना और किसी भी अवस्था में हर्ष और दैन्य (विषाद) का न होना। इन नवों में से जिनके एक भी होती है, वह स्त्री-पुरुष, जड़-चेतन कोई भी हो-

सोइ अतिसय प्रिय भामिनि मोरें।

सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरें।।

जोगि बृंद दुरलभ गति जोई।

तो कहुँ आजु सुलभ भइ सोई।।

अर्थ- हे भामिनि! मुझे वही अत्यंत प्रिय है। फिर तुझ में तो सभी प्रकार की भक्ति दृढ़ है। अतएव जो गति योगियों को भी दुर्लभ है, वही आज तेरे लिए सुलभ हो गई है। देखिये भगवान माँ को भक्ति के बारे में बताने से पहले भी कह सकते थे की माँ आपके अंदर सभी प्रकार की भक्ति है। लेकिन राम जानते थे अगर मैंने पहले बोल दिया तो माँ मुझे बीच में ही रोक देगी। और कहेगी बेटा मेरी बड़ाई नही सब आपकी कृपा का फल है। इसलिए भगवान ने पहले भक्ति के बारे में बताया और बाद में माँ को कहा- आपके अंदर सब प्रकार की भक्ति है।

(कंचन सिंह)

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