Satyabhama Koun Thi: कौन थी सत्यभामा, श्रीकृष्ण ने क्यों चूर किया उनका अंहकार, जानिए सत्यभामा से जुड़ी कथा

Satyabhama Koun Thi: श्रीकृष्ण की 16 हजार राशियों 8 रानियों से उन्होंने शादी की थी, उन 8 में एक रानी थी सत्यभामा, जो श्रीकृष्ण को प्रिय थी, जानते हैं उनके बारे में

Update: 2023-11-01 04:15 GMT

Satyabhama koun Hai: सत्यभामा कौन थी? कार्तिक मास चल रहा है । इस मास की कथा में श्रीकृष्ण की प्रिय रानी सत्यभामा का जिक्र है जो कार्तिक मास का महत्व पुछती है भगवान श्रीकृषण उसके बार में विस्तार से बता है,,जानते हैं कौन थी सत्यभामा अवंतिका (उज्जैन) के राजा सत्राजित की पुत्री थी। सत्राजित के पास एक बहुत ही कीमती और चमत्कारिक मणि थी। कहते हैं कि उसमें से स्वर्ण उत्पन्न होता था। एक दिन सत्राजित का भाई प्रसेन उस मणि को धारण कर शिकार के लिए निकल गया।

बहुतकाल तक नहीं लौटने पर सत्राजित को लगा कि श्री कृष्ण ने उसे मारकर मणि चुरा ली है। जब इसकी चर्चा आम होने लगी तो श्रीकृष्ण को बहुत बुरा लगा कि लोग उन्हें चोर समझ रहे हैं। ऐसे में वे प्रसेन को ढूंढने स्वयं जंगल गए। जंगल में उन्होंने प्रसेन और उसके घोड़े को मरा हुआ पाया। 

भगवान उस मणि को लेकर वापस आते हैं और जब वो मणि सत्राजित को दी गई तो सत्राजित को बड़ा दुख हुआ, ग्लानि भी हुई, लज्जा भी आई कि मैंने श्रीकृष्णजी पर नाहक ही हत्या और चोरी का आरोप लगाया। उसने श्रीकृष्ण से क्षमा मांगी और कहा कि मैं अपनी ग्लानि को मिटाना चाहता हूं। इसके लिए मेरी पुत्री सत्यभामा को मैं आपको सौंपता हूं। आप उसे स्वीकार करिए और उसने कहा यह मणि भी आप रखिए दहेज में। कृष्ण ने कहा- यह मणि तो आफत का काम है यह मैं नहीं रख सकता यह आप ही रखिए।

श्री कृष्ण की 8 पत्नियों का नाम 

सत्यभामा श्री कृष्ण  की 8 खास पत्नियों में रुक्मणि, भद्रा, जाम्बवन्ती, कालिन्दी, मित्रबिन्दा, लक्ष्मणा, सत्या में से एक जबकि कृष्ण की 3 महारानियों में प्रमुख थी। सत्यभामा अवंतिका जिसे वर्तमान में उज्जैन कहा जाता है के राजा सत्राजित की पुत्री थी। श्री कृष्ण और सत्यभामा के 10 पुत्र थे – श्रीभानु, सुभानु, भानु, वृहद्भानु, स्वरभानु, प्रभानु, चंद्रभानु, भानुमान, अतिभानु, और प्रतिभानु।

सत्यभामा का विवाह श्री कृष्ण कैसे हुआ? 

सत्यभामाके पिता सत्राजित के पास एक चमत्कारिक मणि हुआ करती थी जिसके बारे में कहा जाता था कि वह स्वर्ण उत्पन्न करती है। एक बार सत्राजित का प्रसेन नामक भाई उस मणि को धारण कर शिकार के लिए निकल जाता है। जब काफी देर होने पर वह शिकार से वापिस नहीं लौटा तो सत्राजित को लगा कि श्री कृष्ण ने उसके भाई को मारकर वह मणि चुरा ली है।

राज्य में श्री कृष्णा को लेकर ऐसी ही बातें होने लगी। जब श्री कृष्ण को यह पता चला कि लोग उन्हें चोर समझ रहे हैं तो वे स्वयं प्रसेन को खोजने के लिए जंगल की ओर निकले। जब श्री कृष्ण जंगल में पहुंचे तो वे देखते है कि प्रसेन और उनका अश्व वह मृत पड़े हैं और वह मणि जिसे प्रसेन ने धारण किया हुआ था वह एक रीछ के पास है। वह रीछ रामभक्त जामवंत थे।

जामवंत औरश्रीकृष्ण के बीच भयंकर युद्ध हुआ और देखते ही देखते जामवंत पराजित होने की अवस्था में आ चुके थे। इसके लिए उन्होंने अपने प्रभु श्री राम का स्मरण किया। स्मरण करते ही श्री कृष्ण ने राम का रूप ले लिया। जामवंत ने जैसे ही श्री कृष्ण को राम अवतार में देखा वे अपने अश्रुओं को रोक नहीं पाए। क्षमा मांगते हुए उन्होंने उस मणि के साथ ही अपनी पुत्री जामवंती को भी श्री कृष्ण को सौंप दिया।

अब श्रीकृष्ण उस मणि को लेकर राजा सत्राजित में पहुँचते हैं और उन्हें यह लौटा देते हैं। उस समय सत्राजित को अपनी सोच पर बहुत ग्लानि हुई कि उन्होंने श्री कृष्ण एक हत्यारा और चोर समझ लिया। इसपर सत्राजित ने श्री कृष्ण के सामने क्षमा मांगी और अपनी ग्लानि को दूर करने के लिए पुत्री सत्यभामा को श्री कृष्ण को सौंप दिया। इस तरह एक ग्लानि ने श्री कृष्ण और सत्यभामा विवाह  करवाया।

सत्यभामा का घमंड कैसे टूटा? 

 कृष्ण द्वारिका नगरी में अपनी पत्नी सत्यभामा के साथ सिंहासन पर विराजमान थे। दोनों के निकट ही गरुड़ और सुदर्शन चक्र भी मौजूद थे जिनमें अत्यधिक तेज दिखाई पड़ रहा था। पास में बैठी सत्यभामा ने श्री कृष्ण से बातों-बातों में सवाल किया कि हे प्रभु! जब आपने त्रेतायुग में राम अवतार लिया था तब अपनी पत्नी सीता थीं। क्या वे मुझसे भी अधिक सुन्दर थीं?

श्रीकृष्ण- सत्यभामा की बातों से तुरंत यह समझ चुके थे कि उन्हें अपनी सुंदरता का अहंकार है। फिर पास में बैठे गरुड़ बोले हे! प्रभु क्या कोई मुझसे भी अधिक तीव्र उड़ सकता है? इसपर सुदर्शन चक्र कैसे चुप रहता, वह भी बोला कि प्रभु! मैंने तो आपको कितने ही युद्धों में विजय प्राप्त करवाई है। क्या भला कोई इस संसार में मुझसे अधिक शक्तिशाली है?

श्रीकृष्ण तो स्वयं ही ईश्वर थे उन्हें यह भांप पाने में तनिक भी देर न लगी कि इन तीनों को खुदपर अहंकार हो गया है। अतः अब कृष्ण को तीनों का अहंकार तोड़ना था। श्री कृष्ण ने गरुड़ से कहा कि तुम हनुमान के पास जाओ और उनसे कहना कि उनके प्रभु श्री राम और माता सीता तुम्हारी प्रतीक्षा में रहा तक रहें हैं। इसके बाद श्री कृष्ण ने सत्यभामा को माता सीता के रूप में तैयार रहने को कहा और स्वयं उन्होंने राम का अवतार ले लिया। श्री कृष्ण ने सुदर्शन चक्र से मुख्य द्वार पर पहरा देने को कहा कि मेरी आज्ञा के बिना कोई महल में प्रवेश न कर पाए।

गरुड़ ने जाकर  हनुमान जी को सन्देशा पहुँचाया और अपने साथ चलने को कहा। पर हनुमान जी ने कहा कि तुम आगे चलो मैं वहां पहुंचता हूँ। गरुड़ उस समय सोच रहा था कि ये वृद्ध वानर न जाने कब तक वहां पहुंचेगा। पर जब गरुड़ द्वारका में पहुंचा तो वह देखता है कि हनुमान जी तो उनसे पहले ही द्वारका पहुँच कर वहां प्रभु श्री राम के चरणों में बैठे हैं। इसपर गरुड़ को बहुत लज्जा महसूस हुई।

हनुमान जी से श्री राम ने पूछा कि तुम महल में प्रवेश कैसे कर आये? क्या मुख्य द्वार पर तुम्हें किसी ने अंदर से रोका नहीं? इसपर हनुमान जी अपने मुँह से सुदर्शन चक्र को निकलकर कहते हैं कि मुझे अंदर आते समय सुदर्शन चक्र ने रखा था परन्तु मैंने इसे अपने मुख पर रख लिया। मुझे इसके लिए क्षमा करें। इस समय तक गरुड़ को अपनी तीव्र उड़ान का अहम और सुदर्शन चक्र को अपनी शक्ति का अहम समाप्त हो चुका था।हनुमान जी ने आगे कहा कि हे प्रभु! आपने साथ माता सीता की जगह सिंहासन पर एक दासी क्यों विराजमान है? हनुमान के मुख से इस तरह के वचन सुन रानी सत्यभामा का घमंड जैसे चूर-चूर हो गया। हनुमान ने जब उन्हें सीता माता न समझकर दासी कहा तो सुन्दरता पर सत्यभामा का घमंड अब खत्म हो चुका था। इसके बाद तीनों ही प्रभु की लीला समझ गए और प्रभु के चरणों में झुक गए।

 सत्यभाभा के पूर्व जन्म में कौन थी

सत्यभामा ने एक दिन श्रीकृष्ण से पूछ लिया कि मैंने कौन से ऐसे कार्य किए हैं जिसकी वजह से मुझे आपकी पत्नी बनने का अवसर मिला है। मेरे आंगन में कल्पवृक्ष है। जिसके बारे में संसारी लोग जानते भी नहीं हैं। इस पर श्रीकृष्ण ने सत्यभामा को कल्पवृक्ष के नीचे ले जाकर उनके पूर्व जन्म की कथा सुनाई।

सत्यभामा पहले जन्म में सुधर्मा नाम के ब्राह्मण की कन्या गुणवती थी जिसका विवाह सुधर्मा ने अपने शिष्य चंद्र से कर दिया था। कालांतर में सुधर्मा अपने दामाद चंद्र के साथ जंगल में गए हुए थे। वहां किसी राक्षस ने दोनों को मार दिया। सूचना मिलने पर गुणवती ने बहुत शोक किया। दरिद्रता के कारण घर का सामान बेचकर पिता-पति का अंतिम संस्कार करना पड़ा। उसके बाद जीवन निर्वाह का साधन मिलने पर गुणवती ने स्वयं को भगवान विष्णु के चरणों में समर्पित कर दिया।

कार्तिक मास आने पर गुणवती ने नियमपूर्वक व्रत-पूजन आरंभ किया। इस बीच गुणवती को कठिन ज्वर हो गया। स्वास्थ्य ठीक होने के बावजूद गुणवती ने पूजन-अर्चन नहीं छोड़ा और गंगा में स्नान करते समय प्राण-पखेरू उड़ गए। श्रीकृष्ण ने बताया कि इसी पुण्य के फल से सत्यभामा को पटरानी बनने का सौभाग्य मिला है।

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