Bhagavad Gita Shlok: सत्व, रज व तमो गुणों से भरे हैं परमात्मा
Bhagavad Gita Shlok: भगवान् ने पहले बारहवें श्लोक में कहा कि ये सात्त्विक, राजस और तामस भाव मेरे से ही होते हैं,पर मैं उनमें और वे मेरे में नहीं हैं। इस विवेचन से यह सिद्ध हुआ कि भगवान् प्रकृति और प्रकृति के कार्य से सर्वथा निर्लिप्त हैं।
Shrimad Bhagavad Gita: भगवान् ने पहले बारहवें श्लोक में कहा कि ये सात्त्विक, राजस और तामस भाव मेरे से ही होते हैं,पर मैं उनमें और वे मेरे में नहीं हैं। इस विवेचन से यह सिद्ध हुआ कि भगवान् प्रकृति और प्रकृति के कार्य से सर्वथा निर्लिप्त हैं। ऐसे ही भगवान् का शुद्ध अंश यह जीव भी निर्लिप्त है। इस पर यह प्रश्न होता है कि यह जीव निर्लिप्त होता हुआ भी बँधता कैसे है? इस का विवेचन भगवान् आगे के श्लोक में करते हैं।
त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभि: सर्वमिदं जगत्।
मोहितं नाभिजानाति मामेभ्य: परमव्ययम्॥७।१३॥
किन्तु—इन तीनों गुणरूप भावोंसे मोहित यह सम्पूर्ण जगत् (प्राणिमात्र) इन गुणों से अतीत अविनाशी मुझे नहीं जानता।
सत्त्व, रज और तम—तीनों गुणों की वृत्तियाँ उत्पन्न और लीन होती रहती हैं। उनके साथ तादात्म्य करके मनुष्य अपने को सात्त्विक, राजस और तामस मान लेता है अर्थात् उनका अपने में आरोप कर लेता है कि ‘मैं सात्त्विक, राजस और तामस हो गया हूँ।’ इस प्रकार तीनों गुणों से मोहित मनुष्य ऐसा मान ही नहीं सकता कि मैं परमात्मा का अंश हूँ। वह अपने अंशी परमात्मा की तरफ न देखकर उत्पन्न और नष्ट होने वाली वृत्तियों के साथ अपना सम्बन्ध मान लेता है— यही उसका मोहित होना है। इस प्रकार मोहित होने के कारण वह ‘मेरा परमात्मा के साथ नित्य-सम्बन्ध है’—इसको समझ ही नहीं सकता।