Srimad Bhagavad Gita: युद्ध को तैयार नहीं अर्जुन का मन, भगवद्गीता-(अध्याय-1/ श्लोक-35 (भाग-2)
Srimad Bhagavad Gita Adhyay 1 Sloka Shankya 35 Part 2: अर्जुन के मन में कहीं - न - कहीं यह बात दबी बैठी है कि यदि मैं युद्ध नहीं करूंगा, तो भी धृतराष्ट्र - पक्ष के लोग युद्ध करेंगे ही। अर्जुन के युद्ध न करने के फैसले से उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है। यह ध्यान में आते ही अर्जुन ने तुरंत यह कह दिया कि यदि वे हम पर प्रहार करें, तो भी हम उन्हें नहीं मारेंगे।
Srimad Bhagavad Gita Adhyay 1 Sloka Shankya 35 Part 2:
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एतान्न हन्तुमिच्छामि घ्नतोऽपि मधुसूदन।
अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतो: किं नु महीकृते।।
सरलार्थ - हे मधुसूदन ! मुझे मारने पर या तीनों लोकों के राज्य के लिए भी मैं इन सब को मारना नहीं चाहता, फिर पृथ्वी के लिए तो कहना ही क्या है ?
निहितार्थ - अर्जुन के मन में कहीं - न - कहीं यह बात दबी बैठी है कि यदि मैं युद्ध नहीं करूंगा, तो भी धृतराष्ट्र - पक्ष के लोग युद्ध करेंगे ही। अर्जुन के युद्ध न करने के फैसले से उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है। यह ध्यान में आते ही अर्जुन ने तुरंत यह कह दिया कि यदि वे हम पर प्रहार करें, तो भी हम उन्हें नहीं मारेंगे। अर्जुन यहीं तक नहीं रुका वरन् एक कदम और आगे बढ़ गया तथा कहा कि मैं पृथ्वी के लिए क्या, त्रिलोक के लिए भी इन लोगों की हत्या करना नहीं चाहता। अर्जुन कह रहा है कि मुझे तीनों लोकों का भी राज्य नहीं चाहिए, केवल एक लोक अर्थात् पृथ्वी-लोक की बात ही क्या है ?
संजय ने धृतराष्ट्र को पृथ्वीपति कहा था। अर्जुन अपने को धृतराष्ट्र से भी ऊपर रखने की कोशिश कर रहा है। अर्जुन भीष्म पितामह की प्रतिज्ञा को सुन चुका था और यह जानता था कि राज्यों में त्रिलोक राज्य ही सर्वोपरि है। अर्जुन के मानस - पटल पर अतीत की रेखाएं उभर चुकी थीं।
जब विचित्रवीर्य की मृत्यु हो गई थी, तब वंश - रक्षा के विचार से सत्यवती ने भीष्म को कहा था :- "तुम काशी नरेश की पुत्रकामिनी कन्याओं - अंबिका और अंबालिका के द्वारा संतान उत्पन्न कर वंश की रक्षा करो।" उस समय भीष्म ने कहा था - "मैं पुनः प्रतिज्ञा करता हूं कि मैं त्रिलोकी का राज्य, ब्रह्मा का पद और इन दोनों से अधिक मोक्ष का भी त्याग कर दूंगा, पर सत्य नहीं छोडूंगा।" भीष्म द्वारा ली गई यह दूसरी प्रतिज्ञा है।
त्रिलोक के राज्य के लिए भी अर्जुन स्वजनों की हत्या करना नहीं चाहता। यह कहकर अर्जुन स्वयं को भीष्म के समकक्ष जाने की चेष्टा कर रहा है। अर्जुन का प्रयास था वह भी ऐसा कदम उठा कर भीष्म की तरह महान कहलाए। भीष्म ने तो जीवन - भर अपनी प्रतिज्ञा का पालन किया था, पर अर्जुन त्रिलोक के राज्य की बात तो दूर, अपने खोए हुए राज्य के लिए ही युद्ध में उतर गया था।
हम सब जानते हैं की अर्जुन केवल दिखावा कर रहा है और वह भी श्रीकृष्ण से। है न, अद्भुत बात! अर्जुन की घोषणा के पीछे मात्र उसकी उक्ति थी, कृति नहीं थी। अर्जुन कहना कुछ और चाह रहा है, लेकिन वह कह कुछ और रहा है। जो कह रहा है, वह तो लिपिबद्ध है। जो कहना चाह रहा है वह अव्यक्त है अर्थात् लिखा हुआ नहीं है। उस अव्यक्त अर्थ को समझने के लिए ही मुझे स्थान - स्थान पर महाभारत की कुछ घटनाओं को संदर्भ के रूप में प्रस्तुत करना पड़ रहा है।
किसी भी वक्तव्य को उस वक्ता के जीवन से अलग नहीं किया जा सकता। यदि संदर्भ से हटाकर किसी वक्तव्य की व्याख्या होगी, तो वह भिन्न हो जाएगी। वास्तव में वक्ता के व्यक्तित्व का प्रस्फुटन वाणी द्वारा होता है। यदि कृतित्व एवं वक्तव्य में पार्थक्य होगा, तो किसी भी शब्द का प्रयोग करेंगे, तो भी उसकी व्यर्थता खुलकर प्रकट हो ही जाएगी।
अर्जुन एक नर (मनुष्य) की भूमिका में है, नारायण (भगवान) की भूमिका में नहीं है। लेकिन अर्जुन विषाद की अवस्था में अपने को नारायण के रूप में प्रतिष्ठित करने का व्यर्थ प्रयास कर रहा है। अगले श्लोकों में अर्जुन युद्ध न करने के पक्ष में अपने तर्कों को श्रीकृष्ण के सामने प्रस्तुत कर रहा है, जिसकी चर्चा अगले अंकों में की जाएगी।