Srimad Bhagavad Gita: अस्थिर चित्त से परेशान अर्जुन, भगवद्गीता-(अध्याय-1/ श्लोक संख्या- 45)

Srimad Bhagavad Gita Adhyay 1 Sloka Shankya 45: जब किसी वक्ता का मुख सूखने लगता है, तो वह बोलने में लड़खड़ाने लगता है। सही ढंग से बोल पाने में अपने को असमर्थ पाता है, लेकिन अर्जुन की बात ही निराली है।

Update: 2023-04-11 18:24 GMT
Srimad Bhagavad Gita Adhyay 1 Sloka Shankya 45 (Pic: Social Media)

Srimad Bhagavad Gita Adhyay 1 Sloka Shankya 45:

अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम्।

यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यता:।।

सरलार्थ - हा ! शोक ! हमलोग बुद्धिमान होकर भी महान पाप करने को तैयार हो गए हैं, जो राज्य एवं सुख के लोभ से स्वजनों को मारने के लिए उद्यत हो गए हैं।

निहितार्थ - कुल की चर्चा को यहां स्थगित कर अर्जुन पुनः स्वजन की तरफ लौट पड़ा है। उपर्युक्त श्लोक पर नजर डालने के पहले हम सभी अर्जुन के प्रारंभिक वक्तव्यों पर ध्यान केंद्रित करें।

29 वें श्लोक में अर्जुन ने कहा था कि मेरा मुख सूखा जा रहा है। जब किसी वक्ता का मुख सूखने लगता है, तो वह बोलने में लड़खड़ाने लगता है । सही ढंग से बोल पाने में अपने को असमर्थ पाता है, लेकिन अर्जुन की बात ही निराली है। उसका मुख ही नहीं सूख रहा है, शरीर भी कांप रहा है, उसके अंग भी शिथिल हो रहे हैं तथा उसे अपनी त्वचा में जलन का अनुभव भी हो रहा है। इन परिस्थितियों में भी अर्जुन धाराप्रवाह वक्तव्य रखे जा रहा है।

श्रीकृष्ण के सामने ऐसे विचारों को रख रहा है, जिन विचारों के प्रशंसक हमें आज भी मिलते हैं। अर्जुन अहिंसा का पुजारी है - अपनी इस छवि को बनाने में उसने सफलता पाई है। जब अर्जुन का मुख सूखा नहीं होता, उसके अंग शिथिल नहीं होते, उसे त्वचा में जलन महसूस नहीं होती, तब वह किस स्तर का वक्तव्य श्रीकृष्ण के समक्ष प्रस्तुत करता ? इसका हम अनुमान लगा सकते हैं। इसे सर्वदा स्मरण रखना चाहिए।

30 वें श्लोक में अर्जुन ने स्वीकार किया कि मेरा मन भ्रमित - सा हो रहा है। भ्रम के कारण अर्जुन स्वयं मन के स्तर पर डांवाडोल है। उसका मन उसे स्वजन के मोहपाश से बाहर निकलने नहीं दे रहा है। स्वजन की रक्षा के लिए उसे युद्ध न करना पड़े, इसके लिए उसका प्रबल मन अपने बुद्धिरूपी तरकश से तर्करूपी बाण छोड़ चुका है।

इतना करने के बाद भी उसे लग रहा है कि बात नहीं बन पा रही है। उसका अस्थिर चित्त कभी कुछ, तो कभी कुछ उससे कहलवा देता है। मोहजनित चित्त उसका पिंड नहीं छोड़ रहा। वह स्वयं में लाचार हो व्यर्थ प्रलाप भी कर जाता है। इसके लिए बड़ी चतुराई से अर्जुन ने अपने को दिग्भ्रमित भी घोषित कर दिया है। चंचल चित्तावस्था में उसके वक्तव्य विरोधाभास से भरे पड़े हैं। उसका प्रमाण उपर्युक्त यह श्लोक है।

32 वें श्लोक में अर्जुन ने बड़ी स्पष्टता से कहा था कि मुझे न तो राज चाहिए और न ही राज-सुख, पर यहां उसने ठीक इसके विपरीत कह दिया कि राज्य एवं राज-सुख के लिए ही हम लोग स्वजनों की हत्या करने जा रहे हैं। 38 वें श्लोक में अर्जुन ने कहा था कि लोभ के कारण धृतराष्ट्र-पक्ष युद्ध कर भीषण रक्तपात कर कुलक्षय करने जा रहा है।

पर, यहां अर्जुन अपने पक्ष को ही लोभी बता रहा है। 36 वें तथा 38 वें श्लोक में अर्जुन ने कहा कि आततायी का वध करने से, कुल के नाश करने के फलस्वरूप उससे उत्पन्न दोष से तथा मित्रद्रोह के कारण उसे पाप लगेगा। लेकिन इस श्लोक में अर्जुन केवल पाप से ही संतुष्ट नहीं हुआ, उसने महा-पाप यानी घोर-पाप की चर्चा की तथा साथ में यह भी कह दिया कि महापाप केवल मुझे ही नहीं वरन् श्रीकृष्ण सहित हम सभी को लगेगा।

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