ब्रह्माण्ड की अधीश्वरी महाशक्ति को हम ‘दुर्गा’ संज्ञा से अभिहित करते हैं। ऋग्वेद से लेकर देवीभागवत तक देवी के चौंसठ स्वरूप हैं। आयुदुर्गा, वेद्गर्भा, आद्यशक्ति, अंबिका, भद्रकाली, क्षमा, शिवा, मंगला, सती, मूलप्रति, पार्वती, इला आदि नाम अलग-अलग गुणों को ही उजागर करते हैं। केरल में इस महाशक्ति की भगवती, तमिलनाडु में कन्नकी और बंगाल में दुर्गा या फिर काली कहकर उपासना की जाती है।
वर्तमान युग में रामकृष्ण परमहंस काली को पूर्णत: समर्पित महापुरुष हुए। देवी महाशक्ति का उल्लेख महाभारत में दो-तीन बार हुआ है। पांडव जब विराट की नगरी में प्रविष्ट हुए थे तो उन्होंने सबसे पहले दुर्गा की उपासना की थी। युद्घ प्रारंभ होने से पूर्व श्रीष्ण ने अर्जुन से कहा था,अर्जुन इस ब्रह्माण्ड को जो धारण किए हैं, उन दुर्गा का स्मरण करो, तुम्हारी विजय उन्हीं की कृपा से होगी ।
दुर्गा और कोई नहीं स्वयं काली है। शुंभ-निशुंभ के अत्याचारों से पीडि़त होकर जब देवता मां दुर्गा का स्मरण कर रहे थे तो पार्वती ने पूछा,आप लोग किसका स्मरण कर रहे हैं? पार्वती स्वयं अवगत नहीं थीं कि तभी उनके जीव-कोश से उद्भासित शिवा बोलीं,ये लोग मेरी स्तुति कर रहे हैं। तभी पार्वती की देह से देदीप्यमान शिवा मां प्रकट हुईं। ऐसा होने पर पार्वती का शरीर काला पड़ गया। अत: उनका नाम काली अथवा कालिका पड़ा।
काली काल की देवी हैं, मगर उनके महामाया रूप को समझने, उसमें डूबने के लिए काली को मां रूप में बुलाना जरूरी है। श्रीकृष्ण के जन्म वाली रात की अर्थात अष्टमी और जन्म के समय का शून्य काल, गरजती बिजलियां, गर्जन करते मेघ, पुरुषोत्तम स्वामी के अनुसार यह पूरा चित्र मां काली का है। मां काली की इस घुमडऩ भरी कोख से भाद्रपद की अष्टमी को श्रीकृष्ण का जन्म हुआ। कृष्ण को शून्यकाल में जन्म देकर मां स्वयं गोकुल में अवतरित हुईं।
मां कहती हैं,मैं और ब्रह्म एक ही हैं। मुझमें और ब्रह्म में लेशमात्र भी भेद नहीं। जो वे हैं, वही मैं हूं। जो मैं हूं, वही वे हैं। भेद की प्रतीति बुद्घिभ्रम के कारण होती है।तात्पर्य यह कि शक्ति एक ही है। आराधकों के गुण, कार्य के भेद से, उसके काली अथवा महाकाली, महासरस्वती, महालक्ष्मी, शिव, विष्णु, ब्रह्म के समानधर्मारूप हो जाते हैं। शक्ति के बिना कोई पुरुषार्थ पुरुषार्थ तक पहुंच ही नहीं पाता। अग्नि में दाहकता न हो तो अग्नि अपना अर्थ खो देगी। इसी तरह पुरुष में अगर पुंसत्व न हो तो वह काहे का पुरुष! वह तो कापुरुष है। इसीलिए शक्ति तत्व की प्रशंसा में कहा गया :एकैव शक्ति: परमेश्वरस्य,विविधा वदन्ति व्यवहार काले,भोगे भवानी पुरुषेषु लक्ष्मी:,कोपे तु दुर्गा प्रलये तु काली ।
शक्ति के सिद्घान्त को जिन आराधकों ने परखा है उनका कहना है कि शक्ति की उपासना से लौकिक वैभव के अतिरिक्त ज्ञान की भी प्राप्ति होती है। ज्ञान का सीधा-सा अर्थ है शिवत्व को प्राप्त करना। नवरात्र के पहले तीन दिनों में दुर्गा या काली की जो उपासना होती है उसके परिणामस्वरूप हमारे भीतर जो आसुरी वृत्ति के प्रतीक असुरगण हैं उनका नाश हो जाता है। नवरात्र के मध्य के तीन दिनों में महालक्ष्मी की उपासना का विधान है। ऐसा इसलिए कि आसुरी वृत्तियों के नाश के बाद अन्त:संपन्नता आए।
दरअसल संपन्नता भीतर की ही होती है। भले ही व्यक्ति करोड़पति हो, मगर अगर भयंकर रूप से कृपण हो तो दरिद्र ही दिखेगा। इसलिए मध्य के दिनों में आराधक मां से अन्त:सम्पन्नता मांगते हैं। जब भीतर श्रीगुणों की वृद्घि होती है तो अंत के दिनों में महासरस्वती का पूजन होता है। मातृश्री का श्वेत वस्त्रालंकार आत्मज्ञान का द्योतक है। महासरस्वती की आराधना से नादब्रह्म की मधुरध्वनि कानों में गूंजने लगती है। यहां आते-आते साधक अपने जीवभाव को भूलकर सत् चित् आनन्दस्वरूप हो जाता है। जब तक मां सरस्वती का निर्मल आशीष न बरसे, ज्ञान चक्षु खुल ही नहीं पाते। इसीलिए महासरस्वती की आराधना का विधान अंत के दिनों में है ।
अध्यात्म की शब्दावली मेंनवरात्र शक्ति के धवल तल पर पहुंचने की एक ऐसी विधि है, जिसमें त्रिभुवन का रहस्य छिपा है। इसलिए महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती स्वयं हमारे भीतर के तम्, रज्, सत् नाम वाले पर्दों के पीछे छिपी स्वयं हमारी ही छवियां हैं। साधना के द्वारा हम इन तीनों तलों को पारकर दसवें दिन स्वयं को विजेता के रूप में प्रतिष्ठित करते हैं। यही नवरात्रियों का प्रतीकार्थ है। इसे साधना का निष्कर्ष मानना चाहिए।