इस दिन भगवान शिव योगी से बने गृहस्थ, जानिए क्यों मनाते हैं महाशिवरात्रि का महापर्व
हर चंद्र मास का चौदहवाँ दिन अथवा अमावस्या से पूर्व का एक दिन शिवरात्रि के नाम से जाना जाता है। एक साल में में आने वाली सभी शिवरात्रियों में से, महाशिवरात्रि, को सर्वाधिक महत्वपूर्ण मानते है। क्यों कि इस शिवरात्रि को प्रकृति व पर्व का मिलन हुआ था। भगवान शिव योगी जीवन से गृहस्थ जीवन की ओर रुख किया था।
लखनऊ : हर चंद्र मास का चौदहवाँ दिन अथवा अमावस्या से पूर्व का एक दिन शिवरात्रि के नाम से जाना जाता है। एक साल में में आने वाली सभी शिवरात्रियों में से, महाशिवरात्रि, को सर्वाधिक महत्वपूर्ण मानते है। क्यों कि इस शिवरात्रि को प्रकृति व पर्व का मिलन हुआ था। भगवान शिव योगी जीवन से गृहस्थ जीवन की ओर रुख किया था।
ये महा शिवरात्रि फरवरी-मार्च माह में आती है। इस रात, ग्रह का उत्तरी गोलार्द्ध इस प्रकार अवस्थित होता है कि मनुष्य भीतर ऊर्जा का प्राकृतिक रूप से ऊपर की और जाती है। यह एक ऐसा दिन है, जब प्रकृति मनुष्य को उसके आध्यात्मिक शिखर तक जाने में मदद करती है।
क्षमा याचना का दिन
भगवान शिव मनुष्य के सभी कष्टों व पापों को हरने वाले हैं। सांसरिक कष्टों से एकमात्र भगवान शिव ही मुक्ति दिलाते हैं। इस कारण प्रत्येक हिंदु मास के अंतिम दिन जाने-अनजाने मे किए हुए पाप के लिए क्षमा मांगने का प्रावधान है। शास्त्रों के अनुसार, शुद्धि एवं मुक्ति के लिए रात्रि के निशीकाल में की गई साधना सर्वाधिक फलदायक होती है।
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महाशिवरात्रि साल के अंत में आती है अत: इसे महाशिवरात्रि के रूप में मनाते है एवं इस दिन पूरे साल में हुई गलतियों के लिए क्षमा याचना करते हैं।महाशिवरात्रि का महा उत्सव फाल्गुन मास की त्रयोदशी के दिन मनाई जाती है। मान्यता है की महाशिवरात्रि के पावन पर्व पर ही भोलेनाथ और माता पार्वती विवाह के पावन सूत्र में बंधे थे, कुछ विद्वानों का यह भी मानना है कि इस दिन महादेव ने कालकूट नाम का विष पान कर अपने कंठ में रख लिया था कहा जाता है कि यह विष सागर मंथन में निकला था।
पौराणिक कथा
महाशिवरात्रि के इस पवित्र अवसर से एक पौराणिक कथा भी जुडी हैं। प्राचीन काल में, एक जंगल में गुरूद्रूह नाम के एक शिकारी रहते थे जो जंगली जानवरों के शिकार करके वह अपने परिवार का पालन-पोषण किया करते थे। एक बार शिवरात्रि के दिन ही जब वह शिकार के लिए गया, तब संयोगवश पूरे दिन खोजने के बाद भी उसे कोई जानवर शिकार के लिए न मिला, चिंतित हो कर कि आज उसके बच्चों, पत्नी एवं माता-पिता को भूखा रहना पडेगा, वह सूर्यास्त होने पर भी एक जलाशय के समीप गया और वहां एक घाट के किनारे एक पेड पर अपने साथ थोडा सा जल पीने के लिए लेकर, चढ गया क्योंकि उसे पूरी उम्मीद थी कि कोई न कोई जानवर अपनी प्यास बुझाने के लिए यहां ज़रूर आयेगा। वह पेड़ “बेल-पत्र” का था और इसके नीचे शिवलिंग भी था जो सूखे बेलपत्रों से ढक जाने के कारण दिखाई नहीं दे रहा था। रात का पहला प्रहर बीतने से पहले ही एक हिरणी वहां पर पानी पीने के लिए आई। उसे देखते ही शिकारी ने अपने धनुष पर बाण साधा। ऎसा करते हुए, उसके हाथ के धक्के से कुछ पत्ते एवं जल की कुछ बूंदे पे़ड के नीचे बने शिवलिंग पर गिरीं और अनजाने में ही शिकारी की पहले प्रहर की पूजा हो गई। हिरणी ने जब पत्तों की खड़खड़ाहट सुनी, तो घबरा कर ऊपर की ओर देखा और भयभीत हो कर, शिकारी से, कांपते हुए बोली- “मुझे मत मारो।”
शिकारी ने कहा कि वह और उसका परिवार भूखा है इसलिए वह उसे नहीं छोड़ सकता। हिरणी ने शपथ ली कि वह अपने बच्चों को अपने स्वामी को सौंप कर लौट आयेगी। तब वह उसका शिकार कर ले। शिकारी को उसकी बात का विश्वास नहीं हो रहा था। उसने फिर से शिकारी को यह कहते हुए अपनी बात का भरोसा करवाया कि जैसे सत्य पर ही धरती टिकी है। समुद्र मर्यादा में रहता है और झरनों से जल-धाराएँ गिरा करती हैं वैसे ही वह भी सत्य बोल रही है। शिकारी को उस पर दया आ गयी और उसने “जल्दी लौटना” कहकर ,उस हिरनी को जाने दिया। थोडी ही देर गुजरी कि एक और हिरनी वहां पानी पीने आई, शिकारी सावधान हो, तीर सांधने लगा और ऎसा करते हुए, उसके हाथ के धक्के से फिर पहले की ही तरह थोडा जल और कुछ बेलपत्र नीचे शिवलिंग पर जा गिरे और अनायास ही शिकारी की दूसरे प्रहर की पूजा भी हो गई। इस हिरनी ने भी भयभीत हो कर, शिकारी से जीवनदान की याचना की, लेकिन उसके अस्वीकार कर देने पर, हिरनी ने उसे लौट आने का वचन, यह कहते हुए दिया कि उसे ज्ञात है कि जो वचन दे कर पलट जाता है, उसका अपने जीवन में संचित पुण्य नष्ट हो जाता है।
उस शिकारी ने पहले की तरह, इस हिरनी के वचन का भी भरोसा कर उसे जाने दिया। अब तो वह इसी चिंता से व्याकुल था कि उन में से शायद ही कोई हिरनी लौट के आये और अब उसके परिवार का क्या होगा। इतने में ही उसने जल की ओर आते हुए एक हिरण को देखा, उसे देखकर वनेचर (शिकारी ) को बडा हर्ष हुआ, अब फिर धनुष पर बाण चढाने से उसकी तीसरे प्रहर की पूजा भी स्वत: ही संपन्न हो गई लेकिन पत्तों के गिरने की आवाज़ से वह हिरन सावधान हो गया। उसने व्याध (शिकारी ) को देखा और पूछा क्या करना चाहते हो। वह बोला-अपने कुटुंब को भोजन देने के लिए तुम्हारा वध करूंगा। वह मृग प्रसन्न हो कर कहने लगा कि मैं धन्य हूं कि मेरा ये ह्वष्ट-पुष्ट शरीर किसी के काम आएगा, परोपकार से मेरा जीवन सफल हो जायेगा, लेकिन एक बार मुझे जाने दो ताकि मैं अपने बच्चों को उनकी माता के हाथ में सौंप कर और उन सबको धीरज बंधा कर यहां लौट आऊं। शिकारी का ह्रदय, उसके पापपुंज नष्ट हो जाने से अब तक शुद्ध हो गया था इसलिए वह कुछ विनम्र वाणी में बोला कि जो-जो यहां आये, सभी बातें बनाकर चले गये और अब तक नहीं लौटे, यदि तुम भी झूठ बोलकर चले जाओगे, तो मेरे परिजनों का क्या होगा। अब हिरन ने यह कहते हुए उसे अपने सत्य बोलने का भरोसा दिलवाया कि यदि वह लौटकर न आये; तो उसे वह पाप लगे जो उसे लगा करता है जो सामर्थ्य रहते हुए भी दूसरे का उपकार नहीं करता। व्याध ने उसे भी यह कहकर जाने दिया कि “शीघ्र लौट आना।” रात्रि का अंतिम प्रहर शुरू होते ही उस वनेचर के हर्ष की सीमा न थी क्योंकि उसने उन सब हिरन-हिरनियों को अपने बच्चों सहित एकसाथ आते देख लिया था। उन्हें देखते ही उसने अपने धनुष पर बाण रखा और पहले की ही तरह उसकी चौथे प्रहर की भी शिव-पूजा संपन्न हो गई ।
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शिव कृपा
अब उस शिकारी के शिव कृपा से सभी पाप भस्म हो गये इसलिए वह सोचने लगा, “ओह, ये पशु धन्य हैं जो ज्ञानहीन हो कर भी अपने शरीर से परोपकार करना चाहते हैं लेकिन धिक्कार है मेरे जीवन को कि मैं अनेक प्रकार के कुकृत्यों से अपने कुटुंब का पालन करता रहा। अब उसने अपना बाण रोक लिया तथा सब मृगों को यह कहकर कि “वे धन्य हैं”। वापिस जाने दिया। उसके ऎसा करने पर भगवान् शंकर ने प्रसन्न हो कर तत्काल उसे अपने दिव्य स्वरूप का दर्शन करवाया तथा उसे सुख-समृद्धि का वरदान देकर गुह” नाम प्रदान किया। यह वही गुह थे जिनके साथ भगवान् श्री राम ने मित्रता की थी। अत: यह भी माना जाता है कि, शिवरात्रि के दिन व्रत करने से सारे पाप से मुक्त हो जाते है और महादेव का दर्शन कर स्वर्ग को प्राप्त होते हैं। इस वर्ष महाशिवरात्रि शुक्रवार 21 फरवरी के दिन है।
पूजा व उपवास
ऐसी मान्यता है कि इस दिन भगवान शंकर एवं मां पार्वती का विवाह सम्पन्न हुआ था तथा इसी दिन प्रथम शिवलिंग का प्राकट्य हुआ था। शिव रात्रि के दिन भगवान शिव की आराधना की जाती है। इस दिन शिव भक्त पूरे दिन उपवास रखते हैं, भगवान शिव का अभिषेक करते हैं तथा पंचाक्षरी मंत्र का जाप करते हैं। भगवान शिव सब देवों में वृहद हैं, सर्वत्र समरूप में स्थित एवं व्यापक हैं। इस कारण वे ही सबकी आत्मा हैं। भगवान शिव निष्काल एवं निराकार हैं। भगवान शिव साक्षात ब्रह्म का प्रतीक है तथा शिवलिंग भगवान शंकर के ब्रह्म तत्व का बोध करता है। इसलिए भगवान शिव की पूजा में निष्काल लिंग का प्रयोग किया जाता है। सारा चराचर जगत बिन्दु नाद स्वरूप है। बिन्दु देव है एवं नाद शिव इन दोनों का संयुक्त रूप ही शिवलिंग है। बिन्दु रूपी उमा देवी माता है तथा नाद स्वरूप भगवान शिव पिता हैं। जो इनकी पूजा सेवा करता है उस पुत्र पर इन दोनों माता-पिता की अधिकाधिक कृपा बढ़ती रहती है। वह पूजक पर कृपा करके उसे अतिरिक्त ऐश्वर्य प्रदान करते हैं। आंतरिक आनंद की प्राप्ति के लिए शिवलिंग को माता-पिता के स्वरूप मानकर उसकी सदैव पूजा करनी चाहिए।
पंचाक्षरी मंत्र
भगवान शिव के पंचाक्षरी मंत्र के जप से ही मनुष्य सम्पूर्ण सिद्धियों को प्राप्त कर सकता है। इस मंत्र के आदि में ॐ लगाकर ही सदा इसके जप करना चाहिए। भगवान शिव का निरंतर चिंतन करते हुए इस मंत्र का जाप करें। भगवान शिव की पूजा विधि बहुत सरल है। माना जाता है कि शिव को यदि सच्चे मन से याद कर लिया जाये तो शिव प्रसन्न हो जाते हैं। उनकी पूजा में केवल जलाभिषेक, बिल्वपत्रों को चढ़ाने और रात्रि भर इनका जागरण करने मात्र से मेहरबान हो जाते हैं। वैसे तो हर सप्ताह सोमवार का दिन भगवान शिव की आराधना का दिन है।
महाशिवरात्रि का व्रत हमसब के लिए है। भोलेभंडारी तो सबके लिए है उनकी महिमा का गुणगान जितना भी किया जाए उतना ही कम है। वे भक्तों के पान फूल से भी प्रसन्न हो जाते हैं। बस भाव होना चाहिए। इस व्रत को जनसाधारण स्त्री-पुरुष , बच्चा, युवा और वृ्द्ध सभी करते है। धनवान,हो या निर्धन,श्रद्धालु अपने सामर्थ्य के अनुसार, इस दिन रुद्राभिषेक और यज्ञ करते हैं,पूजन करते हैं।और भाव से भगवान शिव को प्रसन्न करने का प्रयास करते हैं।
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महाशिवरात्रि का ये महाव्रत हमें प्रदोषनिशित काल में ही करना चाहिए। जो व्यक्ति इस व्रत को पूर्ण विधि-विधान से करने में असमर्थ हो, उन्हें रात्रि के प्रारम्भ में तथा अर्धरात्रि में भगवान शिव का पूजन अवश्य करना चाहिए। फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को शिवरात्रि पर्व मनाया जाता है। माना जाता है कि सृष्टि के प्रारंभ में इसी दिन मध्यरात्रि भगवान शंकर का ब्रह्मा से रुद्र के रूप में अवतरण हुआ था। प्रलय की बेला में इसी दिन प्रदोष के समय भगवान शिव तांडव करते हुए ब्रह्मांड को तीसरे नेत्र की ज्वाला से समाप्त कर देते हैं। इसीलिए इसे महाशिवरात्रि अथवा कालरात्रि कहा गया।
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