नारी स्वातंत्रय का यह नया अध्याय है। नारी मुक्ति के इस अध्याय में एक बार फिर उसके बगावती तेवर मुखर हो रहे हैं। इस बार भी नारी स्वातंत्रय के इस आंदोलन की शुरुआत दक्षिण कोरिया से हुई है। पिछले साल ही दक्षिण कोरिया की महिलाओं ने ‘एस्केप द कार्सेट‘ मुहिम चलाई थी। जिसके तहत महिलाओं ने अपने बाल मुंडवा कर बिना मेकअप वाली तस्वीरें सोशल मीडिया पर पोस्ट करके कोहराम मचा दिया था। महिलाओं के बगावत की नई आवाज हैश टैग नो ब्रा है। हालांकि ब्रा के खिलाफ अभियान सबसे पहले 1968 में सामने आया था जब मिस अमेरिका ब्यूटी पीजेंट के आयोजन के समय तकरीबन 400 महिलाओं ने इक्कट्ठा होकर अपने ब्रा समेत तमाम सामान जिन्हें वे दमन का प्रतीक मानती थीं उसे कूड़ेदान में फेंक दिया। इस कूड़ेदान का फ्रीडम ट्रैश केन कहा गया। लेकिन 51 साल बाद यह आंदोलन उसी स्वरूप में फिर जीवंत हो उठा है। यह बात दीगर है कि इस बार इसकी अगुवाई दक्षिण कोरिया की महिलाएं कर रही हैं।
कभी घरों में महिलाओं के अंडरगार्मेंट सुखाते समय अरगनी पर उसे दूसरे कपड़ों के नीचे डाला जाता था। महिलाओं के लिए समीज पहनने का चलन था। फिल्म क्वीन में सेंसर बोर्ड ने कंगना रौनात की ब्रा को ब्लर कर दिया था। लेकिन आज वही ब्रा महिलाओं के गुस्से के इजहार का हथियार बन बैठी है। इसकी शुरुआत दक्षिण कोरिया की गायिका सुली के अपने इंस्टाग्राम अकाउंट पर बगैर ब्रा वाली तस्वीर शेयर करने से हुई। एक और गायिका हृासा ने अपनी बिना ब्रा वाली फोटो शेयर करके इस अभियान को आगे बढ़ा दिया है। इन दिनों हैश टैग नो ब्रा नाम की मुहिम दक्षिण कोरिया में सुर्खियां बटोर रही है। 2016 में भी ब्रा विरोधी अभियान ने सोशल मीडिया पर जोर पकड़ा था। तब इसकी वजह 17 साल की कैटलीन जुबिक बनीं। जो बिना ब्रा के टाॅप पहन कर स्कूल चली गई थीं। एक टीचर ने उनसे ऐसा करने की वजह पूछा, कैटलीन ने इसका जिक्र स्नैपचैट पर करके फैला दिया। उन्हें बहुत समर्थन मिला। नो ब्रा, नो प्राॅब्लम मुहिम शुरू हुई। आज महिलाएं बिना ब्रा के कपड़े पहन कर अपनी तस्वीरें शेयर कर रही हैं। इसे पहनना न पहनना उनकी निजी आजादी का मसला हो गया है। दक्षिण कोरिया उन देशों में है जहां सौंदर्य प्रसाधनों का बहुत बड़ा बाजार है। यह देश ब्यूटी प्रोडक्ट्स का बड़ा उत्पादक भी है। महिला सौंदर्य के प्रतिमान को यहां खासा महत्व मिलता है। शायद यही वजह है कि दुनिया में सबसे अधिक प्लास्टिक सर्जरी दक्षिण कोरिया की महिलाएं कराती हैं। यहां प्लास्टिक सर्जरी के मार्फत आंखों को सुंदर दिखाने का चलन है। यहां पर गेज रेप आम बात है।
ब्रा एक फ्रेंच शब्द का छोटा रूप है। फ्रेंच भाषा में Brassiere कहते हैं, जिसका अर्थ शरीर का ऊपरी हिस्सा होता है। पहली मार्डन ब्रा 1869 में फ्रांस की हर्मिनी कैडोल ने एक जैकेटनुमा पोशाक, जिस कार्सेट कहते हैं, को दो टुकड़ों में काटकर बनाया। इसका ऊपरी हिस्सा ही ब्रा की तरह पहना जाने लगा। 1907 में वोग पत्रिका ने इसे ब्रा नाम दिया। 1911 में इस शब्द को आक्सफोर्ड डिक्शनरी में जोड़ा गया। ठीक दो साल बाद ब्रिटेन की फेलटस ने इसे रेशम का बनाकर पेटेंट कराया। 1921 में अमेरिकी डिजाइनर आइडा रोजेथेल के दिमाग में इसे लेकर कप के अलग-अलग साइज का आइडिया आया। जोंग स्योंग यू ने 2014 में नो प्राब्लम शीर्षक से बिना ब्रा के रहने वाली महिलाओं के अनुभवों पर एक डाक्यूमेंट्री बनाई। दूसरी डाक्यूमेंट्री 24 वर्षीय कोरियाई माडल पार्क आई सोल ने तीन दिन तक बिना ब्रा पहने रहने के अपने अनुभव पर उन्होंने ही बनाई है। ब्रा पहनने से ब्रेस्ट कैंसर होने के मिथक की वैज्ञानिक पुष्टि आज तक नहीं हो पाई है। बावजूद इसके हर साल 13 अब्टूबर का दिन नो ब्रा डे होता है।
समाज के किसी भी तबके को अपने अनुसार रहने का हक है। जीने का हक है। कपड़े पहनने का हक है। वह भी तब जबकि शहरीकरण में समाज ने अपना आकार और अस्तित्व दोनों खो दिया है। वह समाज जिसका भय होता है, वह केवल उन लोगों का रह गया है। जिनके रिश्ते गांव से हैं। भले ही वह गहरे न हों। नो ब्रा अभियान गुस्से की उपज है। महिलाओं के गुस्से की इज्जत की जानी चाहिए। गुस्से को सुना जाना चाहिए। जिस कारण भी गुस्सा है उसे दूर किया जाना चाहिए। लेकिन प्रदर्शनकरियों के लिए भी लक्ष्मण रेखा का ख्याल रखना अनिवार्य है। यह रेखा कम से कम भारत में ज्यादा गहरी और अनिवार्य है। इसलिए यह देखना होगा कि महिला सशक्तीकरण का यह आंदोलन टाॅपलेस न हो। फ्री द नेपल मूवमेंट की ओर न जाए।
हमारे यहां संतों और महिलाओं को ढीले वस्त्र पहनाए गये हैं। सैनिकों को टाइट कपड़ों में रहने के लिए कहा गया है। खान-पान की तरह परिधान भी चित और दिमाग की स्थिति को नियंत्रित करते हैं। अपने भी और दूसरों के भी। स्त्री महज सौंदर्य की वस्तु नहीं हो सकती है। उसे हमेशा सुंदर दिखने के लिए मजबूर नहीं किया जाना चाहिए। बाहरी सुंदरता की जगह उसकी आंतरिक सुंदरता का एहसास करना जरूरी है। इसमें उतर कर, सराबोर होकर उसका मूल्यांकन किया जाना चाहिए। यदि हम उसकी आंतरिक सुंदरता तक पहुंचने में कामयाब हो सकेंगे तो गेज रेप के जिस चलन से परेशान होकर गाहे-बगाहे स्त्रियों को अपनी सुदंरता दिखाने, गढ़ने और बढ़ाने को लेकर इस्तेमाल हो रही चीजों के प्रति गुस्से का भाव नहीं आएगा। तब वह खुद के लिए सुंदर दिखना चाहेगी। खुद के लिए सुंदर दिखने की चाह किसी प्रतिशोध, लोभ या आकर्षित करने के लिए नहीं होगी। जो खुद सुंदर दिखना चाहता है वह अपने आस-पास भी एक सुंदर संसार रचता है, आस-पास की सभी चीजों को सुंदर बनाता है। यह प्रकृति और प्रवृति एक क्रिया नहीं विशेषण होगी। क्रिया के बराबर और विपरीत प्रतिक्रिया भी होती है। लेकिन विशेषण के साथ ऐसा नहीं होता। वह सकारात्मक संभावनाओं और स्थितियों को द्विगुणित करता है, बहुगुणित करता है।
कभी घरों में महिलाओं के अंडरगार्मेंट सुखाते समय अरगनी पर उसे दूसरे कपड़ों के नीचे डाला जाता था। महिलाओं के लिए समीज पहनने का चलन था। फिल्म क्वीन में सेंसर बोर्ड ने कंगना रौनात की ब्रा को ब्लर कर दिया था। लेकिन आज वही ब्रा महिलाओं के गुस्से के इजहार का हथियार बन बैठी है। इसकी शुरुआत दक्षिण कोरिया की गायिका सुली के अपने इंस्टाग्राम अकाउंट पर बगैर ब्रा वाली तस्वीर शेयर करने से हुई। एक और गायिका हृासा ने अपनी बिना ब्रा वाली फोटो शेयर करके इस अभियान को आगे बढ़ा दिया है। इन दिनों हैश टैग नो ब्रा नाम की मुहिम दक्षिण कोरिया में सुर्खियां बटोर रही है। 2016 में भी ब्रा विरोधी अभियान ने सोशल मीडिया पर जोर पकड़ा था। तब इसकी वजह 17 साल की कैटलीन जुबिक बनीं। जो बिना ब्रा के टाॅप पहन कर स्कूल चली गई थीं। एक टीचर ने उनसे ऐसा करने की वजह पूछा, कैटलीन ने इसका जिक्र स्नैपचैट पर करके फैला दिया। उन्हें बहुत समर्थन मिला। नो ब्रा, नो प्राॅब्लम मुहिम शुरू हुई। आज महिलाएं बिना ब्रा के कपड़े पहन कर अपनी तस्वीरें शेयर कर रही हैं। इसे पहनना न पहनना उनकी निजी आजादी का मसला हो गया है। दक्षिण कोरिया उन देशों में है जहां सौंदर्य प्रसाधनों का बहुत बड़ा बाजार है। यह देश ब्यूटी प्रोडक्ट्स का बड़ा उत्पादक भी है। महिला सौंदर्य के प्रतिमान को यहां खासा महत्व मिलता है। शायद यही वजह है कि दुनिया में सबसे अधिक प्लास्टिक सर्जरी दक्षिण कोरिया की महिलाएं कराती हैं। यहां प्लास्टिक सर्जरी के मार्फत आंखों को सुंदर दिखाने का चलन है। यहां पर गेज रेप आम बात है।
ब्रा एक फ्रेंच शब्द का छोटा रूप है। फ्रेंच भाषा में Brassiere कहते हैं, जिसका अर्थ शरीर का ऊपरी हिस्सा होता है। पहली मार्डन ब्रा 1869 में फ्रांस की हर्मिनी कैडोल ने एक जैकेटनुमा पोशाक, जिस कार्सेट कहते हैं, को दो टुकड़ों में काटकर बनाया। इसका ऊपरी हिस्सा ही ब्रा की तरह पहना जाने लगा। 1907 में वोग पत्रिका ने इसे ब्रा नाम दिया। 1911 में इस शब्द को आक्सफोर्ड डिक्शनरी में जोड़ा गया। ठीक दो साल बाद ब्रिटेन की फेलटस ने इसे रेशम का बनाकर पेटेंट कराया। 1921 में अमेरिकी डिजाइनर आइडा रोजेथेल के दिमाग में इसे लेकर कप के अलग-अलग साइज का आइडिया आया। जोंग स्योंग यू ने 2014 में नो प्राब्लम शीर्षक से बिना ब्रा के रहने वाली महिलाओं के अनुभवों पर एक डाक्यूमेंट्री बनाई। दूसरी डाक्यूमेंट्री 24 वर्षीय कोरियाई माडल पार्क आई सोल ने तीन दिन तक बिना ब्रा पहने रहने के अपने अनुभव पर उन्होंने ही बनाई है। ब्रा पहनने से ब्रेस्ट कैंसर होने के मिथक की वैज्ञानिक पुष्टि आज तक नहीं हो पाई है। बावजूद इसके हर साल 13 अब्टूबर का दिन नो ब्रा डे होता है।
समाज के किसी भी तबके को अपने अनुसार रहने का हक है। जीने का हक है। कपड़े पहनने का हक है। वह भी तब जबकि शहरीकरण में समाज ने अपना आकार और अस्तित्व दोनों खो दिया है। वह समाज जिसका भय होता है, वह केवल उन लोगों का रह गया है। जिनके रिश्ते गांव से हैं। भले ही वह गहरे न हों। नो ब्रा अभियान गुस्से की उपज है। महिलाओं के गुस्से की इज्जत की जानी चाहिए। गुस्से को सुना जाना चाहिए। जिस कारण भी गुस्सा है उसे दूर किया जाना चाहिए। लेकिन प्रदर्शनकरियों के लिए भी लक्ष्मण रेखा का ख्याल रखना अनिवार्य है। यह रेखा कम से कम भारत में ज्यादा गहरी और अनिवार्य है। इसलिए यह देखना होगा कि महिला सशक्तीकरण का यह आंदोलन टाॅपलेस न हो। फ्री द नेपल मूवमेंट की ओर न जाए।
हमारे यहां संतों और महिलाओं को ढीले वस्त्र पहनाए गये हैं। सैनिकों को टाइट कपड़ों में रहने के लिए कहा गया है। खान-पान की तरह परिधान भी चित और दिमाग की स्थिति को नियंत्रित करते हैं। अपने भी और दूसरों के भी। स्त्री महज सौंदर्य की वस्तु नहीं हो सकती है। उसे हमेशा सुंदर दिखने के लिए मजबूर नहीं किया जाना चाहिए। बाहरी सुंदरता की जगह उसकी आंतरिक सुंदरता का एहसास करना जरूरी है। इसमें उतर कर, सराबोर होकर उसका मूल्यांकन किया जाना चाहिए। यदि हम उसकी आंतरिक सुंदरता तक पहुंचने में कामयाब हो सकेंगे तो गेज रेप के जिस चलन से परेशान होकर गाहे-बगाहे स्त्रियों को अपनी सुदंरता दिखाने, गढ़ने और बढ़ाने को लेकर इस्तेमाल हो रही चीजों के प्रति गुस्से का भाव नहीं आएगा। तब वह खुद के लिए सुंदर दिखना चाहेगी। खुद के लिए सुंदर दिखने की चाह किसी प्रतिशोध, लोभ या आकर्षित करने के लिए नहीं होगी। जो खुद सुंदर दिखना चाहता है वह अपने आस-पास भी एक सुंदर संसार रचता है, आस-पास की सभी चीजों को सुंदर बनाता है। यह प्रकृति और प्रवृति एक क्रिया नहीं विशेषण होगी। क्रिया के बराबर और विपरीत प्रतिक्रिया भी होती है। लेकिन विशेषण के साथ ऐसा नहीं होता। वह सकारात्मक संभावनाओं और स्थितियों को द्विगुणित करता है, बहुगुणित करता है।