आज से राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की 150वीं जयंती शुरू हो रही है। ऐसे में यह जरूरी हो जाता है कि हम गांधी जी को जानें। मार्टिन लूथर किंग, नेल्सन मंडेला, बराक ओबामा, गांधी की अहमियत को कबूल करते हैं। भौतिकविद हॉकिंग्स हों या चे ग्वेवरा सब दुनिया को समझने के लिए गांधी को समझना जरूरी मानते हैं। चे ग्वेवरा ने तो राजघाट पर सिर झुकाते हुए कबूल किया था कि क्यूबा के लोगों को पता ही नहीं था कि लड़ाई का एक रास्ता यह भी है। निश्चय ही उनका संकेत गांधी के सत्याग्रह से था। दक्षिण अफ्रीका में टॉल्सटॉय ने गांधी को पहचाना और अपने एक मित्र को लिखा, ‘‘यह आदमी तुमुल कोलाहल के बीच बैठकर साधना सिद्धि तक पहुंचने में लगा है। हमें इस पर नजर रखनी चाहिए।‘‘ दुनिया भर के 60 संग्रहालय गांधी की वस्तुएं हैं। चीनी नेता चियांग काई शेक, आइंस्टीन और हिटलर जैसे लोगों ने गांधी से पत्र व्यवहार को अपनी उपलब्धि माना। एप्पल के संस्थापक स्टीव जॉब्स गांधी जैसा चश्मा पहनकर खुश होते थे। अमेरिकी उद्योगपति हेनरी फोर्ड उनके अनुयायी थे। इटली के राजनैतिक दल रैडिकली इटैलियानी के झंडे पर गांधी का चित्र है। दक्षिण अफ्रीका, लाइबेरिया, फिलस्तीन जैसे देशों की मुद्राओं पर गांधी के चित्र हैं। येरूशलम और रमल्ला के बीच इजरायली सरकार द्वारा बनाई गई फिलस्तीन को अलग करने वाली दीवार पर गांधी उकेरे गए हैं। न्यूयार्क, पीटर्सबर्ग, बीजिंग और लंदन में गांधी की मूर्तियां हैं। चार महाद्वीपों और बारह देशों के जनांदोलनों पर इनका प्रभाव है। 93 वर्षीय मूर्तिकार राम वी शुतार ने 350 से ज्यादा गांधी की मूर्तियां विदेशों के लिए बनाई हैं।
दुनिया के किसी भी हिस्से में सत्य और अहिंसा का जिक्र बिना गांधी को याद किए पूरा नहीं होता है। वैश्विक फलक पर गांधी निरंतर सार्थक और प्रासंगिक होते जा रहे हैं। पर भारत और ब्रिटेन केवल दो ऐसे देश हैं, जहां गांधी को आलोचना के दौर से गुजरना पड़ा। ब्रिटिश औपनिवेशिक प्राधिकारी इन्हें ‘भारतीय अशांति का पिता’ कहते थे। ब्रिटेन की आलोचना का तर्क तो समझा जा सकता है क्योंकि गांधी के चलते ही उनके हाथ से भारत की सत्ता चली गई। पर गांधी के इस देश में उनकी आलोचना का कोई मजबूत तर्क दिखाई नहीं देता है। आधार सिर्फ यह है कि गांधी के खिलाफ बोलकर जगह हासिल की जा सकती है। ऐसा इसलिए है कि अब तक गांधी के खिलाफ बोलने वाले जो भी लोग मिले उनमें से किसी ने भी गांधी को पढ़ा ही नहीं था। यह सच भी है कि गांधी को जो पढ़ लेगा फिर उसके पास गांधी को खारिज करने के लिए कुछ बचेगा ही नहीं।
अंग्रेजों और दक्षिण अफ्रीकी देशों के बीच लड़े गए द्वितीय बोएर युद्ध में बतौर सैनिक अपनी सेवाएं देने वाले गांधी के कहे पर चलना भारत के लोगों को मुश्किल हो रहा है। गांधी ने इसी युद्ध के दौरान अहिंसा का पाठ सीखा। घात प्रतिघात के खेल से खुद को हमेशा दूर रखा। जैन गुरु रेचंदभाई और रूसी लेखक टॉल्स्टॉय से प्रेरित होकर उन्होंने ब्रह्मचर्य अपनाया। वह खुले तौर पर गर्भनिरोधक की बातें करते थे। मानते थे कि पुरूष और महिला केवल सेक्स के लिए जिएंगे तो मानसिक रूप से सुन्न और विक्षिप्त हो जाएंगे। नैतिक रूप से बर्बाद हो जाएंगे। उन्हें यह दुःख देता था कि आधुनिक लड़कियां अपने स्वास्थ्य का ख्याल रखने के बजाय फैशन को अधिक महत्व देती हैं। वह मुस्लिम महिलाओं की पर्दा प्रथा के आलोचक थे क्योंकि इससे उन्हें पर्याप्त हवा और रोशनी नहीं मिल पाती। उन्होंने आधुनिक नारीवाद का उपयोग नहीं किया। लेकिन प्रगतिशील इतने थे कि सरोजनी नायडू को कांग्रेस का अध्यक्ष तब बनाया जब पश्चिम में महिलाएं बहुत कम नेता थीं। 1947 में महिला राज्यपाल और महिला कैबिनेट मंत्री बनाने के लिए उन्होंने प्रेरित किया। गुलामी के दिनों में चरखा चलाकर लंकाशायर के कपड़ों की मिलें उन्होंने बंद करा दीं। वे आलपिन की जगह बबूल के कांटों और पेपरवेट की जगह पत्थर का इस्तेमाल करते थे। इसे वह संसाधनों के उपयोग से जोड़कर बताते थे। उनकी गरीबी में दरिद्रता नहीं उन्मुक्तता का आनंद था। विरोधाभासों के प्रबंधन की उनमें अद्भुत क्षमता थी। रोजाना 18 किलोमीटर पैदल चलते थे, इस लिहाज से उन्होंने पृथ्वी का दो बार चक्कर लगाने जितनी यात्रा की। उनकी अंग्रेजी में आयरिश उच्चारण था। सविनय अवज्ञा की प्रेरणा उन्हें हावर्ड विश्वविद्यालय से ग्रेजुएट डेविड थोरियू मेसाच्यूसेट्स से मिली।
गांधी ने पश्चिम की सभ्यता को शैतान सभ्यता कहा था। लेकिन गांधी का यह देश आज उसी सभ्यता का अनुगामी बन रहा है। गांधी आवरण नहीं मूल चरित्र पर जोर देते थे। गांधी के हिंदुत्व में कोई अस्पृश्य नहीं था, लघु नहीं था, अग्राह्य नहीं था। हिंदू मुस्लमानों में एकता का सपना था। उनकी अर्थनीति में अंतिम आदमी की चिंताएं थीं। वे इंसाफ के लिए भी हिंसा के खिलाफ थे। उनका लक्ष्य भारत के नैतिक मूल्यों को पुनर्जीवित करना था। आचार और विचार को एक करना था। कथनी और करनी का भेद मिटाना था। सत्य और अहिंसा के रास्ते पर चलना था। व्यक्ति की शुचिता के सवाल को आगे बढ़ाना था। लेकिन हम इनमें से किसी भी दिशा में कोई ठोस कदम नहीं बढ़ा सके। गांधी की अर्थनीति नकार दी गई। जिसमें वंचनाग्रस्त एवं अभाव पीड़ितों के लिए उम्मीदें थीं। वे मनुष्य से महात्मा बन गए। किसी भी राजनीतिक दल या नेता के पास उनकी नैतिकता और विचार दूर से छू भी नहीं गए हैं। पर उनके अहिंसा के सिद्धांत तिरोहित हो गए। कोई भी एक शख्स आचरण और विचार से देश में गांधी को जी नहीं रहा है जबकि चीन जहां कभी गांधी गए ही नहीं। वहां उन पर 800 किताबें हैं। पूर्वी आनहुई प्रांत के हुआंग थिएन गांव में रहने वाली 57 साल की वू पेई गांधी की तरह रहती हैं और उनके विचारों को आगे बढ़ाने के लिए उन्होंने एक स्कूल खोल रखा है। पेई ने लंदन से दो साल की एक ऐसी पढ़ाई की है, जिसमें बच्चों का संपूर्ण मानसिक और कलात्मक विकास सिखाया जाता है। जिसे वाल्डर्फ की तालीम कहते हैं। इन्होंने गांधी जी की दो किताबों का अनुवाद किया है।
गांधी अंदर और बाहर दोनों जगह की सफाई की बात कहते थे पर हम बाहर सफाई कर रहे हैं। गांधी जी ने कहा था कि भारत का ध्येय दुनिया के अन्य देशों के ध्येय से अलग है। पर हम हैं कि दुनिया के ध्येय के पीछे भाग रहे हैं। हमने राष्ट्रपति की अध्यक्षता में 115 सदस्यीय समिति का गठन किया है। श्री रविशंकर, जग्गी वासुदेव, मुरारी बापू और ब्रहमकुमारियों के मार्फत गांधी की याद देशवासियों को दिलाई जाएगी। 150 नोबेल पुरस्कार पाने वालों का जलसा होगा। गणतंत्र दिवस पर सभी राज्यों की झांकियां गांधी से संबंधित होंगी। मार्शल आर्ट में गांधी ब्लैक बेल्ट देने की तैयारी चल रही है। जिन लोगों को गांधी के बारे में देशवासियों को बताने के लिए रखा गया है। इनमें कोई भी दूर दूर तक गांधी के आचार, विचार और आचरण से मेल ही नहीं खाता।
गांधी की 150वीं जयंती हमारे प्रायश्चित, आत्मचिंतन और भूल सुधारों का वर्ष होना चाहिए। गांधी का गुणगान का अवसर नहीं होना चाहिए। उन्हें अंगीकार करने का संकल्प होना चाहिए। वंचितों, शोषितों के पास लड़ने का एकमात्र प्रभावी नैतिक हथियार गांधी का सत्याग्रह ही है। इसे स्वीकारना होगा। हालांकि गांधी के सत्य को अंगीकार करना मुश्किल है पर उसे खारिज करना असंभव है। गांधी के मंत्र से देश के तंत्र को मजबूत करना चाहिए। सोचना चाहिए कि गांधी होते तो हमारे मानक क्या ऐसे ही होते? फिर यह भी सोचना चाहिए कि ये मानक कैसे होते? जैसे होते उस ओर हमें बढ़ना चाहिए, क्योंकि गांधी मार्ग की अवधारणाएं समाज में इतनी उलझा दी गई हैं कि उसे आज के भागम भाग में सुलझा पाना मुश्किल है तो उस पर कदम बढ़ाना असंभव हो ही जाता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने भाषणों में जितनी बार गांधी का नाम लिया उतनी बार 1970 के दशक के बाद गांधी को किसी ने नहीं याद किया। ऐसे में उनकी यह जिम्मेदारी बन जाती है कि बापू को जानने का अभियान चलाएं। बापू को लेकर जो भी आधारहीन आलोचनाएं हैं, उन्हें खारिज किया जाए। गांधी ने जीवन सत्य के साथ जिया। जो लोग भी गांधी की आलोचना का तर्क रखते हैं, प्रमाण होने की बात करते हैं। उन्हें सबसे पहले अपना एक दिन सत्य के साथ गुजारने की कोशिश करनी चाहिए। उनमें से कोई भी पास हो पाएगा, यह संभव नहीं है। गांधी आलोचनाओं से, गोलियों से नहीं मारे जा सकते, क्योंकि गांधी ने खुद को संज्ञा नहीं विशेषण बना लिया था। दुनिया में शायद ही कोई ऐसा बड़ा लेखक या दार्शनिक हो, जिसने गांधी पर अपनी कलम न चलाई हो। गांधी को समझने की कोशिश न की हो। पर हम हैं कि गांधी को बिना समझे खारिज कर रहे हैं। संज्ञा समझकर गोडसे की तरह गोली से नहीं पर बोलियों से रोज मार रहे हैं। उनके 150 वीं जयंती पर हम यही संकल्प लें। गांधी को मारना बंद करें। गांधी को जीना शुरू करें।