मित्र त्रियुग नारायण जी ने जब मुझे यहां आने का फोन पर आदेश सुनाया। तब उन्होंने कहा था कि राजेंद्र प्रसाद पांडेय जी की स्मृति में कार्यक्रम है। मैंने उनके साथ काम किया है। नतीजतन मैं मना नहीं कर सका।
अंबेडकर नगर के दुल्लापुर गांव के रहने वाले राजेंद्र प्रसाद पांडेय जी का रिश्ता जेपी आंदोलन से जुड़ता है। उन्हें लोकतंत्र सेनानी की पेंशन मिलती थी। साफ है कि वे सिर्फ जर्नलिस्ट ही नहीं, एक्टिविस्ट भी थे। वकालत से पत्रकारिता के पेशे को अपनाना, विधायकी का टिकट ठुकराना बताता है कि पत्रकारिता उनके लिए मिशन थी, प्रोफेशन नहीं। भाजपा से जुड़ी खबरों पर उनकी अच्छी पकड़ होती थी। खरी बात करने और सामयिक राय देने का बेहदा उम्दा हुनर उनमें था। फैजाबाद से उनका तबादला राष्ट्रीय सहारा में लखनऊ हो गया। तब उन्होंने डेस्क के काम की बारीकियां सीखी। महारथ हासिल की। उसी दौर में मुझे उनके साथ उठने, बैठने, मिलने, जुलने का अवसर मिला था।
राजेंद्र प्रसाद पांडेय जी की तरह की शख्सियत के बहाने यहां आज हम ‘वर्तमान में पत्रकारिता‘ पर कुछ भी सोचने, विचारने या बोलने की शुरुआत करते हैं तो बेहद कांटों भरी राह से गुजरने का काम होगा। क्योंकि शीर्षक बहुत व्यापक है। शीर्षक किसी खूंटे से नहीं बांधता है। यह व्यापकता भटकाव की ओर भी ले जाती है। इसकी गुंजाइश बढ़ाती है। क्योंकि वर्तमान में पत्रकारिता के सामने चुनौतियां हैं। वह कई तरह की हैं। वर्तमान में पत्रकारिता का संकट एक नहीं अनेक है। मसलन, कैरेक्टर की, कंटेंट की, फार्म की और भाषा की। किस पर बात की जाए। किसे छोड़ दिया जाए। हो सकता है हम जिस पर बात करें आप उसके दूसरे अन्य पहलू पर बात सुनना चाहें। इसलिए पूरी बातचीत में किसी एक पक्ष पर खड़े रह जाने, किसी एक दिशा में बहक जाने की गलती हो तो क्षमा कीजिएगा।
वर्तमान में पत्रकारिता परिप्रेक्ष्य विहीन है। इसमें सब कुछ तात्कालिकता से भरा हुआ है। दबाव बहुत हावी है। यह दबाव भी हमने बनाया है। स्वजनित है। पहले अखबार/टीवी का कोई पीस या खबर देखें तो ‘इंट्रो‘ के फौरन बाद ‘बैकड्राप‘ आ जाता था। आज यह हिस्सा बिरले ही आता है। अगर आता है तो ‘बाक्स‘ में। आज हम ‘डेटलाइन‘ में तारीखें टांगते हैं। परिप्रेक्ष्य नहीं बताते। पहले हर तारीख के आस-पास का संदर्भ भी होता था।
जैसे नई कविता आंदोलन ने चाहे जितने नए और बड़े कवि पैदा किए पर कविता का गेय तत्व खत्म किया। जिसका नुकसान यह हुआ कि हरिवंश राय बच्चन, सुमित्रा नंदन पंत, दिनकर, जयशंकर प्रसाद, अदम गोंडवी, दुष्यंत कुमार आदि की कविताएं लोग कंठस्थ रखते थे। तकिए के नीचे रखते थे। यहां तकिए के नीचे रखना, सहेज के रखने के संदर्भ में है। लेकिन सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यान ‘अज्ञेय,‘ अशोक वाजपेयी और गजानन माधव ‘मुक्तिबोध‘ की कविताएं तकिए के नीचे नहीं रखी जाती। पहले शब्द ही लय थे। कविताओं में लय से पगे हुए शब्द थे। नई कविता में यह गायब है। आज की पत्रकारिता में भी यह गायब है। वर्तमान पत्रकारिता में इस सहेज के रखने का अहसास गुम है।
आज की पत्रकारिता ‘इंफारमेंशन‘ देती है। सूचना देती है। खबरों को प्रसारित करती है। अभी बीते दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी रूस में थे। खबरें आ रही थी कि वह कहां-कहां गए। पुतिन के साथ क्या-क्या किया। यह सब बता कर पत्रकारिता सिर्फ ‘इंफारमेंशन‘ दे रही थी। पुराने समय की पत्रकारिता अगर किसी को याद हो तो ऐसे समय यह लिखा जाता था कि जवाहर लाल नेहरू कब आये थे, इंदिरा गांधी कब आई थीं। उस समय क्या-क्या और कैसे-कैसे हुआ था?
पहले पत्रकारिता ‘टाइम‘ बताती थी और ‘नरेट‘ भी करती थी। आज ‘नरेशन‘ गायब है। सिर्फ ‘इंफारमेंशन‘ है। ‘इंफारमेंशन‘ की ‘डिलबरी‘ है। वह भी लेट है। बिलंबित है। कर्नाटक में सरकार बन गई और हम दूसरे दिन अखबारों में भी सरकार बनने की खबर पढ़ा रहे हैं। अब तो यह बताया जाना चहिए था कि धुर विरोध जेडीएस और कांग्रेस एक साथ कैसे आये, कौन लाया?
प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र बनारस में पुल गिरा। हम चैबीस घंटे बाद भी पुल के गिरने से 19 लोगों की मौत की खबर पढ़ाते हैं। जबकि हमें चैबीस घंटे बाद छपने वाले अखबारों में यह बताना चाहिए था कि कंपनी के डिटेल क्या हैं? कंपनी किसकी है? निर्माण में सामग्री की गुणवत्ता क्या थी? ठेका के तौर-तरीके सरीखे कई सवाल उठा देने चाहिए थे। आज (24 मई, 2018) के अखबारों को देखिए। हिंदी अखबार ‘अमर उजाला‘ ने लीड खबर ली है कि ’’कुमारस्वामी ने शपथ ली।‘‘ ‘दैनिक जागरण‘ ने इसी खबर को ‘‘विपक्षी एकता के सेतु बने स्वामी‘‘ के शीर्षक से लीड बनाया है जबकि ‘राष्ट्रीय सहारा‘ ने ‘‘कर्नाटकः स्वामी-परमेश्वर के हवाले‘‘ शीर्षक से लीड बनाई है। ‘नवभारत टाइम्स‘ ने ‘‘मोदी बनाम बाकी सब‘‘ शीर्षक से लीड बनाई है। ये सारे अखबार जो बता रहे हैं वो 24 घंटे पहले हो गया है। पुराना पड़ गया है, फिर भी हम उसे परोस रहे हैं। उसमें कोई ‘वैल्यूएडिशन‘ नहीं कर रहे हैं। ‘जागरण‘ और ‘नवभारत‘ ने ‘वैल्यूएडिशन‘ की कोशिश भी की है तो वह अधूरी दिखती है। अगर पिज्जा नियत समय से आधे घंटे लेट डिलिबरी होता है तो पैसे नहीं देने होते हैं। आप चैबीस घंटे लेट हैं। पैसा और सम्मान दोनों चाहते हैं। कैसे मिलेगा?
आपने इस खबर और पाठक दोनों के साथ न्याय नहीं किया है। इसे हम लोग इसी तरीख के अंग्रेजी के अखबारों को देखकर समझ सकते हैं। ‘टाइम्स आॅफ इंडिया‘ ने इसी खबर को डवकप अे त्मेजरू ठपहहमेज ंदजप. ठश्रच् नदपजल ेीवू ेपदबम 1996ण् ॅपसस पज ीवसक जपसस 2019घ् से लिखा है। इसमें शपथ ग्रहण समारोह की सूचना भी है। विपक्षी एकता का पुराना इतिहास और भविष्य की संभावना भी है। ‘इंडियन एक्सप्रेस‘ ने तो इस खबर को पहले पेज पर लिया ही नहीं है। लेने लायक भी नहीं थी। क्योंकि यह इत्तिला तो दुनियाभर में पहंुच गई। इसकी जगह इस अखबार ने एक विस्मयकारी फोटो ली है। जो भारतीय राजनीतिक इतिहास का विस्मय भी है और ऐसा संयोग जो भविष्य के राजनीति की इबारत लिख सकता है। इस फोटो में सोनिया गांधी और मायावती कुछ इस मुद्रा में हैं कि सोनिया का मत्थे का बिचला हिस्सा मायावती के मत्थे के किनारे टिका है। दोनों नेता एक हाथ से एक-दूसरे को आलिंगनबद्ध करने की कोशिश में दिखते हैं। यह फोटो सहेज को रखने वाली पत्रकारिता का हिस्सा है। हिंदी के अखबारों ने तो इस फोटो को ठीक से तरजीह तक नहीं दी है। कुछ में गायब है और कुछ में किसी तरह जगह पाने में कामयाब हुई है। सिर्फ ‘दैनिक जागरण‘ ने इस फोटो को ठीक से तरजीह दी है।
अब वेव का समय है। उसमें खबरें निरंतर छोटी होती जा रही हैं। सौ-डेढ़ सौ शब्दों में निपट जाती हैं। लेकिन अब इस से आगे वाट्सएप पत्रकारिता आ गई है जिसमें हेडिंग महत्वपूर्ण होती है। कंटेंट और बाॅडी नहीं।
पत्रकारिता ‘इंस्टेंट‘ है। जिसका उद्देश्य सिर्फ सूचना को पहंुचा देना है। पाठक को शिक्षित करने के दायित्व से अब वह हट गई है। समय को पाठक को बताने की जिम्मेदारी पत्रकारिता की खत्म हो गई है। दूसरी ‘कैजुअलिटी‘ भाषा पर आई। लंबे समय तक लोगों के भाषा बोध और शब्द सामथ्र्य बढ़ाती थी- पत्रकारिता। अब तो हर्ष फायरिंग और बवाल काटने सरीखे हजारों शब्द भाषाई दुराचार करते मिलते हैं। हम पत्रकारिता में ‘फिजिक्स डिपार्टमेंट‘ के ‘डीन‘ और ‘हेड‘ लिख रहे हैं। आखिर क्या विपन्नता है। कैसी मजबूरी है। लड़का आज भी भौतिक विज्ञान पढ़ रहा है पर हम यह मान बैठे हैं कि भौतिक विज्ञान की जगह वह ‘फिजिक्स‘ आसानी से समझता है।
मुहाबरे वाली खबरें अब नहीं लिखी जा रही हैं। अगर किसी ने कोशिश भी की तो न्यूज रूम में बैठा हुआ संपादक कहने लगता है कि क्या लपेट रहे हो। नई पीढ़ी को हम ‘आर्ट आॅफ राइटिंग‘ नहीं सिखा पा रहे हैं। हमने यह निष्कर्ष निकाल लिया है कि खबरें वही है जिसका राजनीतिक अर्थ है। वह चाहे आर्थिक राजनीतिक हो। चाहे सामाजिक राजनीतिक हो। चाहे खाटी राजनीतिक हो। यही वजह है कि हाशिये के आदमी के लिए जगह निरंतर कम होती जा रही है।
एक दफा किसी ने राजेंद्र माथुर जी से पूछा, ‘‘एक अच्छे संपादक को क्या-क्या जानना चाहिए?‘‘ उन्होंने कहा, ‘‘भारत का इतिहास, भारत का भूगोल, संस्कृति, अर्थ और व्यापार व्यवस्था के साथ ही साथ वेद-पुराण, गीता-रामायण का भी थोड़ा सा ज्ञान होना चाहिए।‘‘ उस व्यक्ति का प्रति प्रश्न था, आपने वेद-पुराण क्यों जोड़ा। राजेंद्र माथुर जी का जवाब था, ‘‘सत्तर फीसदी भारतीयों के लिए जीवन समझने के ये एक सबसे प्रभावशाली माध्यम हैं।‘‘
आज की तारीख में इतनी चीजों पर संपादकों को टेस्ट किया जाए तो कितने पास होंगे यह बताना वर्तमान में पत्रकारिता की कलई खोलना है। आज की पत्रकारिता में आग्रह नहीं है। पहले बच्चे, महिला, धर्म, अध्यात्म, ज्योतिष, साहित्य आदि अखबार का हिस्सा होते थे। नतीजतन संपादक को सबकुछ जानना पड़ता था। अब सब अलग-अलग हो गए हैं।
अखबारों में आधारभूत परिवर्तन (इस्ट्रक्चरल चेंजेज) हुए हैं। अखबारों में प्रबंधन कैसे हो रहा है यह छुपा नहीं है? कैसे पत्रकारिता ‘इवेंट मैनेजमेंट‘ में तब्दील हो रही है? इस ‘इवेंट‘ के लिए हम पत्रकारिता के लोग ‘सेलिब्रेटी‘ बुला रहे हैं। और उनसे अपनी ‘ब्रांडिंग‘ करा रहे हैं। कभी हम फिल्म अभिनेताओं की, साहित्यकारों की, समाजसेवियों की और राजनेताओं की ‘ब्रांडिंग‘ करते थे। पर आज यह दृश्य उलट गया है। नतीजतन, वर्तमान में पत्रकारिता के सामने यह स्थिति आ गई कि अब कहा जा रहा है अखबारों में छपने पर भरोसा मत करना। जबकि पहले यह कहा जाता था कि अखबार में छपा है इसलिए यह सच है।
मेरे गोरखपुर में एक मित्र हैं हर्ष सिन्हा। हर्ष वैसे तो विश्वविद्यालय में टीचर हैं। पर मीडिया से उनका गहरा रिश्ता है। खूब लिखते-पढ़ते हैं। उनकी बेटी है अदिती हर्ष। वह बीते दिनों जेई और ट्रिपल आईटी का इंट्रेंस एग्जाम देने गई थी। वहां खड़े एक बड़े समाचार समूह के कैमरामैन ने उसकी फोटो खींची। दूसरे दिन अखबार में अदिती की फोटो इस टिप्पणी के साथ छपी कि इंट्रेंस का पेपर बहुत आसान आया था। जबकि पेपर देने के बाद अदिती ने अपने पिता से यह कह दिया था, ‘‘उसका चयन नहीं होगा। पेपर अच्छा नहीं था।‘‘
अखबार में छपी टिप्पणी के बाद अदिती ने अपने पिता से कहा, ‘‘अखबार एकदम झूठे होते हैं।‘‘ और तब से वह आज तक अखबार नहीं पढ़ती है। मेरे एक दूसरे दोस्त है अखिलेश तिवारी। वह आपके फैजाबाद के रहने वाले हैं। लखनऊ में एक बड़े अखबार में काम करते हैं। उनके अखबार में मौसम का मिजाज छापने का बड़ा दबाव रहता है। एक दिन मौसम की रिपोर्ट को लेकर वह पेरशान थे।
उनकी बिटिया जिसका नाम श्री है। उसने अपने पिता से कहा इसको छापने की क्या जरूरत है? उसने गूगल से पूछ लिया कि लखनऊ में मौसम कैसा रहेगा? गूगल ने बता दिया बारिश नहीं होगी। जो चीज एक क्लिक पर उपलब्ध है उसे छाप कर हम पत्रकारिता के दायित्व की आज तक पूर्ति समझ रहे हैं! यह वर्तमान में पत्रकारिता को हमारा योगदान कैसे कहा जा सकता है।
उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री कौन होगा। राष्ट्रपति-उप राष्ट्रपति कौन होगा। ऐसी महत्वपूर्ण खबरों पर हम मीडिया के लोग तमाम नामों पर कयास लगाते रहे। किसी का सच नहीं निकला। कितनी दरिद्रता है मीडिया में। अगर नहीं जानते तो लिखने की मजबूरी क्या थी?
आज जब किसी नेता के साथ कोई पत्रकार इंटरव्यू लेता हुआ दिखता है तो साक्षात्कार लेने वाला पत्रकार ‘थैंकफुल स्पीकिंग‘ मुद्रा में होता है। जबकि नेता ‘फ्रेंडली स्पीकिंग‘ की मुद्रा में। चैनलों पर खबरें दोस्ताना ‘एक्टिविटी‘ की तरह दिखती हैं। ‘डिबेट‘ तो ‘राइट-टू-इंसल्ट‘ के लिए होने लगे।
मीडिया तथ्यों को इस तरह से पेश करने लगा है जैसे वह मीडिया न होकर अदालत हो। खबरों को प्रस्तुत करने में कंटेंट पर कम और एंकर की खूबसूरती पर ज्यादा जोर होता है। आजकल किसी का एक वाक्य, एक बकवास, एक ट्वीट चैनलों को दिनभर के लिए काम दे देता है।
आज की चुनौती टेक्नाॅलाजी के लिए नहीं है। न्यूयार्क यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर क्ले शिर्की ने 2009 में अपने ब्लाॅग ‘न्यूजपेपर एंड थिंकिंग अन थिंकेबल‘ में परंपरागत मीडिया की चुनौती को अकल्पनीय मानते हुए लिखा है, ‘‘प्रेस का परंपरागत न्यूज स्ट्रक्चर, सांगठनिक ढांचा तथा आर्थिक माॅडल जिस तेजी से टूट रहा है। उस तेजी से विश्वसनीयता और साख के साथ नया ढांचा खड़ा नहीं हो रहा है।‘‘
यह सच है क्योंकि खबरों को अनावश्यक सनसनीखेज बनाने का रुझान दिखता है। इसके लिए तथ्यों से खिलवाड़ भी होता है। निजता में ताकझाक की जाती है। आरोपित व्यक्तियों के बारे में खबरें ऐसी परोसी जाती हंै। मानो दोषी ठहरा दिया गया हो।
वर्तमान में पत्रकारिता भूतकालीन है। हिंदी में कोई क्रांति नहीं हुई। कोई परिवर्तन नहीं हुआ। दस साल पुराना तथा आज का हिंदी और अंग्रेजी का अखबार उठा लीजिए तो आपको पता चल जाएगा कि मेरी बात सही है। अंग्रेजी अखबार हमसे ‘फार सुपीरियर‘ क्यों हैं।
अंग्रेजी में पहले पेज के ‘आइटम‘ का ‘सलेक्शन‘ होता है। उसके बाद सबसे महत्वपूर्ण पन्ना संपादकीय के सामने वाला पृष्ठ होता है। हिंदी अखबार में कौन सी न्यूज किस पेज पर जाएगी इस पर विचार नहीं होता। बल्कि जो खबर जैसे आती है पेज छूटने के लिहाज से उसे उसी तरह चस्पा कर दिया जाता है। लखनऊ की खबर आपका फैजाबाद और बाराबंकी में नहीं पढ़ने को मिल सकती है। लखनऊ के 4-5 अखबार उठा लीजिए, विश्लेषण कीजिए पता चल जाएगा। जो खबर एक अखबार की लीड है, वह दूसरे अखबार में तीसरे पेज पर जा रही होती है। आखिर पत्रकारों में इतना अंतर क्यों? मैं अंग्रेजी हटाओ आंदोलन से आता हूं। बावजूद इसके यह जिक्र जरूरी है।
अंगे्रजी अखबार सर्वे करते हैं कि उनका पाठक कौन है, उस लिहाज से कंटेंट तय करते हैं। हिंदी में इस काम के लिए पैसा ही नहीं लगाया जाता। हर शहर में रोज कोई न कोई नाटक होता है कितने की समीक्षा छपती है? फिर कला संस्कृति बढेगी कैसे?
एक सीधा सवाल पूछता हूं। आप लोगों ने कभी सोचा की ‘हेंडिंग‘ की कसौटी क्या होनी चाहिए। अगर ‘हेडिंग‘ पढ़ने के बाद पाठक ‘इंट्रो‘ पूरा नहीं पढ़ता है तो समझिये ‘सब एडिटर‘ फेल हो गया। अच्छी ‘हेडिंग‘ नहीं लग पाई। लेकिन अगर ‘इंट्रो‘ पढ़ने के बाद पाठक खबर को बीच में छोड़ दे रहा है तो समझिये ‘रिपोर्टर‘ फेल हो गया।
आईपीएल पर हिंदी अखबारों में कितनी योग्यता और क्षमता से खबरें की जा रही हैं, जो हो भी रही हैं वह अनुवाद है मौलिक नहीं। जब पार्टिसिपेटिव प्रोडक्शन यानी समावेशी उत्पादन की बात हो तो हमारी भूमिका और बढ़ जाती है। लेकिन हम प्रोडक्शन तो छोड़िये एडीटोरियल में ही अपनी भूमिका को लेकर निरंतर सिमटते जा रहे हैं।
(24 मई, 2018 को फैजाबाद प्रेसक्लब में दिया गया वक्तब्य)
अंबेडकर नगर के दुल्लापुर गांव के रहने वाले राजेंद्र प्रसाद पांडेय जी का रिश्ता जेपी आंदोलन से जुड़ता है। उन्हें लोकतंत्र सेनानी की पेंशन मिलती थी। साफ है कि वे सिर्फ जर्नलिस्ट ही नहीं, एक्टिविस्ट भी थे। वकालत से पत्रकारिता के पेशे को अपनाना, विधायकी का टिकट ठुकराना बताता है कि पत्रकारिता उनके लिए मिशन थी, प्रोफेशन नहीं। भाजपा से जुड़ी खबरों पर उनकी अच्छी पकड़ होती थी। खरी बात करने और सामयिक राय देने का बेहदा उम्दा हुनर उनमें था। फैजाबाद से उनका तबादला राष्ट्रीय सहारा में लखनऊ हो गया। तब उन्होंने डेस्क के काम की बारीकियां सीखी। महारथ हासिल की। उसी दौर में मुझे उनके साथ उठने, बैठने, मिलने, जुलने का अवसर मिला था।
राजेंद्र प्रसाद पांडेय जी की तरह की शख्सियत के बहाने यहां आज हम ‘वर्तमान में पत्रकारिता‘ पर कुछ भी सोचने, विचारने या बोलने की शुरुआत करते हैं तो बेहद कांटों भरी राह से गुजरने का काम होगा। क्योंकि शीर्षक बहुत व्यापक है। शीर्षक किसी खूंटे से नहीं बांधता है। यह व्यापकता भटकाव की ओर भी ले जाती है। इसकी गुंजाइश बढ़ाती है। क्योंकि वर्तमान में पत्रकारिता के सामने चुनौतियां हैं। वह कई तरह की हैं। वर्तमान में पत्रकारिता का संकट एक नहीं अनेक है। मसलन, कैरेक्टर की, कंटेंट की, फार्म की और भाषा की। किस पर बात की जाए। किसे छोड़ दिया जाए। हो सकता है हम जिस पर बात करें आप उसके दूसरे अन्य पहलू पर बात सुनना चाहें। इसलिए पूरी बातचीत में किसी एक पक्ष पर खड़े रह जाने, किसी एक दिशा में बहक जाने की गलती हो तो क्षमा कीजिएगा।
वर्तमान में पत्रकारिता परिप्रेक्ष्य विहीन है। इसमें सब कुछ तात्कालिकता से भरा हुआ है। दबाव बहुत हावी है। यह दबाव भी हमने बनाया है। स्वजनित है। पहले अखबार/टीवी का कोई पीस या खबर देखें तो ‘इंट्रो‘ के फौरन बाद ‘बैकड्राप‘ आ जाता था। आज यह हिस्सा बिरले ही आता है। अगर आता है तो ‘बाक्स‘ में। आज हम ‘डेटलाइन‘ में तारीखें टांगते हैं। परिप्रेक्ष्य नहीं बताते। पहले हर तारीख के आस-पास का संदर्भ भी होता था।
जैसे नई कविता आंदोलन ने चाहे जितने नए और बड़े कवि पैदा किए पर कविता का गेय तत्व खत्म किया। जिसका नुकसान यह हुआ कि हरिवंश राय बच्चन, सुमित्रा नंदन पंत, दिनकर, जयशंकर प्रसाद, अदम गोंडवी, दुष्यंत कुमार आदि की कविताएं लोग कंठस्थ रखते थे। तकिए के नीचे रखते थे। यहां तकिए के नीचे रखना, सहेज के रखने के संदर्भ में है। लेकिन सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यान ‘अज्ञेय,‘ अशोक वाजपेयी और गजानन माधव ‘मुक्तिबोध‘ की कविताएं तकिए के नीचे नहीं रखी जाती। पहले शब्द ही लय थे। कविताओं में लय से पगे हुए शब्द थे। नई कविता में यह गायब है। आज की पत्रकारिता में भी यह गायब है। वर्तमान पत्रकारिता में इस सहेज के रखने का अहसास गुम है।
आज की पत्रकारिता ‘इंफारमेंशन‘ देती है। सूचना देती है। खबरों को प्रसारित करती है। अभी बीते दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी रूस में थे। खबरें आ रही थी कि वह कहां-कहां गए। पुतिन के साथ क्या-क्या किया। यह सब बता कर पत्रकारिता सिर्फ ‘इंफारमेंशन‘ दे रही थी। पुराने समय की पत्रकारिता अगर किसी को याद हो तो ऐसे समय यह लिखा जाता था कि जवाहर लाल नेहरू कब आये थे, इंदिरा गांधी कब आई थीं। उस समय क्या-क्या और कैसे-कैसे हुआ था?
पहले पत्रकारिता ‘टाइम‘ बताती थी और ‘नरेट‘ भी करती थी। आज ‘नरेशन‘ गायब है। सिर्फ ‘इंफारमेंशन‘ है। ‘इंफारमेंशन‘ की ‘डिलबरी‘ है। वह भी लेट है। बिलंबित है। कर्नाटक में सरकार बन गई और हम दूसरे दिन अखबारों में भी सरकार बनने की खबर पढ़ा रहे हैं। अब तो यह बताया जाना चहिए था कि धुर विरोध जेडीएस और कांग्रेस एक साथ कैसे आये, कौन लाया?
प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र बनारस में पुल गिरा। हम चैबीस घंटे बाद भी पुल के गिरने से 19 लोगों की मौत की खबर पढ़ाते हैं। जबकि हमें चैबीस घंटे बाद छपने वाले अखबारों में यह बताना चाहिए था कि कंपनी के डिटेल क्या हैं? कंपनी किसकी है? निर्माण में सामग्री की गुणवत्ता क्या थी? ठेका के तौर-तरीके सरीखे कई सवाल उठा देने चाहिए थे। आज (24 मई, 2018) के अखबारों को देखिए। हिंदी अखबार ‘अमर उजाला‘ ने लीड खबर ली है कि ’’कुमारस्वामी ने शपथ ली।‘‘ ‘दैनिक जागरण‘ ने इसी खबर को ‘‘विपक्षी एकता के सेतु बने स्वामी‘‘ के शीर्षक से लीड बनाया है जबकि ‘राष्ट्रीय सहारा‘ ने ‘‘कर्नाटकः स्वामी-परमेश्वर के हवाले‘‘ शीर्षक से लीड बनाई है। ‘नवभारत टाइम्स‘ ने ‘‘मोदी बनाम बाकी सब‘‘ शीर्षक से लीड बनाई है। ये सारे अखबार जो बता रहे हैं वो 24 घंटे पहले हो गया है। पुराना पड़ गया है, फिर भी हम उसे परोस रहे हैं। उसमें कोई ‘वैल्यूएडिशन‘ नहीं कर रहे हैं। ‘जागरण‘ और ‘नवभारत‘ ने ‘वैल्यूएडिशन‘ की कोशिश भी की है तो वह अधूरी दिखती है। अगर पिज्जा नियत समय से आधे घंटे लेट डिलिबरी होता है तो पैसे नहीं देने होते हैं। आप चैबीस घंटे लेट हैं। पैसा और सम्मान दोनों चाहते हैं। कैसे मिलेगा?
आपने इस खबर और पाठक दोनों के साथ न्याय नहीं किया है। इसे हम लोग इसी तरीख के अंग्रेजी के अखबारों को देखकर समझ सकते हैं। ‘टाइम्स आॅफ इंडिया‘ ने इसी खबर को डवकप अे त्मेजरू ठपहहमेज ंदजप. ठश्रच् नदपजल ेीवू ेपदबम 1996ण् ॅपसस पज ीवसक जपसस 2019घ् से लिखा है। इसमें शपथ ग्रहण समारोह की सूचना भी है। विपक्षी एकता का पुराना इतिहास और भविष्य की संभावना भी है। ‘इंडियन एक्सप्रेस‘ ने तो इस खबर को पहले पेज पर लिया ही नहीं है। लेने लायक भी नहीं थी। क्योंकि यह इत्तिला तो दुनियाभर में पहंुच गई। इसकी जगह इस अखबार ने एक विस्मयकारी फोटो ली है। जो भारतीय राजनीतिक इतिहास का विस्मय भी है और ऐसा संयोग जो भविष्य के राजनीति की इबारत लिख सकता है। इस फोटो में सोनिया गांधी और मायावती कुछ इस मुद्रा में हैं कि सोनिया का मत्थे का बिचला हिस्सा मायावती के मत्थे के किनारे टिका है। दोनों नेता एक हाथ से एक-दूसरे को आलिंगनबद्ध करने की कोशिश में दिखते हैं। यह फोटो सहेज को रखने वाली पत्रकारिता का हिस्सा है। हिंदी के अखबारों ने तो इस फोटो को ठीक से तरजीह तक नहीं दी है। कुछ में गायब है और कुछ में किसी तरह जगह पाने में कामयाब हुई है। सिर्फ ‘दैनिक जागरण‘ ने इस फोटो को ठीक से तरजीह दी है।
अब वेव का समय है। उसमें खबरें निरंतर छोटी होती जा रही हैं। सौ-डेढ़ सौ शब्दों में निपट जाती हैं। लेकिन अब इस से आगे वाट्सएप पत्रकारिता आ गई है जिसमें हेडिंग महत्वपूर्ण होती है। कंटेंट और बाॅडी नहीं।
पत्रकारिता ‘इंस्टेंट‘ है। जिसका उद्देश्य सिर्फ सूचना को पहंुचा देना है। पाठक को शिक्षित करने के दायित्व से अब वह हट गई है। समय को पाठक को बताने की जिम्मेदारी पत्रकारिता की खत्म हो गई है। दूसरी ‘कैजुअलिटी‘ भाषा पर आई। लंबे समय तक लोगों के भाषा बोध और शब्द सामथ्र्य बढ़ाती थी- पत्रकारिता। अब तो हर्ष फायरिंग और बवाल काटने सरीखे हजारों शब्द भाषाई दुराचार करते मिलते हैं। हम पत्रकारिता में ‘फिजिक्स डिपार्टमेंट‘ के ‘डीन‘ और ‘हेड‘ लिख रहे हैं। आखिर क्या विपन्नता है। कैसी मजबूरी है। लड़का आज भी भौतिक विज्ञान पढ़ रहा है पर हम यह मान बैठे हैं कि भौतिक विज्ञान की जगह वह ‘फिजिक्स‘ आसानी से समझता है।
मुहाबरे वाली खबरें अब नहीं लिखी जा रही हैं। अगर किसी ने कोशिश भी की तो न्यूज रूम में बैठा हुआ संपादक कहने लगता है कि क्या लपेट रहे हो। नई पीढ़ी को हम ‘आर्ट आॅफ राइटिंग‘ नहीं सिखा पा रहे हैं। हमने यह निष्कर्ष निकाल लिया है कि खबरें वही है जिसका राजनीतिक अर्थ है। वह चाहे आर्थिक राजनीतिक हो। चाहे सामाजिक राजनीतिक हो। चाहे खाटी राजनीतिक हो। यही वजह है कि हाशिये के आदमी के लिए जगह निरंतर कम होती जा रही है।
एक दफा किसी ने राजेंद्र माथुर जी से पूछा, ‘‘एक अच्छे संपादक को क्या-क्या जानना चाहिए?‘‘ उन्होंने कहा, ‘‘भारत का इतिहास, भारत का भूगोल, संस्कृति, अर्थ और व्यापार व्यवस्था के साथ ही साथ वेद-पुराण, गीता-रामायण का भी थोड़ा सा ज्ञान होना चाहिए।‘‘ उस व्यक्ति का प्रति प्रश्न था, आपने वेद-पुराण क्यों जोड़ा। राजेंद्र माथुर जी का जवाब था, ‘‘सत्तर फीसदी भारतीयों के लिए जीवन समझने के ये एक सबसे प्रभावशाली माध्यम हैं।‘‘
आज की तारीख में इतनी चीजों पर संपादकों को टेस्ट किया जाए तो कितने पास होंगे यह बताना वर्तमान में पत्रकारिता की कलई खोलना है। आज की पत्रकारिता में आग्रह नहीं है। पहले बच्चे, महिला, धर्म, अध्यात्म, ज्योतिष, साहित्य आदि अखबार का हिस्सा होते थे। नतीजतन संपादक को सबकुछ जानना पड़ता था। अब सब अलग-अलग हो गए हैं।
अखबारों में आधारभूत परिवर्तन (इस्ट्रक्चरल चेंजेज) हुए हैं। अखबारों में प्रबंधन कैसे हो रहा है यह छुपा नहीं है? कैसे पत्रकारिता ‘इवेंट मैनेजमेंट‘ में तब्दील हो रही है? इस ‘इवेंट‘ के लिए हम पत्रकारिता के लोग ‘सेलिब्रेटी‘ बुला रहे हैं। और उनसे अपनी ‘ब्रांडिंग‘ करा रहे हैं। कभी हम फिल्म अभिनेताओं की, साहित्यकारों की, समाजसेवियों की और राजनेताओं की ‘ब्रांडिंग‘ करते थे। पर आज यह दृश्य उलट गया है। नतीजतन, वर्तमान में पत्रकारिता के सामने यह स्थिति आ गई कि अब कहा जा रहा है अखबारों में छपने पर भरोसा मत करना। जबकि पहले यह कहा जाता था कि अखबार में छपा है इसलिए यह सच है।
मेरे गोरखपुर में एक मित्र हैं हर्ष सिन्हा। हर्ष वैसे तो विश्वविद्यालय में टीचर हैं। पर मीडिया से उनका गहरा रिश्ता है। खूब लिखते-पढ़ते हैं। उनकी बेटी है अदिती हर्ष। वह बीते दिनों जेई और ट्रिपल आईटी का इंट्रेंस एग्जाम देने गई थी। वहां खड़े एक बड़े समाचार समूह के कैमरामैन ने उसकी फोटो खींची। दूसरे दिन अखबार में अदिती की फोटो इस टिप्पणी के साथ छपी कि इंट्रेंस का पेपर बहुत आसान आया था। जबकि पेपर देने के बाद अदिती ने अपने पिता से यह कह दिया था, ‘‘उसका चयन नहीं होगा। पेपर अच्छा नहीं था।‘‘
अखबार में छपी टिप्पणी के बाद अदिती ने अपने पिता से कहा, ‘‘अखबार एकदम झूठे होते हैं।‘‘ और तब से वह आज तक अखबार नहीं पढ़ती है। मेरे एक दूसरे दोस्त है अखिलेश तिवारी। वह आपके फैजाबाद के रहने वाले हैं। लखनऊ में एक बड़े अखबार में काम करते हैं। उनके अखबार में मौसम का मिजाज छापने का बड़ा दबाव रहता है। एक दिन मौसम की रिपोर्ट को लेकर वह पेरशान थे।
उनकी बिटिया जिसका नाम श्री है। उसने अपने पिता से कहा इसको छापने की क्या जरूरत है? उसने गूगल से पूछ लिया कि लखनऊ में मौसम कैसा रहेगा? गूगल ने बता दिया बारिश नहीं होगी। जो चीज एक क्लिक पर उपलब्ध है उसे छाप कर हम पत्रकारिता के दायित्व की आज तक पूर्ति समझ रहे हैं! यह वर्तमान में पत्रकारिता को हमारा योगदान कैसे कहा जा सकता है।
उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री कौन होगा। राष्ट्रपति-उप राष्ट्रपति कौन होगा। ऐसी महत्वपूर्ण खबरों पर हम मीडिया के लोग तमाम नामों पर कयास लगाते रहे। किसी का सच नहीं निकला। कितनी दरिद्रता है मीडिया में। अगर नहीं जानते तो लिखने की मजबूरी क्या थी?
आज जब किसी नेता के साथ कोई पत्रकार इंटरव्यू लेता हुआ दिखता है तो साक्षात्कार लेने वाला पत्रकार ‘थैंकफुल स्पीकिंग‘ मुद्रा में होता है। जबकि नेता ‘फ्रेंडली स्पीकिंग‘ की मुद्रा में। चैनलों पर खबरें दोस्ताना ‘एक्टिविटी‘ की तरह दिखती हैं। ‘डिबेट‘ तो ‘राइट-टू-इंसल्ट‘ के लिए होने लगे।
मीडिया तथ्यों को इस तरह से पेश करने लगा है जैसे वह मीडिया न होकर अदालत हो। खबरों को प्रस्तुत करने में कंटेंट पर कम और एंकर की खूबसूरती पर ज्यादा जोर होता है। आजकल किसी का एक वाक्य, एक बकवास, एक ट्वीट चैनलों को दिनभर के लिए काम दे देता है।
आज की चुनौती टेक्नाॅलाजी के लिए नहीं है। न्यूयार्क यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर क्ले शिर्की ने 2009 में अपने ब्लाॅग ‘न्यूजपेपर एंड थिंकिंग अन थिंकेबल‘ में परंपरागत मीडिया की चुनौती को अकल्पनीय मानते हुए लिखा है, ‘‘प्रेस का परंपरागत न्यूज स्ट्रक्चर, सांगठनिक ढांचा तथा आर्थिक माॅडल जिस तेजी से टूट रहा है। उस तेजी से विश्वसनीयता और साख के साथ नया ढांचा खड़ा नहीं हो रहा है।‘‘
यह सच है क्योंकि खबरों को अनावश्यक सनसनीखेज बनाने का रुझान दिखता है। इसके लिए तथ्यों से खिलवाड़ भी होता है। निजता में ताकझाक की जाती है। आरोपित व्यक्तियों के बारे में खबरें ऐसी परोसी जाती हंै। मानो दोषी ठहरा दिया गया हो।
वर्तमान में पत्रकारिता भूतकालीन है। हिंदी में कोई क्रांति नहीं हुई। कोई परिवर्तन नहीं हुआ। दस साल पुराना तथा आज का हिंदी और अंग्रेजी का अखबार उठा लीजिए तो आपको पता चल जाएगा कि मेरी बात सही है। अंग्रेजी अखबार हमसे ‘फार सुपीरियर‘ क्यों हैं।
अंग्रेजी में पहले पेज के ‘आइटम‘ का ‘सलेक्शन‘ होता है। उसके बाद सबसे महत्वपूर्ण पन्ना संपादकीय के सामने वाला पृष्ठ होता है। हिंदी अखबार में कौन सी न्यूज किस पेज पर जाएगी इस पर विचार नहीं होता। बल्कि जो खबर जैसे आती है पेज छूटने के लिहाज से उसे उसी तरह चस्पा कर दिया जाता है। लखनऊ की खबर आपका फैजाबाद और बाराबंकी में नहीं पढ़ने को मिल सकती है। लखनऊ के 4-5 अखबार उठा लीजिए, विश्लेषण कीजिए पता चल जाएगा। जो खबर एक अखबार की लीड है, वह दूसरे अखबार में तीसरे पेज पर जा रही होती है। आखिर पत्रकारों में इतना अंतर क्यों? मैं अंग्रेजी हटाओ आंदोलन से आता हूं। बावजूद इसके यह जिक्र जरूरी है।
अंगे्रजी अखबार सर्वे करते हैं कि उनका पाठक कौन है, उस लिहाज से कंटेंट तय करते हैं। हिंदी में इस काम के लिए पैसा ही नहीं लगाया जाता। हर शहर में रोज कोई न कोई नाटक होता है कितने की समीक्षा छपती है? फिर कला संस्कृति बढेगी कैसे?
एक सीधा सवाल पूछता हूं। आप लोगों ने कभी सोचा की ‘हेंडिंग‘ की कसौटी क्या होनी चाहिए। अगर ‘हेडिंग‘ पढ़ने के बाद पाठक ‘इंट्रो‘ पूरा नहीं पढ़ता है तो समझिये ‘सब एडिटर‘ फेल हो गया। अच्छी ‘हेडिंग‘ नहीं लग पाई। लेकिन अगर ‘इंट्रो‘ पढ़ने के बाद पाठक खबर को बीच में छोड़ दे रहा है तो समझिये ‘रिपोर्टर‘ फेल हो गया।
आईपीएल पर हिंदी अखबारों में कितनी योग्यता और क्षमता से खबरें की जा रही हैं, जो हो भी रही हैं वह अनुवाद है मौलिक नहीं। जब पार्टिसिपेटिव प्रोडक्शन यानी समावेशी उत्पादन की बात हो तो हमारी भूमिका और बढ़ जाती है। लेकिन हम प्रोडक्शन तो छोड़िये एडीटोरियल में ही अपनी भूमिका को लेकर निरंतर सिमटते जा रहे हैं।
(24 मई, 2018 को फैजाबाद प्रेसक्लब में दिया गया वक्तब्य)