अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप। कबीरदास का यह दोहा इन दिनों डा भीमराव रामजी आंबेडकर की विरासत को लेकर शुरु हुई रस्साकशी के मद्देनजर प्रासंगिक हो उठा है। राजनीतिक पार्टियां आंबेडकर को अपने पाले में खड़ा करने के लिए अति करने पर आमदा हैं। सपा बसपा कांग्रेस और भाजपा सबने अपने अपने रंग में आंबेडकर को रंगने की चालें शुरु कर दी हैं। भाजपा ने चंद घंटो के लिए ही सही, आंबेडकर को भगवा बना दिया था। बसपा उनसे नीला रंग उतरते देखना नहीं चाहती। कांग्रेस और सपा के पोस्टरों पर भी आंबेडकर दिखने लगे हैं।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का भी आंबेडकर प्रेम जागृत हो उठा है। संघ के दत्तोपंत ठेगडे के बारे में यह तथ्य इन दिनों प्रकाश में लाया गया है वे आंबेडकर के चुनाव एजेंट रहे हैं। उन्होंने और मौजूद सहसरकार्यवाह डा कृष्ण गोपाल ने आंबेडकर पर किताबें लिखी हैं। संघ के मुखपत्रों पांचजन्य और आर्गनाइजर ने आंबेडकर विशेषांक निकाला है। भाजपा आंबेडकर को सोशल इंजीनिरयरिंग का सूत्र समझ रही है। कांग्रेस ने 21 सदस्यों की एक समिति बनाई जिसकी अध्यक्ष सोनिया गांधी है। यह समिति आंबेडकर-आंबेडकर करेगी।
साल 1956 में लोहिया और आंबेडकर साथ आऩे से चूक गये थे। दोनों भारतीय जाति व्यवस्था को खत्म कर दलितों पिछड़ों किसानों और मजदूरों के लिए बराबरी पर आधारित समाज बनाना चाहते थे। यही समाज लोहिया का समाजावाद और आंबेडकर का गणतंत्र था। आंबेडकर चाहते थे कि वह अपनी शेड्यूल कास्ट फेडरेशन को भंग कर सर्वजन समावेशक रिपब्लिकन पार्टी बनाएं। लोहिया ने 10 दिसंबर 1955 को हैदराबाद से डा भीमराव आंबेडकर को पत्र लिखा था जिसमें उन्होंने अपने मैंनकांडज अखबार में प्रचलित जाति प्रथा के किसी पहलू पर लेख मांगा था। उन्होंने समाजवादी दल के स्थापना सम्मेलन में आंबेडकर को आमंत्रित भी किया था। लोहिया के मित्र विमल मेहरोत्रा और धर्मवीर गोस्वामी ने आंबेडकर से मुलाकात भी की थी। आंबेडकर ने अपने पत्र में इनसे मिलने की बात स्वीकार करते हुए कहा था कि भारतीय शेड्यूल कास्ट फेडरेशन की कार्यसमिति में वे लोहिया और उनके मित्रों का प्रस्ताव रखेंगे। 30 सितंबर 1956 को होने वाली कार्यसमिति में यह प्रस्ताव रखने की बात की थी। 2 अक्टूबर को आंबेडकर ने अपने दिल्ली स्थित आवास पर लोहिया को मिलने के लिए बुलाया था। हालांकि लोहिया ने दिल्ली पहुंचने में असमर्थता जताई थी। लोहिया ने आंबेडकर को कानपुर से लोकसभा चुनाव लड़ने का न्यौता दिया था। लेकिन आज आंबेडकरवाद की अति ने अखिलेश और मायावती को मिलने पर विवश कर दिया है।
अति को ऐसे भी समझा जा सकता है कि केंद्रीय गृहमंत्रालय को आंबेडकर जयंती पर राज्यो को सतर्कता बरतने के लिए एडवाइजरी जारी करनी पड़ती है। जब पूरा देश आंबेडकरमय होने का स्वांग रच रहा था तब आगरा में भाजपा विधायक वीरेंद्र सिंह लोधी को आंबेडकर की प्रतिमा पर माल्यापर्ण से आंबेडकरवादियों ने रोक दिया। नोयडा रिछपालगढी गांव में कुछ असमाजिक तत्वों ने पार्क में लगी उनकी प्रतिमा तोड़ दी।बंदायूं में गद्दीचौक इलाके में आंबेडकर की प्रतिमा को सलाखों में बन्द कर ताला लगना पड़ा। बडोदरा में मेनका गांधी द्वारा आंबेडकर प्रतिमा पर माल्यापर्ण के बाद दलित समुदाय के लोगों को आंबेडकर प्रतिमा को धोकर साफ करना पड़ा। मुरादाबाद में समाज कल्याण राज्य मंत्री गुलाबो देवी को आंबेडकर जयंती का कार्यक्रम इसलिए छोड़कर जाना पड़ा क्योंकि इसमें हिंदू देवी देवताओं के बारे में आपत्तिजनक टिप्पणी हो रही थी। लखनऊ के महमूदनगर में सरकारी जमीन पर आंबेडकर प्रतिमा लगाने के खिलाफ प्रशासन को खड़ा होना पड़ा।
जब सभी आंबेडकरमय हो रहे थे उसी दिन मुजफ्फरनगर के थाना पोगाना में अपनी पत्नी के खिलाफ हुई छेड़छाड़ की शिकायत करने गये पति और बेटे की गिरफ्तारी पुलिस ने पुराने किसी केस में कर ली। महिला को क्षुब्ध होकर आत्महत्या करना पड़ा। लखीमपुर के निघासन में बकरा चोरी के आरोप में दलित को इतना पीटा गया कि वह मर गया। अमेठी में दलित छात्रा के रेप के बाद हत्या का मामला प्रकाश में आता हो। मुजफ्फरनगर के अब्दुलपुर गांव में जाट-दलित संघर्ष आकार ले लिया। हाथरस में दलित समाज के एक व्यक्ति ने घोड़े पर बैठकर गांव घूमने की इच्छा क्या जताई कि उसके खेत का पानी बंद कर दिया गया। लेकिन इस तरह की घटनाएँ अतिवाद में गुम हो गयीं। वह भी तब जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी यह कह रहे थे कि वे प्रधानमंत्री आंबेडकर के कारण बन पाए। हालांकि मायावती भी यही बात कहती हैं।
दस्तावेज से हरिजन और दलित शब्द हटाने की आदेश निकाले गये हों। भाजपा सांसद भरत सिंह आंबेडकर प्रतिमाओं को नुकसान पहुंचाने के पीछे ईसाई मशीनरी का हाथ बता रहे हों। कभी सोनिया गांधी के लिए पेड़ पर चढ़ अपनी कनपटी पर अपनी रिवाल्वर लगा लेने वाले भाजपा राष्ट्रीय कार्यसमिति के सदस्य और पूर्व सांसद गंगाचरण राजपूत मंदिरों में आंबेडकर की मूर्ति लगाने की वकालत कर रहे हों वह भी तब जब भारत भर में महात्मा गांधी से ज्यादा मूर्तियां आंबेडकर की लगी हैं। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने सरकारी कार्यालयों में आंबेडकर के चित्र लगाने का आदेश जारी कर दलित मित्र पुरस्कार के हकदार हो गये हों। बीते दिनों बंद के आह्वान में दलितों के गुस्से का अभूतपूर्व विस्फोट दिखा हो। पूर्व मुख्य-न्यायाधीश के जी बालाकृष्णन एस सी एसटी कानून पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले की समीक्षा कर रहे हों, राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद को जय भीम और जय हिंद का नारा लगाना पड़ रहा हो, उन्हें कहना पड़ रहा हो- इस समय समर की नहीं समरसता की जरुरत है। उन्हें कहना पड़ रहा हो कि समभाव और मम्भाव की जरुरत है। मतलब जितना आंबेडकर-आंबेडकर हो रहा है दलित उतने ही कष्ट में पड़ते जा रहे हैं। उनके साथ हो रही ज्यादतियों की अनसुनी हो रही है।
विरोध समर्थन अपने उत्कर्ष के चरम पर है। साल 1952 के मतदान के लिए आंबेडकर ने अनुसूचित जाति संघ के लिए घोषणा पत्र लिखा था। 19 पेज के इस दस्तावेज में पिछड़ी जातियों, दलितों और आदिवासियों के लिए महज एक पन्ना था। बाकी पन्नों में भारत को अमेरिका और यूरोप की तर्ज पर औद्योगिक और आधुनिक बनाने की योजना थी। छोटे खेतों की जगह बड़े खेत बनाने और स्वस्थ बीजों की आपूर्ति की बात थी। आंबेडकर जाति व्यवस्था को औद्योगिकीकरण और शहरीकरण से खत्म करना चाहते। क्योंकि औद्योगिकीकरण ने दास प्रथा को खत्म किया था। आंबेडकर इस्लाम में महिलाओं की स्थिति को लेकर चिंतित थे। वे बहुविवाह प्रथा के खिलाफ थे। वह मानते थे कि सामाजिक आजादी सत्ता की भागीदारी से होगी। जो आज तक नहीं आई।
अमेरिका में कोंडिला राइज और बाराक ओबामा सत्ता की भागीदारी में बिना किसी रहमोकरम और बैसाखी के बिना आए थे यहां यह नहीं होने दिया जा रहा है। यही वजह है कि आंबेडकर का सामाजिक स्वतंत्रता अभियान जारी है। जब हमें रामायण की जरुरत पडी थी तो हम शूद्रवर्ण के ऋषि वाल्मीकि के पास गये। महाभारत की आवश्यकता पड़ी तो शूद्र वर्ण के ऋषि वेदव्यास के पास गये। आज हम जब आंबेडकर के पास जा रहे हैं तो हमारी कोशिश उनकी बड़ी मूर्ति लगाने की है न कि उनके आदर्शों पर दूरी तय करने की। सारी कोशिश ऐसी हो रही है जैसे अतिवाद ने आजादी के बाद गांधीवाद को मुर्दा कर दिया। आज मुर्दा आंबेडकर वाद गढने की साजिश चल रही है। आंबेडकर आधुनिक कबीर थे उन्हें मुर्दा गांधीवाद की ओर मत ले जाइए।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का भी आंबेडकर प्रेम जागृत हो उठा है। संघ के दत्तोपंत ठेगडे के बारे में यह तथ्य इन दिनों प्रकाश में लाया गया है वे आंबेडकर के चुनाव एजेंट रहे हैं। उन्होंने और मौजूद सहसरकार्यवाह डा कृष्ण गोपाल ने आंबेडकर पर किताबें लिखी हैं। संघ के मुखपत्रों पांचजन्य और आर्गनाइजर ने आंबेडकर विशेषांक निकाला है। भाजपा आंबेडकर को सोशल इंजीनिरयरिंग का सूत्र समझ रही है। कांग्रेस ने 21 सदस्यों की एक समिति बनाई जिसकी अध्यक्ष सोनिया गांधी है। यह समिति आंबेडकर-आंबेडकर करेगी।
साल 1956 में लोहिया और आंबेडकर साथ आऩे से चूक गये थे। दोनों भारतीय जाति व्यवस्था को खत्म कर दलितों पिछड़ों किसानों और मजदूरों के लिए बराबरी पर आधारित समाज बनाना चाहते थे। यही समाज लोहिया का समाजावाद और आंबेडकर का गणतंत्र था। आंबेडकर चाहते थे कि वह अपनी शेड्यूल कास्ट फेडरेशन को भंग कर सर्वजन समावेशक रिपब्लिकन पार्टी बनाएं। लोहिया ने 10 दिसंबर 1955 को हैदराबाद से डा भीमराव आंबेडकर को पत्र लिखा था जिसमें उन्होंने अपने मैंनकांडज अखबार में प्रचलित जाति प्रथा के किसी पहलू पर लेख मांगा था। उन्होंने समाजवादी दल के स्थापना सम्मेलन में आंबेडकर को आमंत्रित भी किया था। लोहिया के मित्र विमल मेहरोत्रा और धर्मवीर गोस्वामी ने आंबेडकर से मुलाकात भी की थी। आंबेडकर ने अपने पत्र में इनसे मिलने की बात स्वीकार करते हुए कहा था कि भारतीय शेड्यूल कास्ट फेडरेशन की कार्यसमिति में वे लोहिया और उनके मित्रों का प्रस्ताव रखेंगे। 30 सितंबर 1956 को होने वाली कार्यसमिति में यह प्रस्ताव रखने की बात की थी। 2 अक्टूबर को आंबेडकर ने अपने दिल्ली स्थित आवास पर लोहिया को मिलने के लिए बुलाया था। हालांकि लोहिया ने दिल्ली पहुंचने में असमर्थता जताई थी। लोहिया ने आंबेडकर को कानपुर से लोकसभा चुनाव लड़ने का न्यौता दिया था। लेकिन आज आंबेडकरवाद की अति ने अखिलेश और मायावती को मिलने पर विवश कर दिया है।
अति को ऐसे भी समझा जा सकता है कि केंद्रीय गृहमंत्रालय को आंबेडकर जयंती पर राज्यो को सतर्कता बरतने के लिए एडवाइजरी जारी करनी पड़ती है। जब पूरा देश आंबेडकरमय होने का स्वांग रच रहा था तब आगरा में भाजपा विधायक वीरेंद्र सिंह लोधी को आंबेडकर की प्रतिमा पर माल्यापर्ण से आंबेडकरवादियों ने रोक दिया। नोयडा रिछपालगढी गांव में कुछ असमाजिक तत्वों ने पार्क में लगी उनकी प्रतिमा तोड़ दी।बंदायूं में गद्दीचौक इलाके में आंबेडकर की प्रतिमा को सलाखों में बन्द कर ताला लगना पड़ा। बडोदरा में मेनका गांधी द्वारा आंबेडकर प्रतिमा पर माल्यापर्ण के बाद दलित समुदाय के लोगों को आंबेडकर प्रतिमा को धोकर साफ करना पड़ा। मुरादाबाद में समाज कल्याण राज्य मंत्री गुलाबो देवी को आंबेडकर जयंती का कार्यक्रम इसलिए छोड़कर जाना पड़ा क्योंकि इसमें हिंदू देवी देवताओं के बारे में आपत्तिजनक टिप्पणी हो रही थी। लखनऊ के महमूदनगर में सरकारी जमीन पर आंबेडकर प्रतिमा लगाने के खिलाफ प्रशासन को खड़ा होना पड़ा।
जब सभी आंबेडकरमय हो रहे थे उसी दिन मुजफ्फरनगर के थाना पोगाना में अपनी पत्नी के खिलाफ हुई छेड़छाड़ की शिकायत करने गये पति और बेटे की गिरफ्तारी पुलिस ने पुराने किसी केस में कर ली। महिला को क्षुब्ध होकर आत्महत्या करना पड़ा। लखीमपुर के निघासन में बकरा चोरी के आरोप में दलित को इतना पीटा गया कि वह मर गया। अमेठी में दलित छात्रा के रेप के बाद हत्या का मामला प्रकाश में आता हो। मुजफ्फरनगर के अब्दुलपुर गांव में जाट-दलित संघर्ष आकार ले लिया। हाथरस में दलित समाज के एक व्यक्ति ने घोड़े पर बैठकर गांव घूमने की इच्छा क्या जताई कि उसके खेत का पानी बंद कर दिया गया। लेकिन इस तरह की घटनाएँ अतिवाद में गुम हो गयीं। वह भी तब जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी यह कह रहे थे कि वे प्रधानमंत्री आंबेडकर के कारण बन पाए। हालांकि मायावती भी यही बात कहती हैं।
दस्तावेज से हरिजन और दलित शब्द हटाने की आदेश निकाले गये हों। भाजपा सांसद भरत सिंह आंबेडकर प्रतिमाओं को नुकसान पहुंचाने के पीछे ईसाई मशीनरी का हाथ बता रहे हों। कभी सोनिया गांधी के लिए पेड़ पर चढ़ अपनी कनपटी पर अपनी रिवाल्वर लगा लेने वाले भाजपा राष्ट्रीय कार्यसमिति के सदस्य और पूर्व सांसद गंगाचरण राजपूत मंदिरों में आंबेडकर की मूर्ति लगाने की वकालत कर रहे हों वह भी तब जब भारत भर में महात्मा गांधी से ज्यादा मूर्तियां आंबेडकर की लगी हैं। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने सरकारी कार्यालयों में आंबेडकर के चित्र लगाने का आदेश जारी कर दलित मित्र पुरस्कार के हकदार हो गये हों। बीते दिनों बंद के आह्वान में दलितों के गुस्से का अभूतपूर्व विस्फोट दिखा हो। पूर्व मुख्य-न्यायाधीश के जी बालाकृष्णन एस सी एसटी कानून पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले की समीक्षा कर रहे हों, राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद को जय भीम और जय हिंद का नारा लगाना पड़ रहा हो, उन्हें कहना पड़ रहा हो- इस समय समर की नहीं समरसता की जरुरत है। उन्हें कहना पड़ रहा हो कि समभाव और मम्भाव की जरुरत है। मतलब जितना आंबेडकर-आंबेडकर हो रहा है दलित उतने ही कष्ट में पड़ते जा रहे हैं। उनके साथ हो रही ज्यादतियों की अनसुनी हो रही है।
विरोध समर्थन अपने उत्कर्ष के चरम पर है। साल 1952 के मतदान के लिए आंबेडकर ने अनुसूचित जाति संघ के लिए घोषणा पत्र लिखा था। 19 पेज के इस दस्तावेज में पिछड़ी जातियों, दलितों और आदिवासियों के लिए महज एक पन्ना था। बाकी पन्नों में भारत को अमेरिका और यूरोप की तर्ज पर औद्योगिक और आधुनिक बनाने की योजना थी। छोटे खेतों की जगह बड़े खेत बनाने और स्वस्थ बीजों की आपूर्ति की बात थी। आंबेडकर जाति व्यवस्था को औद्योगिकीकरण और शहरीकरण से खत्म करना चाहते। क्योंकि औद्योगिकीकरण ने दास प्रथा को खत्म किया था। आंबेडकर इस्लाम में महिलाओं की स्थिति को लेकर चिंतित थे। वे बहुविवाह प्रथा के खिलाफ थे। वह मानते थे कि सामाजिक आजादी सत्ता की भागीदारी से होगी। जो आज तक नहीं आई।
अमेरिका में कोंडिला राइज और बाराक ओबामा सत्ता की भागीदारी में बिना किसी रहमोकरम और बैसाखी के बिना आए थे यहां यह नहीं होने दिया जा रहा है। यही वजह है कि आंबेडकर का सामाजिक स्वतंत्रता अभियान जारी है। जब हमें रामायण की जरुरत पडी थी तो हम शूद्रवर्ण के ऋषि वाल्मीकि के पास गये। महाभारत की आवश्यकता पड़ी तो शूद्र वर्ण के ऋषि वेदव्यास के पास गये। आज हम जब आंबेडकर के पास जा रहे हैं तो हमारी कोशिश उनकी बड़ी मूर्ति लगाने की है न कि उनके आदर्शों पर दूरी तय करने की। सारी कोशिश ऐसी हो रही है जैसे अतिवाद ने आजादी के बाद गांधीवाद को मुर्दा कर दिया। आज मुर्दा आंबेडकर वाद गढने की साजिश चल रही है। आंबेडकर आधुनिक कबीर थे उन्हें मुर्दा गांधीवाद की ओर मत ले जाइए।