यह भारत की एक दुर्भाग्यपूर्ण तिथि है। इसी दिन सिरफिरे नाथूराम गोडसे ने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की हत्या कर दी थी। उसके बाद से गांधी की हत्या का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है। उनको मारने का क्रम निरंतर जारी है। इन दिनों यह काम सांसद प्रज्ञा ठाकुर कर रही हैं। इनसे पहले अनगिनत लोगों ने गांधी की हत्या की कोशिश की है। गांधी की कई बार हत्या का जिक्र इसलिए क्योंकि गांधी सिर्फ संज्ञा नहीं रह गए थे। वह विशेषण हो गए थे। गांधी की हत्या की साजिश में जिन लोगों के हाथ सने अब तक दिखे हैं, उनमें से कोई ऐसा नहीं है जिसे समाज, देश उनके किसी और कृत्य के लिए जानता हो। गोडसे को भी लोग गांधी की हत्या के बाद ही जान पाए। मतलब साफ है कि जब भी किसी सिरफिरे को ‘लाइम लाइट‘ की जरूरत महसूस होती है। तब वह गांधी को मारने पर आमादा हो जाता है। यह दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि गांधी को मारने की कोशिश में उस सिरफिरे को 'लाइम लाइट' मिल ही जाती है।
रज्ञा ठाकुर भोपाल से भाजपा की सांसद हैं। वह जिस संसद भवन में बैठती हैं, इस भवन तक जाने के लिए उन्होंने जो भी मेहनत मशक्कत की, जोर आजमाइश की, वह महात्मा गांधी के आंदोलनों और अहिंसा के अस्त्र के चलते आकार ले सका। यदि बहुत नकारात्मक भाव से भी सोचा जाए तो यह तो कहना ही पड़ेगा कि गांधी के बिना आजादी संभव नहीं थी। गांधी भी देश को आजाद कराने वालों में से एक और महत्वपूर्ण थे। और जितने भी लोग थे सबके श्रद्धा के केंद्र महात्मा गांधी जरूर थे। आज गोडसे के बहाने गांधी को मारने की जो कोशिश प्रज्ञा ठाकुर कर रही हैं, उससे गांधी नहीं बल्कि गोडसे मर रहा है। प्रज्ञा और उनका गोडसे लोगों के चित्त से उतर रहा है। मरने का यह भी एक स्वरूप है। अगर ऐसा नहीं होता तो बीते लोकसभा चुनाव के दौरान प्रज्ञा ठाकुर ने जब गोडसे को देशभक्त बताया तब उन्हें न केवल माफी मांगनी पड़ी बल्कि उनकी पार्टी के नेता, प्रधानमंत्री और जिसके सहारे जीत कर लोकतंत्र की वैतरणी पार करने में वह कामयाब हुईं, नरेंद्र मोदी ने कहा- ‘मैं उन्हें मन से कभी माफ नहीं कर सकता। यह बातें पूरी तरह घृणा के लायक हैं। सभ्य समाज के अंदर इस तरह की बातें नहीं चलतीं।‘
यही नहीं, शीतकालीन सत्र के दौरान लोकसभा में प्रज्ञा ठाकुर ने गोडसे को लेकर जो कुछ कहा उस पर उन्हें रक्षा मंत्रालय की समिति से बाहर होना पड़ा। भाजपा के कार्यकारी अध्यक्ष जेपी नड्डा और रक्षामंत्री राजनाथ सिंह ने प्रज्ञा ठाकुर के स्टैंड के मुखालफत में खड़े होना जरूरी समझा। कहा गया- नाथूराम गोडसे को देशभक्त मानने की सोच की वह और उनकी पार्टी निंदा करते हैं। राजनाथ सिंह ने दो कदम आगे बढ़ते हुए कहा, ‘ऐसी सोच की हम भर्त्सना और निंदा करते हैं। महात्मा गांधी पहले भी देश के मार्गदर्शक थे। आज भी हैं। और आगे भी रहेंगे। उनकी विचारधारा आज भी और भविष्य में भी प्रासंगिक रहेगी।‘
वैसे प्रज्ञा ठाकुर जैसे लोग आसानी से इन बातों को समझने वाले नहीं। इन्हें तो गांधी के बहाने नाम और पहचान चाहिए। प्रज्ञा जैसे लोग कम नहीं हैं। तभी तो सोशल मीडिया पर एक ही साथ राष्ट्रपिता महात्मा गांधी और नाथूराम गोडसे दोनों ट्रेंड करते हैं। इस वर्चुअल दुनिया में एक्चुअल कुछ नहीं है। इसलिए इस पर गौर करना उचित नहीं होगा। गांधी एक्चुअल दुनिया के लोग थे। उनकी किताब सत्य के साथ प्रयोग इसे साबित करती है। गांधी को मारने का जो शौक है, वह उनके जीवन काल में भी रहा है।
गोडसे से पहले छह बार गांधी को मारने की और साजिश हो चुकी थी। छठवीं बार उनकी जान गई। पहली साजिश 1934 में पुणे में हुई थी। उन्हें एक समारोह में जाना था। वहां लगभग एक जैसी दो गाड़ियां थीं। एक में आयोजक थे। दूसरे में महात्मा गांधी उनकी पत्नी कस्तूरबा गांधी थीं। अचानक रेलवे फाटक बंद होने के चलते गांधी की गाड़ी को रुकना पड़ा। आयोजकों की कार निकल गई। रेलवे फाटक से थोड़ी दूर आगे चलते ही कार के परखच्चे उड़ गए। गांधी बच गए।
दूसरा और तीसरा हमला 1944 में हुआ था। दूसरा हमला उस समय हुआ जब आगा खां पैलेस से रिहाई के बाद गांधी पंचगणी जाकर रुके। वहां उनके खिलाफ प्रदर्शन हो रहा था। गांधी ने प्रदर्शनकारियों से बात करने की कोशिश की। बात नहीं बनी। आखिर में एक आदमी छूरा लेकर गांधी की तरफ दौड़ा। लेकिन पकड़ लिया गया। इसके बाद तीसरा हमला उस समय हुआ जब गांधी और जिन्ना की बंबई में वार्ता होने वाली थी। मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा के लोग नाराज थे। यहां भी गांधी पर हमले की योजना नाकाम हुई।
चौथा हमला 1944 में हुआ। महाराष्ट्र के नेरूल के पास रेल की पटरियां उखाड़ दी गई थीं। जिस रेलगाड़ी को उस समय पटरी से गुजरना था। उसमें गांधी यात्रा कर रहे थे। ट्रेन पलट गई। इंजन टकरा गया। लेकिन गांधी बच गए। पांचवा हमला 1948 में तब हुआ जब मदनलाल गांधी पर बम फोड़ना चाहते थे। पर वह फटा ही नहीं। सब पकड़ लिए गए।
छठवां हमला 30 जनवरी, 1948 को तब हुआ जब प्रार्थना सभा में जाते समय नाथूराम गोडसे ने उन पर गोली चलाई। गांधी की जान चली गई। हैरतंगेज यह है कि चार हमलों की जगह पर नाथूराम गोडसे खुद मौजूद था। इनके अलावा गांधी की जान लेने के दो और प्रयास चंपारण में हुए। इन दोनों प्रयासों का कोई दस्तावेज उपलब्ध नहीं है। लेकिन चंपारण की कहानियों, लोक स्मृतियों और लोकोक्तियों में इन दोनों हमलों का जिक्र आज भी सुना जा सकता है। 1957 में राजेंद्र प्रसाद मोतिहारी गए। वहां एक जनसभा में उन्होंने भाषण दिया। उन्हें लगा कि दूर खड़े एक आदमी को वह पहचानते हैं। उन्होंने आवाज लगाई- बतख भाई कैसे हो। बतख मियां को मंच पर बुलाया गया। राजेंद्र प्रसाद ने किस्सा सुनाया कि महात्मा गांधी मोतिहारी में थे तो नील फैक्टरियों के नेता इरविन ने उन्हें बातचीत के लिए बुलाया। उसने यह सोचा कि अगर इस दौरान गांधी को खाने-पीने की चीज में कुछ ऐसा जहर दिया जाए। जिसका असर देर से हो तो उनकी जान चली जाएगी। पता भी नहीं चलेगा। इसके लिए बतख मियां अंसारी को चुना गया। उन्हें कहा गया कि आप वह ट्रे लेकर गांधी के पास जाओगे, जिसमें खाने-पीने की चीजें होंगी। उनका छोटा सा परिवार था। कम जोत के किसान थे। नौकरी से काम चलता था। लिहाजा वह मना नहीं कर सके। ट्रे लेकर गांधी के सामने पहुंच तो गए पर हिम्मत नहीं हुई कि उसे उनके सामने रख दें। गांधी ने उन्हें जब सर उठाकर देखा तो बतख मियां रोने लगे। सारी बात खुल गई। इसके चलते उन्हें जेल हुई। जमीने नीलाम हो गईं। उनका कोई नामलेवा नहीं बचा। लेकिन राजेंद्र प्रसाद मोतिहारी से उन्हें अपने साथ ले गए।
बतख मियां के बेटे जान मियां अंसारी को उन्होंने कुछ दिन राष्ट्रपति भवन में रखा। राष्ट्रपति भवन ने उस समय की बिहार सरकार को पत्र लिखा कि बतख मियां के परिवार को 35 एकड़ जमीन मुहैया कराई जाए। आज तक इसकी फाइल चल रही है। चंपारण का दूसरा वाकया तब का है जब एक अंगेज मिल मालिक गुस्से में यह कह रहा था कि गांधी अकेले मिल जाएं तो गोली मार दूंगा। गांधी को यह पता चला। वह उसी इलाके में थे। दूसरे दिन सुबह वह उस अंग्रेज की कोठी पर पहुंच गए। चौकीदार से कहा कि जाकर बता दो, गांधी आ गया है और अकेला है। कोठी का दरवाजा नहीं खुला अंग्रेज बाहर नहीं आया। प्रज्ञा और उन जैसे लोग इस गांधी को अब कैसे मार पाएंगे? गांधी एक्चुअल वर्ल्ड के हैं। एक्चुअल वर्ल्ड सत्य होता है। मुंडक उपनिषद बताता है- सत्यमेव जयते।
रज्ञा ठाकुर भोपाल से भाजपा की सांसद हैं। वह जिस संसद भवन में बैठती हैं, इस भवन तक जाने के लिए उन्होंने जो भी मेहनत मशक्कत की, जोर आजमाइश की, वह महात्मा गांधी के आंदोलनों और अहिंसा के अस्त्र के चलते आकार ले सका। यदि बहुत नकारात्मक भाव से भी सोचा जाए तो यह तो कहना ही पड़ेगा कि गांधी के बिना आजादी संभव नहीं थी। गांधी भी देश को आजाद कराने वालों में से एक और महत्वपूर्ण थे। और जितने भी लोग थे सबके श्रद्धा के केंद्र महात्मा गांधी जरूर थे। आज गोडसे के बहाने गांधी को मारने की जो कोशिश प्रज्ञा ठाकुर कर रही हैं, उससे गांधी नहीं बल्कि गोडसे मर रहा है। प्रज्ञा और उनका गोडसे लोगों के चित्त से उतर रहा है। मरने का यह भी एक स्वरूप है। अगर ऐसा नहीं होता तो बीते लोकसभा चुनाव के दौरान प्रज्ञा ठाकुर ने जब गोडसे को देशभक्त बताया तब उन्हें न केवल माफी मांगनी पड़ी बल्कि उनकी पार्टी के नेता, प्रधानमंत्री और जिसके सहारे जीत कर लोकतंत्र की वैतरणी पार करने में वह कामयाब हुईं, नरेंद्र मोदी ने कहा- ‘मैं उन्हें मन से कभी माफ नहीं कर सकता। यह बातें पूरी तरह घृणा के लायक हैं। सभ्य समाज के अंदर इस तरह की बातें नहीं चलतीं।‘
यही नहीं, शीतकालीन सत्र के दौरान लोकसभा में प्रज्ञा ठाकुर ने गोडसे को लेकर जो कुछ कहा उस पर उन्हें रक्षा मंत्रालय की समिति से बाहर होना पड़ा। भाजपा के कार्यकारी अध्यक्ष जेपी नड्डा और रक्षामंत्री राजनाथ सिंह ने प्रज्ञा ठाकुर के स्टैंड के मुखालफत में खड़े होना जरूरी समझा। कहा गया- नाथूराम गोडसे को देशभक्त मानने की सोच की वह और उनकी पार्टी निंदा करते हैं। राजनाथ सिंह ने दो कदम आगे बढ़ते हुए कहा, ‘ऐसी सोच की हम भर्त्सना और निंदा करते हैं। महात्मा गांधी पहले भी देश के मार्गदर्शक थे। आज भी हैं। और आगे भी रहेंगे। उनकी विचारधारा आज भी और भविष्य में भी प्रासंगिक रहेगी।‘
वैसे प्रज्ञा ठाकुर जैसे लोग आसानी से इन बातों को समझने वाले नहीं। इन्हें तो गांधी के बहाने नाम और पहचान चाहिए। प्रज्ञा जैसे लोग कम नहीं हैं। तभी तो सोशल मीडिया पर एक ही साथ राष्ट्रपिता महात्मा गांधी और नाथूराम गोडसे दोनों ट्रेंड करते हैं। इस वर्चुअल दुनिया में एक्चुअल कुछ नहीं है। इसलिए इस पर गौर करना उचित नहीं होगा। गांधी एक्चुअल दुनिया के लोग थे। उनकी किताब सत्य के साथ प्रयोग इसे साबित करती है। गांधी को मारने का जो शौक है, वह उनके जीवन काल में भी रहा है।
गोडसे से पहले छह बार गांधी को मारने की और साजिश हो चुकी थी। छठवीं बार उनकी जान गई। पहली साजिश 1934 में पुणे में हुई थी। उन्हें एक समारोह में जाना था। वहां लगभग एक जैसी दो गाड़ियां थीं। एक में आयोजक थे। दूसरे में महात्मा गांधी उनकी पत्नी कस्तूरबा गांधी थीं। अचानक रेलवे फाटक बंद होने के चलते गांधी की गाड़ी को रुकना पड़ा। आयोजकों की कार निकल गई। रेलवे फाटक से थोड़ी दूर आगे चलते ही कार के परखच्चे उड़ गए। गांधी बच गए।
दूसरा और तीसरा हमला 1944 में हुआ था। दूसरा हमला उस समय हुआ जब आगा खां पैलेस से रिहाई के बाद गांधी पंचगणी जाकर रुके। वहां उनके खिलाफ प्रदर्शन हो रहा था। गांधी ने प्रदर्शनकारियों से बात करने की कोशिश की। बात नहीं बनी। आखिर में एक आदमी छूरा लेकर गांधी की तरफ दौड़ा। लेकिन पकड़ लिया गया। इसके बाद तीसरा हमला उस समय हुआ जब गांधी और जिन्ना की बंबई में वार्ता होने वाली थी। मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा के लोग नाराज थे। यहां भी गांधी पर हमले की योजना नाकाम हुई।
चौथा हमला 1944 में हुआ। महाराष्ट्र के नेरूल के पास रेल की पटरियां उखाड़ दी गई थीं। जिस रेलगाड़ी को उस समय पटरी से गुजरना था। उसमें गांधी यात्रा कर रहे थे। ट्रेन पलट गई। इंजन टकरा गया। लेकिन गांधी बच गए। पांचवा हमला 1948 में तब हुआ जब मदनलाल गांधी पर बम फोड़ना चाहते थे। पर वह फटा ही नहीं। सब पकड़ लिए गए।
छठवां हमला 30 जनवरी, 1948 को तब हुआ जब प्रार्थना सभा में जाते समय नाथूराम गोडसे ने उन पर गोली चलाई। गांधी की जान चली गई। हैरतंगेज यह है कि चार हमलों की जगह पर नाथूराम गोडसे खुद मौजूद था। इनके अलावा गांधी की जान लेने के दो और प्रयास चंपारण में हुए। इन दोनों प्रयासों का कोई दस्तावेज उपलब्ध नहीं है। लेकिन चंपारण की कहानियों, लोक स्मृतियों और लोकोक्तियों में इन दोनों हमलों का जिक्र आज भी सुना जा सकता है। 1957 में राजेंद्र प्रसाद मोतिहारी गए। वहां एक जनसभा में उन्होंने भाषण दिया। उन्हें लगा कि दूर खड़े एक आदमी को वह पहचानते हैं। उन्होंने आवाज लगाई- बतख भाई कैसे हो। बतख मियां को मंच पर बुलाया गया। राजेंद्र प्रसाद ने किस्सा सुनाया कि महात्मा गांधी मोतिहारी में थे तो नील फैक्टरियों के नेता इरविन ने उन्हें बातचीत के लिए बुलाया। उसने यह सोचा कि अगर इस दौरान गांधी को खाने-पीने की चीज में कुछ ऐसा जहर दिया जाए। जिसका असर देर से हो तो उनकी जान चली जाएगी। पता भी नहीं चलेगा। इसके लिए बतख मियां अंसारी को चुना गया। उन्हें कहा गया कि आप वह ट्रे लेकर गांधी के पास जाओगे, जिसमें खाने-पीने की चीजें होंगी। उनका छोटा सा परिवार था। कम जोत के किसान थे। नौकरी से काम चलता था। लिहाजा वह मना नहीं कर सके। ट्रे लेकर गांधी के सामने पहुंच तो गए पर हिम्मत नहीं हुई कि उसे उनके सामने रख दें। गांधी ने उन्हें जब सर उठाकर देखा तो बतख मियां रोने लगे। सारी बात खुल गई। इसके चलते उन्हें जेल हुई। जमीने नीलाम हो गईं। उनका कोई नामलेवा नहीं बचा। लेकिन राजेंद्र प्रसाद मोतिहारी से उन्हें अपने साथ ले गए।
बतख मियां के बेटे जान मियां अंसारी को उन्होंने कुछ दिन राष्ट्रपति भवन में रखा। राष्ट्रपति भवन ने उस समय की बिहार सरकार को पत्र लिखा कि बतख मियां के परिवार को 35 एकड़ जमीन मुहैया कराई जाए। आज तक इसकी फाइल चल रही है। चंपारण का दूसरा वाकया तब का है जब एक अंगेज मिल मालिक गुस्से में यह कह रहा था कि गांधी अकेले मिल जाएं तो गोली मार दूंगा। गांधी को यह पता चला। वह उसी इलाके में थे। दूसरे दिन सुबह वह उस अंग्रेज की कोठी पर पहुंच गए। चौकीदार से कहा कि जाकर बता दो, गांधी आ गया है और अकेला है। कोठी का दरवाजा नहीं खुला अंग्रेज बाहर नहीं आया। प्रज्ञा और उन जैसे लोग इस गांधी को अब कैसे मार पाएंगे? गांधी एक्चुअल वर्ल्ड के हैं। एक्चुअल वर्ल्ड सत्य होता है। मुंडक उपनिषद बताता है- सत्यमेव जयते।