जिस देश और समाज को उसके इतिहास का ज्ञान नहीं होता। इतिहास पर गर्व नहीं होता। वह काल के साथ कवलित हो जाता है। हमारे इतिहास से शुरू से छेड़छाड़ हो रही है। पाठ्यक्रमों में इतनी भ्रामक सूचनाएं हैं कि सरकार बदलते ही छात्र को पुराना इतिहास बेमानी लगने लगता है। नये इतिहास केे सामने वह यक्ष प्रश्न के साथ खड़ा मिलता है। भारत उन गिने-चुने देशों में है जिसके हर महापुरुषों के पीछे कुछ न कुछ गल्प, मिथ इस तरह चस्पा कर दिये जाते हैं कि उसके महापुरुष होने पर ही सवाल उठने लगे। भारत में पार्टियों के, समाज के और जातियों के अपने-अपने महापुरुष हैं। देश के महापुरुष राष्ट्र से सिमट कर धर्म, जाति और संप्रदाय में समा गये हैं।
आजादी से पहले कोई ऐसी शताब्दी नहीं रही जब देश के किसी न किसी भाग पर कोई न कोई आक्रमण न हुआ हो। पारसी, यवन, हूण, कुषाण, तुर्क, मुगल, अंग्रेज, डच, फ्रांसीसी और पुर्तगलीज सबने हम पर आक्रमण और राज्य किया। 1947 में हमारे देश में 564 स्वतंत्र रियासतें थीं। जिन्हें सरदार पटेल ने एक किया। 1957 के प्लासी के युद्ध से अंग्रेज 1946 तक भारत को एक करते रहे ताकि उनका साम्रज्य बढ़ सके। तब भी इतनी रियासतें बच गई थी। बुद्ध के समय केवल उत्तर भारत में पच्चीस सौ राज्य थे। शिवाजी के 12 सेना नायक मुस्लिम थे। 1761 में मराठों से युद्ध में इब्राहिम गार्दी मराठों का तोपची था। हल्दी घाटी का युद्ध राणा प्रताप और मान सिंह के बीच हुआ। मान सिंह अकबर की तरफ से लड़ रहा था। राणा प्रताप का सेनापति हाकिम खान सूर था। लेकिन पाठ्यक्रमों से यह नदारद है।
होता यह है कि जब-जब सपा, बसपा, कांग्रेस और भाजपा में से किसी की सरकार होती है तो महापुरुष बदल जाते हैं। इतना ही नहीं पुरानी पार्टी के कालखंड के महापुरुष खारिज कर दिये जाते हैं। ऐसा क्यों नहीं होता कि सबके महापुरुष एक हों। सबके महापुरुष सबके हों। देश के महापुरुष हर दल, जाति और धर्म के हों। इसके पीछे खड़ी सियासत है। अखिलेश यादव उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे तो उन्होंने गोंडा के राजापुर को तुलसी दास की जन्म स्थली बता दिया। यूपी बोर्ड की एक किताब में तुलसी दास की पत्नी का नाम रत्नावली बता दिया गया। यही नहीं, सर्वशिक्षा अभियान की किताब राजा हरिश्चंद्र की पत्नी का नाम चंद्रावती लिख देती है जबकि तारामती था। इसी किताब में आचार्य रामचंद्र शुक्ल के हवाले से कहा जाता है कि तुलसी दास आजमगढ़ के सूकर क्षेत्र के रहने वाले थे। ‘निरंतर‘ और लखनऊ विश्वविद्यालय के वूमेन स्टडी सेंटर की रिपोर्ट ने खुलासा किया कि दुर्वासा एक मुनि हैं, जो शंकर के अंश से उत्पन्न अनसुइया और अत्रि के पुत्र हैं। यह रिपोर्ट सरकारी स्कूल में पढ़ाई जाने वाली किताब पर आधारित थी। रिपोर्ट ने कई गलतियां और उजागर की।
लंदन की एक लेखिका जयश्री मिश्रा ‘रानी‘ नामक अपनी किताब में लक्ष्मीबाई के चरित्र पर कीचड़ उछालती हैं। मध्य प्रदेश सरकार सुभद्रा कुमारी की कविता ‘खूब लड़ी मर्दानी‘ से वह हिस्सा हटा देती है जिसमेें सिंधिया घराने का जिक्र है। एनसीआरटी की किताब यह बताती है कि शून्य का प्रचलन गुप्त काल में हुआ। सरकारी किताब में तिरंगे का स्वरूप ही बदल जाता है। भारत के नक्शे से अरुणाचल गायब हो जाता है। जम्मू-कश्मीर छूट जाता है। क्रांतिकारी श्यामजी कृष्ण वर्मा और अगस्त काम्टे के कालखंड गलत लिख दिये जाते हैं।
दिल्ली विश्वविद्यालय के बीए आनर्स की किताब में हिंदू देवी-देवताओं पर ओछी टिप्पणियां कर दी जाती हैं। माध्यमिक शिक्षा परिषद की जीव विज्ञान की किताब के पेज 175 पर संभोग शब्द का इस्तेमाल हो जाता है। एक किताब बताती है कि मोहनदास बाल्यकाल से दूषित प्रवृत्तियों के शिकार थे। इसमें महात्मा गांधी की जगह गांधी लिखा गया है। एनसीआरटी कि किताब के 75 विवादित अंश हटवाने के लिए लोगों को दिल्ली हाई कोर्ट की शरण लेनी पड़ती है। मेरठ विश्वविद्यालय के बीए की परीक्षा में पूछे गये एक सवाल में हिंदू देवी-देवताओं को बदसूरत बताया गया, और लिखा गया कि उन पर विश्वास करने के कारण तुम मूर्ख बने हो। बेसिक शिक्षा परिषद की एक किताब में वैश्य समाज के लिए बदमाश और शैतान शब्द प्रयोग किये गये। परिषद की किताब यह प्रमाणित करने लगी कि शेरशाह सूरी से पहले अकबर दिल्ली के बादशाह बन गये थे। पाठ्यक्रम में यह बताया जा रहा है कि सूरदास एक गांव में पैदा हुये थे।
दिल्ली की विकास बुक लिमिटेड कि चाइल्ड ग्लोरी सीरीज की एक किताब के भाग-8 में पेज नंबर 446 पर कुर्मी, कहार को निकृष्ट बता दिया जाता है। पूर्व नौकरशाह टी.एस.आर सुब्रमंणियन की किताब में सरकारी बाबू तुच्छ और स्वार्थी बताये जाते हैं। महाकाव्यों की प्रमाणिकता को लेकर अक्सर सवाल उठते हैं। ‘कथा भारती‘ किताब में विज्ञान को समर्पित प्रोफेसर यशपाल की मृत्यु 1976 में हुई बतायी जाती है। पिछले साल उनका निधन हुआ। हिमाचल प्रदेश के काॅलेजों में अंग्रेजी विषय में बच्चों को जातिवाद का पाठ पढ़ाया जा रहा है। शहीद चंद्र शेखर आजाद और भगत सिंह को आतंकी बता देना तो आम चलन हो गया है। दिल्ली विश्वविद्यालय की पुस्तक में महात्मा गांध को सांप्रदायिक और सरदार पटेल को नरेंद्र मोदी बताने की कोशिश हुई। यह बात 2005 की है। बच्चों को पढ़ाया गया कि गांधी के स्वराज्य की व्याख्या के कारण मुसलमानों में अलगाववाद की प्रवृत्ति बढ़ी। उत्तर प्रदेश की एक किताब के मुताबिक वासुदेव शरण अग्रवाल मेरठ और लखनऊ दोनों जगह जन्मे थे। स्काउट गाइड की किताब झंडे का रंग गलत बताती है। पौराणिक कथाओं को इतिहास का हिस्सा बनाया जाता है। उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद की जन्मतिथि कुछ लोग इस 10 अगस्त बताने लगते है तो कुछ 31 जुलाई। ये तो चंद नजीरें हैं। ये गलतियां 2005 से 2017 के बीच की हैं। इस बीच सभी दलों की सरकारें रही हैं। हमारे पूर्वजों को दुनिया पूज रही है। हम उन पर सवाल खड़े कर रहे हैं। नतीजतन, महापुरुषों, पूर्वजों पर गर्व करने के लिए नई पीढ़ी के पास जगह ही कहां बचती है। हर नौजवान के लियेे इतिहास अनिवार्य होना चाहिए। क्योंकि इतिहास और महापुरुषों को यदि हम नहीं जानेंगे तो अपने भविष्य का निर्धारण कैसे करेंगे। हर नौजवान को चाहिए कि वह अपने खाली समय में हिंदुस्तान का नक्शा देखे और इतिहास पढ़े। राजनेताओं को चाहिए कि महापुरुषों के बंटवारे की प्रक्रिया बंद करें। हर महापुरुष ने अपनी मेधा, प्रतिभा और शौर्य से इस गुलदस्ते को सींचा है, तभी दो सौ जातियों और तीन हजार उपजातियों वाले इस गुलदस्ते में इतनी विविधता के बाद भी लोकतंत्र जीवित है।