तिहत्तर साल पहले हिटलर की हार के बाद पूर्वी जर्मनी पर सोवियत संघ के कब्जे के दौरान महिलाओं के साथ हुए उत्पीड़न का जिक्र एक जर्मन महिला ने किया था। वर्ष 1945 के 20 अप्रैल, से 22 जून तक की उस महिला की डायरी का अंश ‘अ वूमेन इन बर्लिन‘ के नाम से प्रकाशित भी हुआ। लेकिन यह सब अनाम था। तब किसी ने सोचा भी नहीं था कि महिलाएं अपने खिलाफ हुए छेड़छाड़, शोषण और उत्पीड़न की वारदातों का जिक्र 15-20 सालों बाद कर पायेंगी। आज जब हम आधी आबादी को शक्तिशाली बनाने और समाज में पुरुष के बराबर खड़े होने का पाठ पढ़ा रहे हैं, उनकी सुरक्षा के लिये तमाम कानून ला रहे हैं। तब कई साल पुराने मामलों के खुलासे को लेकर हंगामा बरपा है। मी टू एक नई समाजिक सुनामी बनकर उभरा है, जिसकी जद में फिल्म अभिनेता, धनकुबेर, क्रिकेट खिलाड़ी, राजनेता, पत्रकार ही नहीं, तमाम नामचीन आते जा रहे हैं। जितने बड़े लोगों पर मी टू का कीचड़ उछल रहा है। उतने ही तरह के सवाल उठ रहे हैं। मसलन, इतनी देर से क्यों? क्या सचमुच छेड़छाड़ थी? आरोप हैं या फंसाने की साजिश? लेकिन इन सवालों के बरक्स खुलासों का निरंतर बढ़ते जाना एक नई कहानी कहता है। जिसमें इस बात का पाठ है कि क्या हमारी महिलाएं बोल्ड हो रही हैं। क्या उन्हें सामाजिक संरचना में किसी बड़े बदलाव का एहसास हो रहा है।
2006 में अमेरिका के टैराना बुर्के द्वारा शुरू किये गये इस अभियान को जब 15 अक्टूबर, 2017 को अभिनेत्री अलिसा मिलानो ने मी टू के तहत यौन शोषण की शिकार महिलाओं को इससे जुड़ने के लिए प्रेरित करने वाला ट्विट किया तब एक दिन में वह पांच लाख बार रिट्विट हुआ। 47 लाख लोगों ने मी टू हैशटैग इस्तेमाल किया। फेसबुक पर एक करोड़ बीस लाख लोगों ने 24 घंटे के अंदर इसे पोस्ट किया। सोशल मीडिया पर अक्टूबर 2017 से 12 अक्टूबर, 2018 के बीच 41,34,33,052 रीच मी टू के अभियान की रही, जिसमें फेसबुक पर 32 करोड़ से अधिक, ट्वीटर पर तकरीबन 5 करोड़ और इंस्टाग्राम पर तकरीबन 2 करोड़ लोग इस अभियान से जुड़े। यहूदी अमेरिकन जार्ज सोरोस ओपेन सोसाइटी फाउंडेशन के संस्थापक हैं। इसके लिए उन्होंने भारत समेत सौ से अधिक देशों में 32 बिलियन डाॅलर की फंडिंग की है। इसी फाउंडेशन ने ट्रप के खिलाफ मी टू अभियान चलाया। ‘ब्रेब न्यू फिल्मस‘ बनवाई। सोरोस अमरेकी डेमोक्रेटिक पार्टी के बड़े दानकर्ता हैं। मानवाधिकार के नाम शरणार्थियों को खुली छूट के पक्षधर हैं। पिछले साल हंगरी में सरकार ने इनके खिलाफ ‘स्टाॅप सोरोस‘ नामक अभियान चलाया। रूस में इनके दो संगठन प्रतिबंधित है। मोदी सरकार की एनजीओ की निगरानी सूची में इनका फाउंडेशन है। यह राजनीतिक मामलों में भी दखल देता है।
अगर इस अभियान के पीछे की कहानी के साथ मी टू पर दर्ज किये जा रहे संदेश पढ़े जायें तो और भी कई अर्थ निकलते हैं। अभी हाल-फिलहाल मोदी सरकार के मंत्री एम. जे. अकबर पर दस महिला पत्रकारों ने उत्पीड़न के आरोप जड़े हैं। यह आरोप तब के हैं जब अकबर संपादक थे। कांग्रेस ने इनके इस्तीफे की मांग की है। उन पर लगे आरोपों के बाद भारतीय जनता पार्टी में भी पक्ष-विपक्ष दोनों हो गया है। हालांकि अकबर ने आरोप लगाने वालों को कानूनी नोटिस देने की बात कही है। इससे पहले तनुश्री दत्ता ने नाना पाटेकर पर, विन्ता नंदा ने आलोक नाथ पर, कैलाश खेर पर सोना महापात्रा ने, सुहेल सेठ पर चार महिलाओं ने, विकास बहल पर कंगना रौनावत ने अपने साथ उत्पीड़न के आरोप जड़े हैं। रोहित राय, चेतन भगत, रजत कपूर, के.आर. श्रीनिवासन, सिद्वार्थ भाटिया, प्रशांत झा, गौतम अधिकारी, सुभाष घई, आर.के. पचैरी, तरुण तेजपाल और साजिद खान पर भी महिलाओं ने आरोप लगाया है।
मी टू से पहले दीपिका पादुकोण ने ‘मेरी मर्जी‘ अभियान चलाया था। करीना कपूर ने ‘रेड स्पाट‘ अभियान को हवा दी। अरब स्प्रिंग के बाद आभासी दुनिया ने आंदोलन और उसके नेतृत्व के मुहावरे बदल दिये हैं। यही वजह है कि एक ओर मी टू की शिकार औरतों के प्रति सहानुभूति जताने वालों का इरादा न्याय दिलाने से ज्यादा उसे कहां, कैसे, कब छूआ इसकी रसीली कहानियां बेचने का होता है। मी टू नया राजनीतिक और सामाजिक औजार हो गया है। मी टू में सेक्सिसिस्ट रस दिखता है। इसे मल्टी एंगल बना दिया गया है। पुरुषों के लिए एक नये व्यवहार की हदबंदी जरूरी तो है। सहमी सी चुप्पी में जकड़ी औरत का मुंह खोलना अनिवार्य तो है। औरतों का एक-दूसरे का दुख देख कर हिम्मती होना जरूरी है। अपना पिछला दुख खोजना और उससे निजात पाना भी जरूरी है। अपने छेड़छाड़ और उत्पीड़न के दंश में जीने से पिंजरा तोड़ने की जरूरत है। लेकिन यह भी देखने की जरूरत है कि पुरुष और प्रकृति के रिश्ते पटरी से न उतरने लगें। सर्वोच्च अदालत के घरवाली और बाहरवाली, घरवाले और बाहरवाले के फैसले के बाद महिलाओं को संजीवनी मिली है।
स्त्री-पुरुष जीवन रथ के दो पहिये होते हैं। एक के बिना जीवन संभव नहीं है। सोरोस का एजेंडा है सोसयटी को ओपन करना। राजनीतिक हस्तक्षेप बनाना। भारत में वैश्वीकरण के बाद भी खुलापन सोरोस के संकल्पनाओं की तरह नहीं आ पाया है। यहां स्त्री सिर्फ देह नहीं है। पुरुष सिर्फ भोक्ता नहीं है। इन दोनों के रिश्तों के बीच तमाम और तंतु होते हैं। जो एक-दूसरे को बांधते हैं। मी टू में जो कुछ दिख रहा है वह यह बताता है कि सारे के सारे तंतु बिखर गये हैं। हर सफल आदमी के पीछे यौन शोषण की कथा है। हर सफल स्त्री के पीछे शोषित होने की व्यथा है। ऐसा महज इसलिए लग रहा है क्योंकि हम आभासी दुनिया को वास्तविक दुनिया का प्रतिबिंब मान बैठे हैं। एक्चुवल और वर्चवल वल्र्ड दोनों पूरी तरह अलहदा हैं। हद तो यह है कि वर्चवल वल्र्ड एक्चुवल वल्र्ड को मैजिक मल्टीप्लायर की तरह दर्शाता है। आज भले ही पिछली बातें कह दी जायें। लेकिन जब विशाखा गाइड लाइन लागू हो, स्त्री सुरक्षा के कठोर कानून हों, दस सेकेंड से ज्यादा स्त्री को देखना अपराध हो तब तो जो कुछ बोलना है आज ही बोल लेना चाहिए। ताकि भारत को ओपन सोसाइटी बनाने का जार्ज सोरोस का सपना जमीन पर ज्यादा दिन टिक ही न पाये।