बीते 6 दिसम्बर तक हैदराबाद को लोग बिरयानी के लिए जानते थे। हैदराबाद की बिरयानी देश-विदेश में लोकप्रिय है। लेकिन 6 दिसम्बर की अलस्सुबह से हैदराबाद एक और मामले में दुनिया भर में जाना गया। वह है-‘हैदराबादी इंसाफ’। महिला वेटनरी डॉक्टर के साथ दुराचार और फिर उसे जला दिये जाने के जघन्य कृत्य के आरोपियों को तेलंगाना पुलिस ने भोर में मुठभेड़ में उसी जगह मार गिराया, जहां आरोपियों ने घटना को अंजाम दिया था। पुलिस आरोपियों को जेल से सीन रिक्रियेशन के लिए लेकर आयी थी।
महिला सुरक्षा के सवाल पर उबल रहे देश पर मुठभेड़ की इस घटना ने पानी डाल दिया। मुठभेड़ की सूचना आने से ठीक पहले तक खलनायक समझी जा रही तेलंगाना पुलिस का अभिनंदन होने लगा। फूल बरसाये गये। लोगों में पुलिसकर्मियों से हाथ मिलाने की होड़ देखी गयी। हैदराबाद ही नहीं समूचे तेलंगाना में पुलिस को जनता के सैल्यूट मिलने लगे। देश भर में हैदराबादी इंसाफ की मांग हो उठी। कहा जाने लगा कि रेप करने वालों की यही सजा होनी चाहिए। जब संसद से लेकर सड़क तक मुठभेड़ में मारा जाना न्याय संगत लगने लगा हो। सांसद दुराचारियों की माब लिंचिंग और जीवन भर जेल में डाले जाने की वकालत करने लगे हों। समाज सन्न, स्तब्ध और कर्तव्य विमुख हो गया हो। भय, शोक और क्षोभ का माहौल बन गया हो। महिला सुरक्षा को लेकर सवाल उठने लगे हों। कहा जाने लगा हो कि घर और बाहर कहीं भी महिलाएं सुरक्षित नहीं हैं। शोहदों के डर से लड़कियां कॉलेज जाना छोड़ रही हैं। दुराचारियों ने उम्र का भी ख्याल छोड़ दिया है। 2012 से 2016 के बीच के आंकड़े बताते हैं कि यौन हिंसा के मामले में पीड़ित महिलाओं में से 40 फीसदी नाबालिग और बच्चियां होती हैं। थामसन रायटर्स फाउंडेशन की रिपोर्ट के अनुसार औरत के लिए भारत सबसे खतरनाक है। इसमें महिलाओं के स्वास्थ्य, आर्थिक स्वावलंबिता, रीति-रिवाजों में भागीदारी और यौन अपराध लिये गये हैं। 2015-16 में नेशनल फैमली हेल्थ सर्वे हुआ था। इसकी रिपोर्ट कहती है कि 99.1 फीसदी यौन हिंसा के केस दर्ज ही नहीं होते। यही नहीं, बिहार, उत्तर प्रदेश और झारखंड जैसे राज्यों में तो यौन हिंसा के मामले दर्ज होने का आंकड़ा आधे फीसदी से भी कम है। तमिलनाडु और कर्नाटक जैसे साक्षर राज्यों में भी इस तरह के अपराधों की रिपोर्ट का चलन कम है। स्वीडन इकलौता ऐसा देश है जहां यौन हिंसा के हर मामले रिपोर्ट होते हैं। स्वीडन में 2015 में दुराचार के मामले एक लाख जनसंख्या पर 56.7 दर्ज हुए थे। जबकि भारत में यह आंकड़ा 2.6 है। केवल एक फीसदी से कम रिपोर्ट होने वाले मामलों के बाद लोगों में इतनी नाराजगी है। हालात आसानी से समझे जा सकते हैं।
भारत कभी हिंसक नहीं रहा। लेकिन बीते तीन-चार दशकों से हिंसा घर कर गई है। देह के ऊपर ऐसे आक्रमण हो रहे हैं कि शर्म भी शरमा जाये। दुराचार एक प्रकार से आत्मा की हत्या है। पीड़िता का शरीर तो स्वस्थ हो सकता है। लेकिन उसका मन, मस्तिष्क और भविष्य नहीं। क्या वह समाज तरक्की कर सकता है जहां आधी आबादी ही खुद को असुरक्षित महसूस करे? यौन अपराधों के बढ़ने के लिए विकृत मनोवृत्ति जगाने वाले मनोरंजन के साधन हैं। जो भोगवृत्ति बढ़ाते हैं। इंटरनेट पर कामोत्तेजक विकृतियों के वीडियो पसरे हैं। भारत दुनिया में पोर्न का तीसरा सबसे बड़ा हब है। 2013 से 2017 के बीच पोर्न ट्राफिक में 121 फीसदी का उछाल आया है। भारत में इंटरनेट का 70 फीसदी हिस्सा पोर्नोग्राफी देखने में उपयोग किया जाता है। हर हफ्ते 28 घंटे का समय एक भारतीय अपने स्मार्टफोन पर बिताता है। बीते दो साल में सोशल मीडिया पर छेड़छाड़ की 7 गुना घटनाएं बढ़ी हैं। यही नहीं, सामाजिक मूल्यों के क्षरण से भी क्षति पहुंच रही है। पतनशीलता बढ़ रही। रिश्तों के व्याकरण बुरी तरह गड़बड़ा रहे हैं।
न्याय को हत्या और प्रतिरोधी रक्तपात से नहीं पाया जा सकता। लेकिन यह भी सही है कि न्याय की प्रक्रिया में 100 से ज्यादा लोग दुराचार की शिकार को बार-बार दिगम्बर करते हैं। कानून की लड़ाई दरअसल जिन्दगी भर की कमाई और उम्र को लील जाती है। निष्पक्ष न्याय की व्यवस्था बीते दिनों की बात लगने लगी है। सार्वजनिक पदों पर बैठे लोग और उनके लगुवे-भगुवे यह मानने लगे हैं कि उनका कोई कुछ बिगाड़ नहीं सकता। यह आत्मविश्वास चिंताजनक है। इसी के बीच लोगों में हैदराबादी न्याय की उम्मीद जगने और पनपने लगती है।
यह भी सही है कि अदालतें काम के बोझ से परेशान हैं। वर्ष 2017 में देश की निचली अदालतों में दुराचार के कुल 1, 46, 201 मामले थे। इनमें 28, 750 मामले इस साल के थे। जबकि 1,17, 451 पुराने लंबित मामले थे। ट्रायल कोर्ट में इनमें से केवल 180, 99 मामलों में ही सुनवाई हो सकी। 5, 822 मामलों में दोष सिद्ध हुआ। 11, 453 मामलों में आरोपी रिहा कर दिए गए। 1, 27, 868 अगले साल के लिए लंबित हो गए। दुराचार के बाद हत्या किए जाने के वर्ष 2017 में कुल 574 मामले थे। इनमें 363 मामले पुराने थे। इस वर्ष केवल 57 का ही ट्रायल हो पाया। 33 मामलों में सजा हुई। 24 बरी हो गए। 517 मामले अगले वर्ष के लिए लंबित हो गए। देश की पुलिस को वर्ष 2017 में दुराचार के 46, 965 मामलों की जांच करनी थी। इसमें पहले से लंबित 14, 406 मामले और नए दर्ज 32, 559 मामले थे। महज 28, 750 मामलों में ही चार्जशीट दाखिल हो सकी। जबकि 4, 364 केस बंद कर दिए गए। 13, 765 केस अगले साल के लिए लंबित कर दिए गए। वर्ष 2017 में ही पुलिस को दुराचार के बाद हत्या किए जाने के कुल 413 मामलों की जांच करनी थी। जिनमें से 108 मामले वर्ष 2016 के थे। 223 मामले नए थे। 211 मामलों में चार्जशीट दाखिल हुई। जबकि 11 मामले बंद कर दिए गए। 109 फिर लंबित हो गए। दुराचार जैसे मामलों में लंबी प्रक्रिया के कारण सबूत या तो मिट जाते हैं या मिटा दिए जाते हैं। सबूतों के अभाव में आरोपी दोषी नहीं साबित हो पाते। विलंब से मिलने वाला न्याय दरअसल एक तरह से अन्याय के बराबर होता है। निर्भया केस का आरोपी 7 साल से अंतिम न्याय की प्रतीक्षा कर रहा है। फिर 5 दिन का सप्ताह क्यों चाहिए? गर्मी और जाड़े की छुट्टियां क्यों होनी चाहिए? क्या अदालती कामकाज के घंटे 8 नहीं होने चाहिए। कुछ जरूरी और जघन्य मामलों के निपटारों के लिए समय सीमा नहीं होनी चाहिए?
इंग्लैंड में 18 महीने के अंदर दुराचार का केस निपटा दिया जाता है। इतने दिनों में निचली से लेकर सर्वोच्च अदालत तक को अपना काम करना होता है। आस्ट्रेलिया में एक साल के अंदर दुराचार के मामले निपटाने होते हैं। कनाडा में अगर कोई अन्य प्राथमिक जांच है तो 30 महीने, नहीं तो यहां भी 18 महीने में ही दुराचार के मामलों में अंतिम निर्णय सुनाना होता है। अगर हम इस दिशा में तेजी से नहीं बढ़े तो जनता के लिए हैदराबादी न्याय की उम्मीद का जगना स्वाभाविक है। हैदराबाद पुलिस की राष्ट्रव्यापी प्रशस्ति कल खटकने वाला सवाल होगी। जो विधायिका और न्यायपालिका पर रोज सवाल करती रहेगी। अब इससे बचने की जिम्मेदारी इन दोनों स्तम्भों की है।
महिला सुरक्षा के सवाल पर उबल रहे देश पर मुठभेड़ की इस घटना ने पानी डाल दिया। मुठभेड़ की सूचना आने से ठीक पहले तक खलनायक समझी जा रही तेलंगाना पुलिस का अभिनंदन होने लगा। फूल बरसाये गये। लोगों में पुलिसकर्मियों से हाथ मिलाने की होड़ देखी गयी। हैदराबाद ही नहीं समूचे तेलंगाना में पुलिस को जनता के सैल्यूट मिलने लगे। देश भर में हैदराबादी इंसाफ की मांग हो उठी। कहा जाने लगा कि रेप करने वालों की यही सजा होनी चाहिए। जब संसद से लेकर सड़क तक मुठभेड़ में मारा जाना न्याय संगत लगने लगा हो। सांसद दुराचारियों की माब लिंचिंग और जीवन भर जेल में डाले जाने की वकालत करने लगे हों। समाज सन्न, स्तब्ध और कर्तव्य विमुख हो गया हो। भय, शोक और क्षोभ का माहौल बन गया हो। महिला सुरक्षा को लेकर सवाल उठने लगे हों। कहा जाने लगा हो कि घर और बाहर कहीं भी महिलाएं सुरक्षित नहीं हैं। शोहदों के डर से लड़कियां कॉलेज जाना छोड़ रही हैं। दुराचारियों ने उम्र का भी ख्याल छोड़ दिया है। 2012 से 2016 के बीच के आंकड़े बताते हैं कि यौन हिंसा के मामले में पीड़ित महिलाओं में से 40 फीसदी नाबालिग और बच्चियां होती हैं। थामसन रायटर्स फाउंडेशन की रिपोर्ट के अनुसार औरत के लिए भारत सबसे खतरनाक है। इसमें महिलाओं के स्वास्थ्य, आर्थिक स्वावलंबिता, रीति-रिवाजों में भागीदारी और यौन अपराध लिये गये हैं। 2015-16 में नेशनल फैमली हेल्थ सर्वे हुआ था। इसकी रिपोर्ट कहती है कि 99.1 फीसदी यौन हिंसा के केस दर्ज ही नहीं होते। यही नहीं, बिहार, उत्तर प्रदेश और झारखंड जैसे राज्यों में तो यौन हिंसा के मामले दर्ज होने का आंकड़ा आधे फीसदी से भी कम है। तमिलनाडु और कर्नाटक जैसे साक्षर राज्यों में भी इस तरह के अपराधों की रिपोर्ट का चलन कम है। स्वीडन इकलौता ऐसा देश है जहां यौन हिंसा के हर मामले रिपोर्ट होते हैं। स्वीडन में 2015 में दुराचार के मामले एक लाख जनसंख्या पर 56.7 दर्ज हुए थे। जबकि भारत में यह आंकड़ा 2.6 है। केवल एक फीसदी से कम रिपोर्ट होने वाले मामलों के बाद लोगों में इतनी नाराजगी है। हालात आसानी से समझे जा सकते हैं।
भारत कभी हिंसक नहीं रहा। लेकिन बीते तीन-चार दशकों से हिंसा घर कर गई है। देह के ऊपर ऐसे आक्रमण हो रहे हैं कि शर्म भी शरमा जाये। दुराचार एक प्रकार से आत्मा की हत्या है। पीड़िता का शरीर तो स्वस्थ हो सकता है। लेकिन उसका मन, मस्तिष्क और भविष्य नहीं। क्या वह समाज तरक्की कर सकता है जहां आधी आबादी ही खुद को असुरक्षित महसूस करे? यौन अपराधों के बढ़ने के लिए विकृत मनोवृत्ति जगाने वाले मनोरंजन के साधन हैं। जो भोगवृत्ति बढ़ाते हैं। इंटरनेट पर कामोत्तेजक विकृतियों के वीडियो पसरे हैं। भारत दुनिया में पोर्न का तीसरा सबसे बड़ा हब है। 2013 से 2017 के बीच पोर्न ट्राफिक में 121 फीसदी का उछाल आया है। भारत में इंटरनेट का 70 फीसदी हिस्सा पोर्नोग्राफी देखने में उपयोग किया जाता है। हर हफ्ते 28 घंटे का समय एक भारतीय अपने स्मार्टफोन पर बिताता है। बीते दो साल में सोशल मीडिया पर छेड़छाड़ की 7 गुना घटनाएं बढ़ी हैं। यही नहीं, सामाजिक मूल्यों के क्षरण से भी क्षति पहुंच रही है। पतनशीलता बढ़ रही। रिश्तों के व्याकरण बुरी तरह गड़बड़ा रहे हैं।
न्याय को हत्या और प्रतिरोधी रक्तपात से नहीं पाया जा सकता। लेकिन यह भी सही है कि न्याय की प्रक्रिया में 100 से ज्यादा लोग दुराचार की शिकार को बार-बार दिगम्बर करते हैं। कानून की लड़ाई दरअसल जिन्दगी भर की कमाई और उम्र को लील जाती है। निष्पक्ष न्याय की व्यवस्था बीते दिनों की बात लगने लगी है। सार्वजनिक पदों पर बैठे लोग और उनके लगुवे-भगुवे यह मानने लगे हैं कि उनका कोई कुछ बिगाड़ नहीं सकता। यह आत्मविश्वास चिंताजनक है। इसी के बीच लोगों में हैदराबादी न्याय की उम्मीद जगने और पनपने लगती है।
यह भी सही है कि अदालतें काम के बोझ से परेशान हैं। वर्ष 2017 में देश की निचली अदालतों में दुराचार के कुल 1, 46, 201 मामले थे। इनमें 28, 750 मामले इस साल के थे। जबकि 1,17, 451 पुराने लंबित मामले थे। ट्रायल कोर्ट में इनमें से केवल 180, 99 मामलों में ही सुनवाई हो सकी। 5, 822 मामलों में दोष सिद्ध हुआ। 11, 453 मामलों में आरोपी रिहा कर दिए गए। 1, 27, 868 अगले साल के लिए लंबित हो गए। दुराचार के बाद हत्या किए जाने के वर्ष 2017 में कुल 574 मामले थे। इनमें 363 मामले पुराने थे। इस वर्ष केवल 57 का ही ट्रायल हो पाया। 33 मामलों में सजा हुई। 24 बरी हो गए। 517 मामले अगले वर्ष के लिए लंबित हो गए। देश की पुलिस को वर्ष 2017 में दुराचार के 46, 965 मामलों की जांच करनी थी। इसमें पहले से लंबित 14, 406 मामले और नए दर्ज 32, 559 मामले थे। महज 28, 750 मामलों में ही चार्जशीट दाखिल हो सकी। जबकि 4, 364 केस बंद कर दिए गए। 13, 765 केस अगले साल के लिए लंबित कर दिए गए। वर्ष 2017 में ही पुलिस को दुराचार के बाद हत्या किए जाने के कुल 413 मामलों की जांच करनी थी। जिनमें से 108 मामले वर्ष 2016 के थे। 223 मामले नए थे। 211 मामलों में चार्जशीट दाखिल हुई। जबकि 11 मामले बंद कर दिए गए। 109 फिर लंबित हो गए। दुराचार जैसे मामलों में लंबी प्रक्रिया के कारण सबूत या तो मिट जाते हैं या मिटा दिए जाते हैं। सबूतों के अभाव में आरोपी दोषी नहीं साबित हो पाते। विलंब से मिलने वाला न्याय दरअसल एक तरह से अन्याय के बराबर होता है। निर्भया केस का आरोपी 7 साल से अंतिम न्याय की प्रतीक्षा कर रहा है। फिर 5 दिन का सप्ताह क्यों चाहिए? गर्मी और जाड़े की छुट्टियां क्यों होनी चाहिए? क्या अदालती कामकाज के घंटे 8 नहीं होने चाहिए। कुछ जरूरी और जघन्य मामलों के निपटारों के लिए समय सीमा नहीं होनी चाहिए?
इंग्लैंड में 18 महीने के अंदर दुराचार का केस निपटा दिया जाता है। इतने दिनों में निचली से लेकर सर्वोच्च अदालत तक को अपना काम करना होता है। आस्ट्रेलिया में एक साल के अंदर दुराचार के मामले निपटाने होते हैं। कनाडा में अगर कोई अन्य प्राथमिक जांच है तो 30 महीने, नहीं तो यहां भी 18 महीने में ही दुराचार के मामलों में अंतिम निर्णय सुनाना होता है। अगर हम इस दिशा में तेजी से नहीं बढ़े तो जनता के लिए हैदराबादी न्याय की उम्मीद का जगना स्वाभाविक है। हैदराबाद पुलिस की राष्ट्रव्यापी प्रशस्ति कल खटकने वाला सवाल होगी। जो विधायिका और न्यायपालिका पर रोज सवाल करती रहेगी। अब इससे बचने की जिम्मेदारी इन दोनों स्तम्भों की है।