देहरादून। उत्तराखंड में एक बार फिर आसमान से आफत बरसी और कई जिंदगियां लील ले गई। इस बार पिथौरागढ़ के मांगती और मालपा में 13 अगस्त की रात जब सभी गहरी नींद में थे तब आसमान से आफत की बारिश शुरू हुई चंद घंटे की बारिश ने सेना के मांगती कैंप को तहस-नहस कर दिया। दो दिन बाद तक प्रशासन छह लोगों की मौत की पुष्टि कर रहा था क्योंकि इतने ही शव बरामद हुए थे लेकिन स्थानीय लोगों का कहना है कि कम से कम 30 लोग इस हादसे में मारे गए हैं।
कैसे होगी चीन-नेपाल सीमा पर सुरक्षा
चीन से तनाव के बाद सेना ने मांगती नाले में अस्थाई कैम्प बनाया है। तहसील मुख्यालय से 32 किमी दूर मांगती घट्टाबगड़ में सेना के इस अस्थाई कैंप में उस रात 20 से अधिक जवान थे। इसके अलावा सेना के कई वाहन, खच्चर व अन्य सामग्री बड़ी संख्या में रखी गई थी। आसमान से बरसी आफत ने पूरे कैंप को भारी नुकसान पहुंचाया है। सेना के दो वाहन जहां मलबे में पूरी तरह से दब गए हैं वहीं 6 से अधिक वाहनों को भी काफी नुकसान पहुंचा है।
चीन-नेपाल की सीमा से सटे मांगती और मालपा में प्रकृति ने जो चुनौती पेश की उसका जवाब दे पाना आसान नहीं है। इस हादसे ने चीन सीमा पर भारत की तैयारियों की पोल भी खोल दी है। सीमांत तहसील धारचूला के आगे संचार सेवा का नामोनिशान तक नहीं है। मोबाइल, लैंड लाइन तो छोडि़ए, सेटेलाइट फोन और वायरलेस की सेवा भी यहां नहीं है। रास्तों का हाल ये है कि घट्टाबगड़ से गाड़ी का रास्ता नहीं है, पैदल जाना भी मुश्किल है।
ऐसे में जहां चीन और भारत में डोकलाम को लेकर भारी विवाद चल रहा हो, कालापानी और ताकलाकोट के लगे इस इंटरनेशनल बॉर्डर में जरूरी सुविधाओं की ये कमी भारतीय व्यवस्थाओं की पोल खोल रही है। सीमा पार चीन तकलाकोट तक चमचमाती सडक़ बना चुका है।
यही नहीं, उसकी वाई-फाई सेवा से पूरा इलाका जुड़ा है। इन इलाकों में आज भी नेपाल के सिग्नल तो काम करते दिखाई देते हैं लेकिन भारतीय फोन नेटवर्क और मोबाइल कम्पनियों का दूर-दूर तक कोई नामो निशान नहीं है। हालात इस कदर खराब हैं कि मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत भी आपदा के दौरान नेपाल से संचार की मदद मांगने की बात कह चुके हैं।
फिर बौना साबित हुआ आपदा प्रबंधन तंत्र
बारिश के दो से तीन महीने राज्य के आपका तंत्र की परीक्षा के दिन होते हैं और हर साल राज्य सरकार दावा करती है कि उसकी तैयारी पूरी है। इसके विपरीत हर बार बड़ी आपदा के सामने ये तैयारियां बहुत कम नजर आती हैं। मालपा-मांगती में भी यही नजर आ रहा है।
राज्य के पर्वतीय इलाकों को प्राकृतिक आपदा के नजरिए से अतिसंवेदनशील माना जाता है। राज्य के मौसम विभाग के निदेशक बिक्रम सिंह ने बताया था कि एक घंटे में 10 सेमी बारिश को अतिवृष्टि या बादल फटना माना जाता है लेकिन पहाड़ी इलाकों में 5 सेमी बारिश ही मैदान के बादल फटने से ज्यादा तबाही ला सकती है। 2013 में आई त्रासदी के बाद सभी सरकारों ने आपदा तंत्र को बेहतर करने के बड़े-बड़े दावे किए और करोड़ों का बजट भी राहत तंत्र को मजबूत करने में खर्च किया जा चुका है।
आपदा की स्थिति में नुकसान को टालने के लिए साल भर विभाग जगह-जगह प्रशिक्षण देता है और लाखों के उपकरण खरीदे जाते हैं। मालपा-मांगती की त्रासदी में राहत तंत्र कहीं नजर नहीं आया। हालत यह है कि घटना के दो दिन बाद भी जरूरी उपकरण प्रभावित इलाकों में नहीं पहुंच पाए। स्थानीय स्तर पर तैनात एसएसबी, सेना, आईटीबीपी के जवानों के साथ स्थानीय लोगों ने राहत कार्य संचालित किए। हैरानी तो इस बात की भी है कि सुरक्षा के लिहाज के अतिअहम इस इंटरनेशनल बॉर्डर पर एक हेलिकॉप्टर तक नहीं पहुंच पाया।
टापू बना गांव, फंसे लोग
बादल फटने के बाद के नुकसान का ठीक-ठीक अनुमान लगने में समय लगेगा। हादसे के करीब 35 घंटे बाद पता चला कि मांगती के नजदीक स्थित किमखोला गांव का संपर्क बाकी क्षेत्रों से कट गया है। विधायक हरीश धामी के अनुसार न तो इस गांव तक जाने का कोई रास्ता बचा है और न ही किसी तरह वहां संपर्क हो पा रहा है। बहरहाल, आशंका जताई जा रही हैं कि आपदा की ऐसी कहानियां अभी और बाहर आएंगी। शायद वैसे ही जैसे चार साल बाद तक केदारनाथ आपदा के कंकाल सामने आ रहे हैं।