भूपेन के बेटे ने भारत रत्न लेने से किया इंकार, भाई ने कहा स्वीकार कर लेना चाहिए

पूर्वोत्तर में इस समय नागरिकता संशोधन विधेयक का विरोध बढ़ता जा रहा है। सड़क से सदन तक विरोध के सुर तेज हो रहे हैं। अब महान संगीतकार, गायक और कवि भूपेन हजारिका के बेटे तेज ने नागरिकता संशोधन विधेयक के विरोध में पिता को मिले भारत रत्न को लौटाने का निर्णय लिया है।

Update:2019-02-12 10:51 IST

नई दिल्ली: पूर्वोत्तर में इस समय नागरिकता संशोधन विधेयक का विरोध बढ़ता जा रहा है। सड़क से सदन तक विरोध के सुर तेज हो रहे हैं। अब महान संगीतकार, गायक और कवि भूपेन हजारिका के बेटे तेज ने नागरिकता संशोधन विधेयक के विरोध में पिता को मिले भारत रत्न को लौटाने का निर्णय लिया है। वहीं भूपेन के बड़े भाई समर हजारिका ने कहा कि, भारत रत्न सम्मान वापस करने का फैसला उनके बेटे का हो सकता है लेकिन मैं इससे सहमत नहीं हूं।

समर ने कहा, मुझे लगता है, भूपेन को इस सम्मान को मिलने में वैसे ही देर हो गई है। अब तेज को भारत रत्न का सम्मान करते हुए सम्मान स्वीकार कर लेना चाहिए।

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जानिए भूपेन को

8 सितंबर 1926 को जन्मे भूपेन दा देश के एकमात्र ऐसे विलक्षण कलाकार थे, जो अपने गीत खुद लिखते थे, उसका संगीत भी खुद देते और गाते भी थे। इसके अलावा वो असमिया भाषा के कवि, फिल्म निर्माता, लेखक और असम की संस्कृति और संगीत के अच्छे जानकार भी थे।

भूपेन दा को दक्षिण एशिया के श्रेष्ठतम सांस्कृतिक दूतों में से एक माना जाता है। उन्होंने कविता लेखन, पत्रकारिता, गायन, फिल्म निर्माण आदि अनेक क्षेत्रों में काम किया।

दिल को छू जाता है भूपेन दा का संगीत

भूपेन हजारिका के गीतों ने लाखों दिलों को छुआ। हजारिका की असरदार आवाज में जिस किसी ने उनके गीत ‘दिल हूम-हूम करे’ और ‘ओ गंगा तू बहती है क्यों’ सुना वह इससे इंकार नहीं कर सकता कि उसके दिल पर भूपेन दा का जादू नहीं चला। अपनी मूल भाषा असमिया के अलावा भूपेन हजारिका हिंदी, बंगला समेत कई अन्य भारतीय भाषाओं में गाना गाते रहे थे। उन्होंने फिल्म ‘गांधी टू हिटलर’ में महात्मा गांधी का पसंदीदा भजन ‘वैष्णव जन’ गाया था। उन्हें पद्मभूषण सम्मान से भी सम्मानित किया गया था।

हजारिका ऐसे आए संगीत के करीब

हजारिका का जन्म असम के तिनसुकिया जिले की सदिया में हुआ था। इनके पिता का नाम नीलकांत एवं माता का नाम शांतिप्रिया था। उनके पिता मूलतः असम के शिवसागर जिले के नाजिरा शहर से थे। 10 संतानों में सबसे बड़े भूपेन का संगीत के प्रति लगाव अपनी माता के कारण हुआ, जिन्होंने उन्हें पारंपरिक असमिया संगीत की शिक्षा जनम घुट्टी के रूप में दी। बचपन में ही उन्होंने अपना प्रथम गीत लिखा। दस वर्ष की आयु में उसे गाया। साथ ही उन्होंने असमिया भाष की दूसरी फिल्म ‘इंद्रमालती’ के लिए 1939 में बारह वर्ष की आयु में काम भी किया।

बीएचयू से भी की पढ़ाई

भूपेन हजारिका ने करीब 13 साल की आयु में तेजपुर से मैट्रिक की परीक्षा पास की। आगे की पढ़ाई के लिए वे गुवाहाटी चले गए। 1942 में गुवाहाटी के कॉटन कॉलेज से इंटरमीडिएट किया। 1946 में हजारिका ने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से राजनीति विज्ञान में एमए किया। इसके बाद पढ़ाई के लिए वे विदेश गए। न्यूयॉर्क स्थित कोलंबिया यूनिवर्सिटी से उन्होंने पीएचडी की डिग्री हासिल की।

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1975 में मिला था पहला राष्ट्रीय पुरस्कार

भूपेन दा को 1975 में सर्वोत्कृष्ट क्षेत्रीय फिल्म के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार, 1992 में सिनेमा जगत के सर्वोच्च पुरस्कार दादा साहब फाल्के सम्मान से सम्मानित किया गया। इसके अलावा उन्हें 2009 में असोम रत्न और इसी साल संगीत नाटक अकादमी अवॉर्ड, 2011 में पद्म भूषण जैसे कई प्रतिष्ठित पुरस्कारों से सम्मानित किया गया। उनका निधन मुम्बई के कोकिलाबेन अस्पताल में 2011 में हुआ।

मुसीबत बने बांग्लादेशी, ‘वास्तविकनागरिकों की सूची और हकीकत

पाकिस्तान के दो टुकड़े होने के बाद 25 मार्च 1971 को बांग्लादेश बना था। बांग्लादेश बनने के पहले युद्ध हुआ, बांग्लादेशियों पर अत्याचार हुए और इस उथल-पुथल में अनगिनत बांग्लादेशी नागरिक सीमा पार करके भारत में आ गए। खास तौर पर असम में इनकी तादाद इतनी ज्यादा थी कि असम के बहुत से इलाकों की जनसांख्यिकीय यानी डेमोग्राफी ही बदल गयी। जहां खुले मैदान और हरे भरे जंगल हुआ करते थे वहां हजारों की बस्तियां और गांव के गांव बस गए।

राज्य में बांग्लादेशियों की घुसपैठ के खिलाफ 1979 से तकरीबन छह साल छात्र आन्दोलन चला जिसके बाद 1985 में भारत सरकार ने ऑल असम स्टूडेंट यूनियन (आसू) के साथ एक समझौता किया था। इसी समझौते की शर्त के अनुसार ‘वास्तविक’ नागरिकों की सूची को अपडेट होना था ताकि घुसपैठियों की पहचान करके उन्हें वापस भेजा जा सके। सूची को अपडेट करने के लिए सरकारों ने राजनीतिक कारणों से ढिलाई बरती और अंतत: यह काम भी अदालत के आदेश के बाद ही शुरू हो पाया है। 2005 तक इस मामले में कोई कारवाई नहीं हुई। सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई शुरू होने के बाद यह प्रक्रिया कुछ आगे बढ़ी। प्रदेश में भाजपा की सरकार बनने के बाद नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजन्स के काम में काफी तेजी आई थी और 2015 से लोगों के नाम पंजीकृत करने का सिलसिला तेज हुआ था।

बहरहाल, नागरिकों की सूची यानी नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटीजन्स (एनआरसी) को अपडेट करने के लिए 24 मार्च 1971 को आधार वर्ष बनाया गया है, यानी वह दिन जब बांग्लादेश बना था। घुसपैठियों के मामले पर लंबा संघर्ष करने वाले आसू का कहना है कि 1971 के बाद असम में आने वाले किसी भी बांग्लादेशी नागरिक को राज्य में रहने की इजा$जत नहीं दी जाएगी, चाहे वह हिन्दू हो या मुसलमान। पिछले लंबे समय से आसू एक त्रुटिमुक्त एनआरसी की मांग करता आ रहा है जिसमें केवल भारतीय नागरिकों के नाम ही दर्ज किए जाएंगे।

अब स्थिति यह है कि असम सरकार ने 31 दिसंबर की रात राष्ट्रीय नागरिक पंजीकरण (एनआरसी) का पहला ड्राफ्ट जारी कर दिया है। सूची में नाम जुड़वाने के लिए 3.29 करोड़ लोगों ने आवेदन किया था और दस्तावेज जमा किये थे और इन लोगों में से 1.29 करोड़ लोगों के नाम पहली ड्राफ्ट सूची से नदारद हैं।

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नागरिकों की इस नई सूची में उन्हीं लोगों के नाम शामिल हैं जिन्होंने 25 मार्च 1971 के पहले की भारतीय नागरिकता से जुड़े सरकारी दस्तावेज जमा करवाए हैं। हालांकि यह एक संपूर्ण अपडेट एनआरसी नहीं होगी, क्योंकि अभी दस्तावेजों के सत्यापन का काम खत्म नहीं हुआ है।

वर्तमान में असम की कुल आबादी का एक तिहाई हिस्सा मुसलमानों का है और इसमें भी 90 प्रतिशत मुसलमान प्रवासी हैं और बांग्लाभाषी हैं। स्थानीय निवासी उन्हें बांग्लादेशी मानते हैं। असम में ऐसे लाखों लोग हैं जो बांग्लादेश से यहां आए थे। उनकी नागरिकता को लेकर दावा किया जाता है कि उनके पूर्वज यहीं के थे। इस प्रक्रिया से प्रदेश में इस दशकों पुराने मुद्दे को हल करने में मदद मिलने की उम्मीद है, लेकिन सवाल ये है कि क्या यह मसला इतना आसान है जितना दिख रहा है?

बांग्लादेशी घुसपैठियों का मसला सिर्फ असम तक सीमित नहीं है बल्कि पूरे देश से जुड़ा हुआ है। आज पूरे भारत में दो करोड़ से ज्यादा बांग्लादेशी अवैध रूप से रह रहे हैं। यह आंकड़ा खुद सरकार द्वारा 2016 में संसद में दिया गया था। इसके पहले 2004 में सरकार ने संसद को सूचित किया था कि 1 करोड़ 20 लाख अवैध बांग्लादेशी भारत में हैं यानी 13 साल में इनकी तादाद 67 फीसदी बढ़ चुकी है। दो करोड़ का आंकड़ा भी एक अनुमान ही कहा जाना चाहिए क्योंकि फर्जी दस्तावेज बनाकर कितने घुसपैठिये रह रहे हैं इसकी गिनती हो भी तो कैसे?

जानकारों का तो कहना है कि इनकी संख्या निश्चित रूप से इससे ज्यादा ही होगी। दिल्ली हो या लखनऊ, सब जगह कबाड़ और कूड़े के काम में बांग्लादेशियों की बड़ी संख्या लगी हुई है। कहा तो यहां तक जाता है कि इनमें से काफी लोगों ने आधार कार्ड व मतदाता पहचान पत्र तक बनवा लिए हैं। इस कारण भी इन्हें लेकर खूब राजनीतिक रोटियां सेंकी जा रही हैं। कहने को ये सब अपने को असम में बारपेटा से आया हुआ बताते हैं, लेकिन भाषाई समझ रखने वाले इनको झट पहचान लेते हैं।

असल में अवैध बांग्लादेशियों में हिन्दू-मुस्लिम का भी मसला है। भाजपा ने असम चुनाव के पहले वादा किया था कि बांग्लादेश से आए हिन्दुओं को भारत की नागरिकता दी जाएगी। इसके पीछे तर्क यह दिया गया कि हिन्दुओं पर बांग्लादेश में अत्याचार होते हैं। वैसे, स्थानीय निवासियों में बांग्ला बोलने वाले हिन्दुओं के असम में आने को लेकर कोई विवाद नहीं है। लेकिन इस मसले पर अलग ही राजनीति चल रही है जो असामान्य नहीं है।

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असम में अल्पसंख्यकों का ‘प्रतिनिधित्व’ करने का दावा करने वाले यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट (यूडीएफ) के अध्यक्ष मौलाना बदरूद्दीन नागरिकता संशोधन बिल के कट्टर विरोधी हैं। उनकी धमकी है कि इस बिल के पास होने से असम बांग्लादेश में बदल जायेगा।

खैर, असम में अब एनआरसी के पहले ड्राफ्ट में 1.29 करोड़ लोगों के नाम नहीं हैं।

फाइनल सूची में जिनके नाम नहीं होंगे उनका क्या किया जाना चाहिए यह बड़ा सवाल है। लेकिन इसका जवाब सिर्फ एक ही है-अवैध रूप से भारत में घुसे लोगों को वापस उनके देश भेज दिया जाना चाहिए। वजह साफ है, भारत स्वयं जनसंख्या के बोझ तले दबा जा रहा है, संसाधनों पर जबरदस्त दबाव है, शहर चरमरा रहे हैं। इसके अलावा सुरक्षा और सामाजिक सद्भाव का सवाल भी है। कितने ही बंगलादेशी नागरिक आतंकी गतिविधियों में पकड़े जा चुके हैं।

यह भी सही है कि आतंकी और सामाजिक तानेबाने को तोडऩे वाले तत्व धाॢमक आधार पर इन घुसपैठयों का इस्तेमाल करते आए हैं और आगे भी करते रहेंगे। इसलिए बात चाहे असम की हो या पूरे हिन्दुस्तान की, अवैध निवासियों की समस्या को जल्द से जल्द सुलझाना ही होगा। इसके लिए दृढ़ कदम उठाए जाने की आवश्यकता है।

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