जयपुर। मध्य प्रदेश के सियासी संकट से निपटने के लिए कांग्रेस ने राजस्थान को एक सेफ हेवन के रूप में मानते हुए अपने विधायकों की बाड़ाबंदी राजधानी जयपुर के पास दो आलीशान रिसॉट्र्स में की हुई है। लेकिन जिन रेत के धोरों के बीच इन आलीशान रिसॉट्र्स में कांग्रेस अपनी सियासी सुरक्षा मान रही है उन्ही धोरों के नीचे ही लंबे समय से असंतोष की चिंगारी भी सुलग रही है जो कभी भी भड़क सकती है।
मध्यप्रदेश जैसी ही राजस्थान की भी स्थिति
राजस्थान में भी कांग्रेस की जमीनी हकीकत मध्य प्रदेश से कुछ अलग नहीं है। दिसंबर 18 में सरकार बनने के बाद से ही यहां भी सत्ता और संगठन में साफ विभाजन दिखाई दे रहा है। दोनों ही मोर्चों पर मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और उपमुख्यमंत्री सचिन पायलट के दो समानांतर पॉवर सेंटर बने हुए हैं। दोनों ही नेता अंदरूनी घात प्रतिघात से लेकर सार्वजनिक तौर पर भी एक-दूसरे पर हमला करते रहते हैं। मध्य प्रदेश के विधायकों के जयपुर पहुंचने के पूरे घटनाक्रम में जहां मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और उनके सिपहसालारों ने कमान संभाली हुई है तो वहीं सचिन पायलट और उनके समर्थक मंत्री और विधायक पूरी तरह परिदृश्य से गायब हैं।
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गहलोत-पायलट में छत्तीस का आंकड़ा
दरअसल मध्य प्रदेश की तरह राजस्थान में भी गहलोत और पायलट के बीच की सियासी अदावत विधानसभा के चुनावों से भी पहले ही सार्वजनिक तौर पर दिख रही थी। यहां तक की चुनावी सभाओं में कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष राहुल गांधी सार्वजनिक मंच पर दोनों को गले मिलाने की कोशिश करते रहे, लेकिन दोनों के दिल नहीं मिल सके। चुनाव में टिकटों के वितरण में यह तल्खी और बढ़ गई जो सरकार बनने के समय अपने चरम पर पहुंच गई। पार्टी ने जब गहलोत को सीएम बनाया तो पायलट ने एक तरह से बगावत कर दी। उनका कहना था कि पिछले चुनावों में बुरी तरह हार के बाद से उन्होंने प्रदेश अध्यक्ष के रूप में पार्टी को फिर से खड़ा किया और जीत दिलाई। ऐसे में सीएम पद पर उनका ही दावा बनता है। लेकिन दिल्ली में अपनी मजबूत लॉबी होने और सोनिया के विश्वासपात्र होने के कारण गहलोत बाजी मार ले गए। आखिर राहुल के सलाहकार भंवर जितेंद्र सिंह के मनाने के बाद पायलट उपमुख्यमंत्री पद के लिए तैयार हुए। इसके बाद से ही दोनों ओर खेमेबंदी चल रही है और राजस्थान में कांग्रेस की सरकार और संगठन दोनों ही इसमें फंसे हुए हैं।
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गहलोत ने कई मौकों पर खुद को साबित किया
हाल के सालों में गहलोत महाराष्ट्र, कर्नाटक और गुजरात में पार्टी के लिए एक बड़े ट्रबुलशूटर के रूप में उभरे हैं। यही वजह है कि पार्टी संकट के समय में गहलोत पर भरोसा करती है। पिछले दिनों महाराष्ट्र में शिवसेना और एनसीपी के साथ सरकार गठन के वक्त भी पार्टी ने गहलोत की क्षमताओं पर भरोसा करते हुए वहां के कांग्रेसी विधायकों को जयपुर भेजकर उन्हें एकजुट रखने का विश्वास गहलोत पर ही जताया था। इससे पहले कर्नाटक में कांग्रेस और जेडीयू की सरकार बनाने में भी गहलोत की अहम भूमिका रही थी। गहलोत ने बंगलुरु में रहकर सरकार बनाने में अपने राजनीतिक कौशल का परिचय दिया था। इससे पूर्व गुजरात में वरिष्ठ कांग्रेसी नेता अहमद पटेल के राज्यसभा में चुने जाने के समय भी गहलोत की सक्रिय भूमिका रही थी।
सियासत के जादूगर हैं गहलोत
अशोक गहलोत को उनके राजनीतिक कौशल के लिए सियासत का जादूगर कहा जाता है। गहलोत को जादू की कला अपने पिता से विरासत में मिली। लेकिन राजनीति में आने के बाद वे जादू की कला ही नहीं सियासत के जादूगर भी बन गए। गहलोत तीसरी बार प्रदेश के मुख्यमंत्री बने हैं। इसके अलावा वे केंद्र सरकार में मंत्री भी रह चुके हैं। पॉवर पॉलिटिक्स के साथ ही गहलोत को संगठन में भी महारथ हासिल है। संगठन के कामों में गहलोत का लंबा अनुभव है। वे मात्र 33 साल की उम्र में ही राजस्थान कांग्रेस के अध्यक्ष बन गए थे। वे दो बार राजस्थान कांग्रेस अध्यक्ष रहने के साथ ही केंद्रीय संगठन में महामंत्री और उपाध्यक्ष भी रह चुके हैं।
मध्यप्रदेश के कांग्रेसी विधायकों के पहुंचने के साथ ही राजस्थान की राजधानी जयपुर बुधवार को एक बार फिर से रिसॉर्ट पॉलिटिक्स का केंद्र बन गई। मध्यप्रदेश के कांग्रेसी नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया के पार्टी से बगावत कर भाजपा में चले जाने से वहां चल रहे सियासी घमासान के बीच कांग्रेस के 91 विधायक बुधवार की दोपहर को एक विशेष विमान से जयपुर पहुंचे। यहां उन्हें दिल्ली रोड स्थित दो रिसोर्ट में ठहराया गया है।
रिसॉर्ट पॉलिटिक्स का केंद्र बना जयपुर
देश की राजनीति उठापटक के चलते जयपुर पहले भी रिसॉर्ट पॉलिटिक्स का केंद्र रह चुका है। जयपुर शहर के आसपास बड़ी संख्या में आलीशान रिसॉर्ट हैं जो यहां आने वाले सैलानियों के लिए आकर्षण का बड़ा केंद्र हैं। साथ ही इनका उपयोग विधायकों की बाड़ाबंदी में पहले भी होता रहा है। कांग्रेस और भाजपा दोनों ही पार्टियां प्रदेश में अपनी सरकारों के समय सुरक्षा की दृष्टि से विधायकों की टूट रोकने के लिए उन्हें यहां रखती रही हैं। कुछ समय पहले महाराष्ट्र में शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस की सरकार बनाने की कवायद के वक्त जयपुर के रिसॉट्र्स में विधायकों को रखा गया था।
कुछ साल पहले जब प्रदेश में वसुंधरा राजे की भाजपा सरकार थी तब झारखंड सरकार पर आए संकट के वक्त पार्टी के विधायकों को वहां से जयपुर लाकर चंदवाजी बायपास पर स्थित एक रिसॉर्ट में गोलबंद रखा गया था। वैसे जयपुर में रिसॉर्ट पॉलिटिक्स की शुरुआत दो दशक पहले भैरोंसिंह शेखावत की भाजपा की सरकार पर आए संकट से हुई। 1996 में जब शेखावत हृदय की बायपास सर्जरी कराने के लिए अमेरिका गए थे तब कुछ भाजपा विधायकों ने बगावत कर दी थी। उस समय सरकार पर आए इस संकट से निपटने के लिए भाजपा विधायकों की शहर में ही स्थित रिसॉर्ट चोखी ढाणी में बाड़ाबंदी की गई थी। इसके बाद शेखावत की सरकार बच गई।
सियासी संकट के मौकों पर गहलोत की अहम भूमिका
वहीं दूसरी ओर देखें तो अशोक गहलोत राजनीति के माहिर खिलाड़ी हैं और उन्हें सियासत का जादूगर कहा जाता है। गहलोत हाल के सालों में कांग्रेस के संकटमोचक के रूप में उभरे हैं। हाल के सालों में पार्टी के बड़े सियासी संकट के मौकों पर गहलोत की अहम भूमिका रही है। इसे उनके राजनीतिक प्रबंधन का कौशल ही कहा जाएगा कि मध्यप्रदेश में कांग्रेस की सरकार होने के बावजूद वहां चल रहे सियासी घमासान से निपटने के लिए पार्टी ने अपने विधायकों को मध्यप्रदेश अथवा पड़ोसी राज्य छत्तीसगढ़ में रखने के बजाय राजस्थान की राजधानी जयपुर को चुना। गहलोत ने मध्यप्रदेश संकट को दूर करने के लिए वहां के विधायकों को एकजुट रखने की कमान खुद अपने हाथ में ले रखी है। वे भोपाल से आए कांग्रेस विधायकों का स्वागत करने के लिए खुद जयपुर के हवाई अड्डे पर पहुंचे। इसके बाद दिल्ली रोड स्थित जिन दो रिसॉट्र्स में इन विधायकों को रखा गया है वहां पहुंचकर भी पूरी व्यवस्था का जायजा लिया। यहां उन्होंने कांग्रेस नेता मुकुल वासनिक और हरीश रावत के साथ भी विचार विमर्श किया।
विधायकों में गहलोत समर्थक ज्यादा
प्रदेश के विधायक दल में वैसे तो गहलोत समर्थकों की तादाद ज्यादा है, लेकिन सचिन पायलट के भी ढाई दर्जन से भी ज्यादा समर्थक विधायक हैं। प्रदेश में राज्यसभा की तीन सीटों के लिए भी चुनाव हो रहे हैं। इनमें पार्टी उम्मीदवारों की चयन प्रक्रिया में पायलट की पूरी तरह उपेक्षा की गई है। ज्योतिरादित्य की तरह ही पायलट राहुल गांधी के विश्वासपात्र माने जाते हैं। ज्योतिरादित्य से उनकी व्यक्तिगत मित्रता भी गहरी है। कांग्रेस छोडऩे से पहले सिंधिया की उनसे दिल्ली में मुलाकातों की चर्चा भी खूब चली। ऐसे में मध्य प्रदेश से भड़की असंतोष की आग की चपेट में राजस्थान भी आ जाए तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए।