देहरादून: देवभूमि उत्तराखंड की स्वास्थ्य सेवाओं की हालत शायद भगवान ही सुधार सकते हैं। विडंबना देखिए कि जब उत्तराखंड स्थापना दिवस समारोह मना रहा था, राज्य के विकास का नक्शा तैयार किया जा रहा था, पलायन रोकने और स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार की नई योजनाएं तैयार की जा रही थीं, उसी समय उत्तराखंड के आम लोगों से जुड़ी मुख्यमंत्री स्वास्थ्य बीमा योजना बंद हो गई। इस योजना से खासकर गरीबों को फायदा पहुंचता था।
क्या है मुख्यमंत्री स्वास्थ्य बीमा योजना
अप्रैल 2015 में शुरू हुई मुख्यमंत्री स्वास्थ्य बीमा योजना के तहत लाभार्थियों को बायोमेट्रिक स्मार्ट कार्ड जारी किए गए थे। इसके तहत कार्डधारक परिवार को 50 हजार रुपये का हेल्थ कवर और 1.75 लाख रुपये गंभीर बीमारियों का बीमा कवर मिलता है। इस कार्ड का इस्तेमाल एमएसबीवाई के पैनल में शामिल किसी भी अस्पताल में इलाज के लिए किया जा सकता है। योजना में सरकारी कर्मचारी, पेंशनर और आयकरदाता शामिल नहीं हैं। योजना पर ब्रेक लगने से मरीज आफत में आ गए। प्रदेश में साढ़े बारह लाख परिवारों के पास मुख्यमंत्री स्वास्थ्य बीमा योजना के कार्ड हैं।
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क्यों बंद हुई मुख्यमंत्री स्वास्थ्य बीमा योजना
बताया जा रहा है कि बीमा कंपनी बजाज आलियांज के साथ इस योजना के लिए किए गए कांट्रेक्ट को रिन्यू नहीं किया गया। यह कांट्रेक्ट दो महीने पहले ही खत्म हो गया था और अब तक कंपनी ने इसे इसलिए एक्टेंशन दिया था ताकि जरूरी औपचारिकताएं पूरी की जा सकें। सरकार की ओर से इसमें कोई पहल न करने और कंपनी के बार-बार संपर्क करने पर भी जवाब न देन की वजह से बजाज आलियांज ने सभी अस्पतालों में एमएसबीवाई कार्ड को स्वीकार करने पर रोक लगा दी। कंपनी के इस फैसले से अस्पतालों में आने वाले नए मरीजों को कार्ड का लाभ मिलना बंद हो गया। हालांकि रोक लगने से पहले भर्ती मरीजों को डिस्चार्ज होने तक इसका लाभ मिलने की बात कही गयी।
खोखला दावा
इस दावे के अगले ही दिन इसकी पोल खुल गई। मुख्यमंत्री के ऐलान और राज्य सरकार को सही ठहराने का सर्टिफिकेट देने के बाद राज्य के 12 लाख से अधिक कार्डधारकों को उम्मीद बंधी कि अब उन्हें पहले ही तरह इलाज मिल पाएगा, लेकिन सीएम की बात पर भरोसा करके अस्पताल पहुंचे लोगों को टका सा जवाब मिल गया। प्राइवेट अस्पताल तो छोड़ें राजधानी के दून और कोरोनेशन अस्पताल में भी एमएसबीवाई कार्डधारकों को निशुल्क इलाज नहीं मिला।
देहरादून से लेकर उत्तरकाशी तक से इलाज के लिए पहुंचे लोगों को एमएसबीवाई पर इलाज दिए जाने से इनकार कर दिया गया। अस्पताल प्रबंधन का कहना था कि यह कार्ड अब वैलिड नहीं है। एमएसबीवाई कार्ड और मुख्यमंत्री की घोषणा को लेकर लोग परेशान नजर आए और सवाल पूछते दिखे मगर कोई उनके सवालों का जवाब देने वाला नहीं था।
इस बारे में सवाल पूछे जाने पर अस्पताल के चिकित्सा अधीक्षक केके टम्टा ने बिना लिखित आदेश के मुख्यमंत्री की घोषणा पर अमल कर पाने में असमर्थता जताई। उनका कहना है कि सरकार गाइडलान्स तय कर दे कि किस मद के तहत निशुल्क इलाज का खर्च डाला जाएगा और लिखित में यह आदेश दिए जाएं। हालांकि टम्टा बताते हैं कि दून अस्पताल में डेस्टीट्यूड फंड बनाया गया है जिससे कुछ मरीजों को मुफ्त इलाज दिया जा रहा है, लेकिन यह बहुत सीमित राशि है।
इस स्थिति से यह समझा जा सकता है कि एमएसबीवाई कार्ड का अनुबंध क्यों और कैसे खत्म हो गया होगा। मुख्यमंत्री ने बयान दे दिया और मान लिया कि उनके आदेश का पालन हो जाएगा, लेकिन सरकारी मशीनरी ने जरूरी कागजी कार्रवाई नहीं की।
फिर नया आदेश
इसके एक दिन बाद स्वास्थ्य सचिव नितेश झा ने एमएसबीवाई के तहत मरीजों का पहले की ही तरह इलाज किए जाने की घोषणा की। स्वास्थ्य महानिदेशक डॉक्टर अर्चना श्रीवास्तव ने एमएसबीवाई के पैनल में शामिल सभी सरकारी और निजी चिकित्सालयों को इसकी सूचना भेजी। आदेश के मुताबिक जब तक किसी अन्य बीमा कंपनी के साथ अनुबंध नहीं होता है, निर्धारित मानकों के अनुरूप मरीज के इलाज का खर्च राज्य सरकार वहन करेगी।
अबकी बार प्रावधान किया गया कि इस योजना के तहत कोई भी मरीज अस्पताल आता है तो सत्यापन के लिए मेल संबंधित जिले के मुख्य चिकित्साधिकारी को भेजी जाएगी। सीएमओ कार्यालय से दो घंटे के भीतर इसकी अनुमति मिल जाएगी। मरीज का उपचार करने के बाद अस्पताल को खर्च का पूरा ब्योरा सीएमओ की ई-मेल आइडी पर अपलोड करना होगा।
इसके बाद मरीज के इलाज पर होने वाले खर्च का भुगतान एमएसबीवाई में निर्धारित पैकेज के अनुरूप सरकार संबंधित अस्पताल को करेगी। स्वास्थ्य महानिदेशालय ने मरीजों के उपचार में किसी भी तरह की लापरवाही नहीं बरतने के निर्देश भी दिए हैं। हालांकि यह प्रक्रिया इतनी जटिल हो गई कि मंगलवार को राजधानी के दून अस्पताल में सिर्फ चार लोगों का ही इलाज हो पाया।
पहाड़ों में बेहतर स्वास्थ्य सेवाएं पहुंचाने को अपनी प्राथमिकता बताने वाली सरकार की हकीकत इस घटना से खुल गई। मुख्यमंत्री बार-बार यह दावा कर रहे हैं कि वह दूरदराज के इलाकों तक लोगों को स्वास्थ्य सुविधा देने के लिए काम कर रहे हैं। पहाड़ों से पलायन के पीछे रोजगार, शिक्षा के बाद सबसे बड़ा कारण स्वास्थ्य सेवाओं की कमी ही माना जाता है। पलायन रोकने के लिए अच्छी स्वास्थ्य सेवा का होना जरूरी है, लेकिन इस तरह तो स्वास्थ्य सेवाओं की हालत और खराब होगी।
सीएम ने बीमा कंपनी पर थोपी गलती
उत्तराखंड स्थापना दिवस पर मुख्यमंत्री स्वास्थ्य बीमा योजना बंद होने से त्रिवेंद्र सरकार की किरकिरी हो गई। इसके बाद मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने दावा किया कि इसमें सरकार की कोई गलती नहीं थी। यह तो बीमा करवाने वाली कंपनी का दोष है। कंपनी पर धोखा देने का आरोप लगाते हुए मुख्यमंत्री ने कहा कि कंपनी के खिलाफ कार्रवाई की जाएगी। इसके साथ ही उन्होंने ऐलान किया कि योजना से प्रभावित होने वाले मरीजों के इलाज का खर्च सरकार वहन करेगी।
मुख्यमंत्री ने कहा कि योजना के अंतर्गत जिस कंपनी के साथ अनुबंध किया गया था, निश्चित रूप से उस पर वैधानिक कार्रवाई की जाएगी। साथ ही इसमें यदि कोई अधिकारी शामिल होगा तो उस पर भी कार्रवाई होगी। चिकित्सकों को निर्देश दिए गए कि मुख्यमंत्री स्वास्थ्य बीमा योजना से जुड़े मरीजों का इलाज किया जाए। जब तक एमएसबीवाई को लेकर नया कॉन्ट्रेक्ट नहीं होता तब तक किए जाने वाले खर्च को राज्य सरकार उठाएगी।
मुख्यमंत्री के प्रिय अधिकारी की छुट्टी
दरअसल एमएसबीवाई का कॉन्ट्रेक्ट खत्म होने का मामला इसलिए भी बड़ा हो जाता है कि स्वास्थ्य विभाग खुद मुख्यमंत्री के पास है। यह बात कई बार कही गई है कि स्वास्थ्य जैसे महत्वपूर्ण विभाग को एक स्वतंत्र मंत्री मिलना चाहिए, लेकिन यह सीएम के पास मौजूद 40 विभागों में से एक बना हुआ है। पहाड़ों में डॉक्टरों की तैनाती का मसला हो या फिर मुख्यमंत्री स्वास्थ्य बीमा योजना के बंद होने का या फिर राज्य कर्मचारियों द्वारा यू हेल्थ कार्ड की सुविधा की मांग को लेकर नाराजगी। सभी मामलों में शासन स्तर पर सुस्ती सरकार के लिए खासी भारी पड़ रही थी।
मुख्यमंत्री स्वास्थ्य बीमा योजना का दम घुटने के बाद प्रशासनिक फेरबदल में अपर मुख्य सचिव ओमप्रकाश से स्वास्थ्य विभाग का जिम्मा ले लिया गया। ओमप्रकाश मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत के खास अधिकारी माने जाते रहे हैं और प्रशासनिक हलकों में तो कहा जाता है कि वह हाल में ही नए मुख्य सचिव की नियुक्ति से पहले सबसे ताकतवर अधिकारी थे। केंद्र से वापस आकर मुख्य सचिव का पद संभालने वाले उत्पल कुमार सिंह शायद यह संदेश भी देना चाहते थे कि अब अफसरशाही में सत्ता के दो केन्द्र नहीं हैं।